प्रयागराजः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि डीएनए जांच जीवन की निजता का अधिकार है. रूटीन में जांच का निर्देश नहीं दिया जा सकता है. यदि न्याय हित में संदेह से परे अभियोजन के लिए प्रथम दृष्टया केस होने पर डीएनए जांच कराई जा सकती है.
कोर्ट ने अपर सत्र न्यायाधीश मथुरा के डीएनए जांच की मांग को निरस्त करने के आदेश को विधि विरुद्ध करार देते हुए रद कर दिया है. शिकायतकर्ता या मृतका के परिवार के सदस्य का रक्त सैंपल लेकर घटनास्थल से खून की डीएनए जांच एक माह में कराने का निर्देश दिया है.यह आदेश न्यायमूर्ति गौतम चौधरी ने मोहन सिंह की याचिका पर दिया है.
याची और टिक्की आपस में झगड़ रहे थे. शिकायतकर्ता की मां सिटी मार्केट खरीदारी करने गई थी. झगड़ा शांत करने के लिए बीच बचाव किया. याची ने गाली देते हुए गोली मार दी. जिससे मौत हो गई. 21 जून 2012 को कोशी कला थाने में एफआईआर दर्ज की गई थी.
पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की. गवाही भी हुई. इसके बाद याची ने धारा 233 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अर्जी दाखिल कर पीड़िता के परिवार का ब्लड सैंपल लेकर डीएनए जांच के लिए फोरेंसिक लैबोरेटरी भेजने का आदेश देने की मांग की. उसने कहा कि जमीन पर गिरे खून से परिवार का खून मैच कराया जाए. अपर सत्र अदालत ने 11 अक्टूबर 2021को अर्जी खारिज कर दी जिसे चुनौती दी गई थी.
यह भी पढ़ें-शिक्षिका ने छात्र को बेरहमी से पीटा, पीठ पर चोटों के निशान
कोर्ट ने कहा स्थापित सिद्धांत है कि कोई भी निर्दोष सजा न पाये भले ही दस अपराधी छूट जाय. याची का दावा है कि डीएनए जांच हुई तो वह निर्दोष साबित होगा. कोर्ट ने कहा सवाल है. क्या डीएनए जांच जीवन व निजता के अधिकार का उल्लघंन है. अशोक कुमार केस के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि डीएनए की रूटीन जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता किंतु जहां संदेह से परे अभियोजन का प्रश्न हो तो न्याय हित में डीएनए जांच का आदेश दिया जा सकता है.
ऐसी ही जरूरी और विश्वसनीय खबरों के लिए डाउनलोड करें ईटीवी भारत ऐप