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रायबरेली: राष्ट्र भाषा हिंदी को नहीं मिल पा रहा सही मुकाम - हिन्दी को आज भी विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा

राष्ट्र की भाषा हिन्दी को आज भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. वहीं रायबरेली के फिरोज गांधी डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आजेन्द्र प्रताप सिंह से ईटीवी के इस बारे में खास बातचीत की, जिसमें उन्होंने बेबाक होकर हिन्दी भाषा को लेकर अपनी राय रखी.

राष्ट्र भाषा का गुम होता सा नजर आ रहा अस्तित्व.
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Published : Sep 14, 2019, 8:59 AM IST

Updated : Sep 17, 2020, 4:19 PM IST

रायबरेली: संविधान सभा में जब एक मत से हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया था, तब शायद यह नहीं पता था कि हिन्दी भाषा को विदेशी भाषा से ज्यादा देश के विभिन्न राज्य की स्थानीय भाषा से चुनौतियां मिलेंगी. आजादी के 73वें वर्ष बाद भी राष्ट्र भाषा हिंदी सही मायनों में राष्ट्र भाषा का दर्जा पाने के लिए जूझ रही है.

राष्ट्र भाषा का गुम होता सा नजर आ रहा अस्तित्व.

वहीं जिले के नामचीन उच्च शिक्षण संस्थान फिरोज गांधी डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आजेन्द्र प्रताप सिंह ने ईटीवी से खास बातचीत की. उन्होंने बड़े बेबाकी से राष्ट्र भाषा हिंदी को लेकर अपनी राय रखी. उनका कहना है कि हिंदी को चुनौती अन्य देशों की भाषाओं से ज्यादा अपने देश के विभिन्न राज्य की स्थानीय भाषाओं से मिलती दिखाई देती है.

इसे पढ़ें-औद्यानिक मिशन योजना: मण्डी परिसर में हुआ दो दिवसीय उद्यान मेला का आयोजन

कई मायनों में मॉरिशस,सूरीनाम और फिजी समेत अन्य देशों में हिंदी को वो सभी मान्यताएं मिल रही है, जो भारत के कई गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में अभी तक नही मिल पाई है. अपने ही देश में राष्ट्रभाषा के स्तर पर हिंदी को सबसे बड़ा द्वंद गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों से मिलता रहा है. यही कारण है कि 'एक देश एक प्रधान और एक विधान' के नारे में 'एक भाषा' भी जोड़े जाने की जरूरत है.

कहां खो रहा हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी का अस्तित्व
कभी साहित्यकारों की जननी कही जाने वाली हिंदी को अब लेखनी के महारथी सपूत मिलते नहीं दिख रहे हैं. इस बारें में खुद दो पुस्तकों का लेखन कर चुके डॉ. आजेन्द्र कहते हैे कि यह बात सही है कि मुंशी प्रेमचंद, नामधारी सिंह दिनकर जैसे विरले सदी सहस्त्राब्दी में कहीं एक बार जन्म लेते हैं, लेकिन हिंदी की कोख कभी सूनी नहीं रह सकती. समय के साथ धुरंधरों का हिंदी भाषा के प्रति लगाव का साक्षी संसार आगे भी होता रहेगा. बस जरूरत है संविधान के जरिए राष्ट्र भाषा को दिए जाने वाले वो सभी मौलिक अधिकारों का हिंदी को सौंपे जाने की. फिर हिंदी का परचम समूचे विश्व मे लहराने से कोई नहीं रोक सकता.

रायबरेली: संविधान सभा में जब एक मत से हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया था, तब शायद यह नहीं पता था कि हिन्दी भाषा को विदेशी भाषा से ज्यादा देश के विभिन्न राज्य की स्थानीय भाषा से चुनौतियां मिलेंगी. आजादी के 73वें वर्ष बाद भी राष्ट्र भाषा हिंदी सही मायनों में राष्ट्र भाषा का दर्जा पाने के लिए जूझ रही है.

राष्ट्र भाषा का गुम होता सा नजर आ रहा अस्तित्व.

वहीं जिले के नामचीन उच्च शिक्षण संस्थान फिरोज गांधी डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आजेन्द्र प्रताप सिंह ने ईटीवी से खास बातचीत की. उन्होंने बड़े बेबाकी से राष्ट्र भाषा हिंदी को लेकर अपनी राय रखी. उनका कहना है कि हिंदी को चुनौती अन्य देशों की भाषाओं से ज्यादा अपने देश के विभिन्न राज्य की स्थानीय भाषाओं से मिलती दिखाई देती है.

