रायबरेली: संविधान सभा में जब एक मत से हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया था, तब शायद यह नहीं पता था कि हिन्दी भाषा को विदेशी भाषा से ज्यादा देश के विभिन्न राज्य की स्थानीय भाषा से चुनौतियां मिलेंगी. आजादी के 73वें वर्ष बाद भी राष्ट्र भाषा हिंदी सही मायनों में राष्ट्र भाषा का दर्जा पाने के लिए जूझ रही है.
वहीं जिले के नामचीन उच्च शिक्षण संस्थान फिरोज गांधी डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आजेन्द्र प्रताप सिंह ने ईटीवी से खास बातचीत की. उन्होंने बड़े बेबाकी से राष्ट्र भाषा हिंदी को लेकर अपनी राय रखी. उनका कहना है कि हिंदी को चुनौती अन्य देशों की भाषाओं से ज्यादा अपने देश के विभिन्न राज्य की स्थानीय भाषाओं से मिलती दिखाई देती है.
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कई मायनों में मॉरिशस,सूरीनाम और फिजी समेत अन्य देशों में हिंदी को वो सभी मान्यताएं मिल रही है, जो भारत के कई गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में अभी तक नही मिल पाई है. अपने ही देश में राष्ट्रभाषा के स्तर पर हिंदी को सबसे बड़ा द्वंद गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों से मिलता रहा है. यही कारण है कि 'एक देश एक प्रधान और एक विधान' के नारे में 'एक भाषा' भी जोड़े जाने की जरूरत है.
कहां खो रहा हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी का अस्तित्व
कभी साहित्यकारों की जननी कही जाने वाली हिंदी को अब लेखनी के महारथी सपूत मिलते नहीं दिख रहे हैं. इस बारें में खुद दो पुस्तकों का लेखन कर चुके डॉ. आजेन्द्र कहते हैे कि यह बात सही है कि मुंशी प्रेमचंद, नामधारी सिंह दिनकर जैसे विरले सदी सहस्त्राब्दी में कहीं एक बार जन्म लेते हैं, लेकिन हिंदी की कोख कभी सूनी नहीं रह सकती. समय के साथ धुरंधरों का हिंदी भाषा के प्रति लगाव का साक्षी संसार आगे भी होता रहेगा. बस जरूरत है संविधान के जरिए राष्ट्र भाषा को दिए जाने वाले वो सभी मौलिक अधिकारों का हिंदी को सौंपे जाने की. फिर हिंदी का परचम समूचे विश्व मे लहराने से कोई नहीं रोक सकता.