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माघ मेला: कल्पवासियों के लिए बनाए गए विशेष चूल्हे, जानिए क्या है खासियत

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Published : Jan 21, 2021, 7:11 PM IST

प्रयागराज के कुम्हार इन दिनों कल्पवासियों के लिए चूल्हे बनाने में व्यस्त हैं. माघ मेले में आए हजारों कल्पवासी इन चूल्हों का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए करते हैं. मिट्टी का चूल्हा इन कल्पवासियों के लिए शुद्धता का प्रतीक माना जाता है.

कुम्हार हर वर्ष माघ मेले का इंतजार करते हैं
कुम्हार हर वर्ष माघ मेले का इंतजार करते हैं

प्रयागराज: माघ मेले के शुरुआत जब होती है तो पूरी दुनिया से कल्पवासियों का आगमन तीर्थराज में होता है. एक माह संगम की रेती पर रहकर यहां श्रद्धालु पूजा पाठ करते है. कल्पवासियों के खानपान की व्यवस्था भी बिल्कुल अलग होती है. सादा भोजन ग्रहण करते हैं और गंगा के किनारे टेंट में रहकर कल्पवासी पूरे एक माह तक मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं. मिट्टी का चूल्हा इन कल्पवासियों के लिए शुद्धता का प्रतीक माना जाता है. कल्पवास के दौरान श्रद्धालु जिस चूल्हे पर खाना पकाते हैं. उस चूल्हे को बनाने के लिए गंगा नदी के किनारे की मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है.

कुम्हार हर वर्ष माघ मेले का इंतजार करते हैं

लाखों की संख्या में जब कल्पवासी आते हैं तो मिट्टी के चूल्हों की डिमांड प्रयागराज के ही आस-पास के इलाकों से होती है. संगम तट स्थित दारागंज उनमें से एक है. दशाश्वमेध घाट और शास्त्री पुल के नीचे भी कुम्हार मिट्टी के चूल्हे बनाकर बेचते हैं. प्रयागराज के कुम्हार इन दिनों कल्पवासियों के लिए चूल्हे बनाने में व्यस्त हैं. कुम्हारों के परिवार मेला शुरू होने से 2 महीने पहले ही गंगा किनारे की मिट्टी, गाय के गोबर और गंगाजल से चूल्हे बनाने में जुट जाते हैं. चूल्हे बनने के बाद कुम्हार दुकान लगा कर इसे बेचना शुरु कर देते हैं. कुम्हार हर वर्ष माघ मेले का इंतजार करते हैं. कल्पवास के दौरान मिट्टी के चूल्हों के जरिए कुम्हारों की अच्छी खासी आमदनी हो जाती है.

अयोध्या से आए संत कहते हैं कि कल्पवास में शुद्धता को पहली प्राथमिकता माना जाता है. मिट्टी के बने चूल्हे शुद्धता की कसौटी पर खरे माने जाते हैं. संगम तट पर लगभग 90 वर्षीय बुजुर्ग गंगा माता लगातार 10 वर्षों से कल्पवास कर रही है. उनका कहना है कल्पवास हो जाने के बाद भी हम इसी गंगा तट पर रहते हैं और मां गंगा की सेवा करते यही पर रह कर पूजा पाठ आराधना करके जीवन हमारा धन हो जाता है. माटी के बने चूल्हे पर खाना बनाते हैं क्योंकि यह चूल्हा एकदम शुद्ध होता है.

प्रयागराज: माघ मेले के शुरुआत जब होती है तो पूरी दुनिया से कल्पवासियों का आगमन तीर्थराज में होता है. एक माह संगम की रेती पर रहकर यहां श्रद्धालु पूजा पाठ करते है. कल्पवासियों के खानपान की व्यवस्था भी बिल्कुल अलग होती है. सादा भोजन ग्रहण करते हैं और गंगा के किनारे टेंट में रहकर कल्पवासी पूरे एक माह तक मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं. मिट्टी का चूल्हा इन कल्पवासियों के लिए शुद्धता का प्रतीक माना जाता है. कल्पवास के दौरान श्रद्धालु जिस चूल्हे पर खाना पकाते हैं. उस चूल्हे को बनाने के लिए गंगा नदी के किनारे की मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है.

कुम्हार हर वर्ष माघ मेले का इंतजार करते हैं

लाखों की संख्या में जब कल्पवासी आते हैं तो मिट्टी के चूल्हों की डिमांड प्रयागराज के ही आस-पास के इलाकों से होती है. संगम तट स्थित दारागंज उनमें से एक है. दशाश्वमेध घाट और शास्त्री पुल के नीचे भी कुम्हार मिट्टी के चूल्हे बनाकर बेचते हैं. प्रयागराज के कुम्हार इन दिनों कल्पवासियों के लिए चूल्हे बनाने में व्यस्त हैं. कुम्हारों के परिवार मेला शुरू होने से 2 महीने पहले ही गंगा किनारे की मिट्टी, गाय के गोबर और गंगाजल से चूल्हे बनाने में जुट जाते हैं. चूल्हे बनने के बाद कुम्हार दुकान लगा कर इसे बेचना शुरु कर देते हैं. कुम्हार हर वर्ष माघ मेले का इंतजार करते हैं. कल्पवास के दौरान मिट्टी के चूल्हों के जरिए कुम्हारों की अच्छी खासी आमदनी हो जाती है.

अयोध्या से आए संत कहते हैं कि कल्पवास में शुद्धता को पहली प्राथमिकता माना जाता है. मिट्टी के बने चूल्हे शुद्धता की कसौटी पर खरे माने जाते हैं. संगम तट पर लगभग 90 वर्षीय बुजुर्ग गंगा माता लगातार 10 वर्षों से कल्पवास कर रही है. उनका कहना है कल्पवास हो जाने के बाद भी हम इसी गंगा तट पर रहते हैं और मां गंगा की सेवा करते यही पर रह कर पूजा पाठ आराधना करके जीवन हमारा धन हो जाता है. माटी के बने चूल्हे पर खाना बनाते हैं क्योंकि यह चूल्हा एकदम शुद्ध होता है.

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