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कई मायनों में मॉरिशस,सूरीनाम और फिजी समेत अन्य देशों में हिंदी को वो सभी मान्यताएं मिल रही है, जो भारत के कई गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में अभी तक नही मिल पाई है. अपने ही देश में राष्ट्रभाषा के स्तर पर हिंदी को सबसे बड़ा द्वंद गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों से मिलता रहा है. यही कारण है कि 'एक देश एक प्रधान और एक विधान' के नारे में 'एक भाषा' भी जोड़े जाने की जरूरत है.

कहां खो रहा हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी का अस्तित्व
कभी साहित्यकारों की जननी कही जाने वाली हिंदी को अब लेखनी के महारथी सपूत मिलते नहीं दिख रहे हैं. इस बारें में खुद दो पुस्तकों का लेखन कर चुके डॉ. आजेन्द्र कहते हैे कि यह बात सही है कि मुंशी प्रेमचंद, नामधारी सिंह दिनकर जैसे विरले सदी सहस्त्राब्दी में कहीं एक बार जन्म लेते हैं, लेकिन हिंदी की कोख कभी सूनी नहीं रह सकती. समय के साथ धुरंधरों का हिंदी भाषा के प्रति लगाव का साक्षी संसार आगे भी होता रहेगा. बस जरूरत है संविधान के जरिए राष्ट्र भाषा को दिए जाने वाले वो सभी मौलिक अधिकारों का हिंदी को सौंपे जाने की. फिर हिंदी का परचम समूचे विश्व मे लहराने से कोई नहीं रोक सकता.

Intro:रायबरेली: हिन्दी दिवस विशेष -

राजभाषा-राष्ट्र भाषा के द्वंद में हिंदी को नही मिल पाया सही मुकाम

13 सिंतबर 2019 - रायबरेली

संचार के सुपरहाईवे पर सवार देश जब अंतरिक्ष अनुसंधान पर दुनिया के सामने हैरतअंगेज करतबों के साथ चंद्रयान 2 मिशन को अंजाम पर लाने की कोशिश कर रहा था,भाषा के रुप हिंदी अभी भी सही मायनों में राष्ट्र भाषा का दर्जा पाने के लिए जूझ रही थी।आज़ादी के 73वे वर्ष बाद भी राष्ट्र भाषा हिंदी को वर्चस्व की लड़ाई में बौना साबित करने में विदेशी भाषाओं से ज्यादा देशी भाषाएं तुली है।


हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर रायबरेली शहर के नामचीन उच्च शिक्षण संस्थान फिरोज़ गांधी डिग्री कॉलेज में हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ आजेन्द्र प्रताप सिंह ने ETV से खास बातचीत में हिंदी के साथ राष्ट्र भाषा के नाम पर हो रहे खिलवाड़ पर बेबाकी से अपनी राय रखी।सिंह ने कहां कि हिंदी को चुनौती अन्य देशों की भाषाओं से ज्यादा अपने देश के विभिन्न राज्य की स्थानीय भाषाओं से मिलती दिखाई देती है।











Body:कई मायनों में मॉरिशस,सूरीनाम व फिजी समेत अन्य देशों में हिंदी को वो सभी मान्यताएं मिल रही है,जो भारत के कई गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में अभी तक नही मिल पाई है।

अपने ही देश में राष्ट्रभाषा के स्तर पर हिंदी को सबसे बड़ा द्वंद गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों से मिलता रहा है।यही कारण है कि 'एक देश एक प्रधान व एक विधान' के नारे में 'एक भाषा' भी जोड़े जाने की जरुरत है।

क्या कारण है कि हिंदी को अब नही मिलते मुंशी,दिनकर, नीरज
सरीखे सपूत -

कभी साहित्यकारों की जननी कही जाने वाली हिंदी को अब लेखनी के महारथी सपूत मिलते नही दिख रहे है।इस बारें में खुद दो पुस्तकों का लेखन कर चुके डॉ आजेन्द्र कहते है कि यह बात सही है कि मुंशी प्रेमचंद,नामधारी सिंह दिनकर जैसे विरले सदी सहस्त्राब्दी में कही एक बार जन्म लेते है पर हिंदी की कोख कभी सुनी नही रह सकती और समय के साथ धुरंधरों का हिंदी भाषा के प्रति लगाव का साक्षी संसार आगे भी होता रहेगा।बस जरुरत है संविधान के जरिए राष्ट्र भाषा को दिए जाने वाले वो सभी मौलिक अधिकारों का हिंदी को सौंपे जाने की,और संसार की प्रबल वैज्ञानिक भाषा संस्कृत के पुत्री हिंदी का परचम समूचे विश्व मे लहराने से कोई नही रोक सकता।













Conclusion:बाइट : डॉ आजेन्द्र प्रताप सिंह - असिस्टेंट प्रोफेसर - फिरोज गांधी डिग्री कॉलेज, रायबरेली

प्रणव कुमार - 7000024034
Last Updated : Sep 17, 2020, 4:19 PM IST

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