मेरठ: जिला मुख्यालय से 30 किमी दूर परीक्षितगढ़ और सांपों का अनोखा रहस्य है. माना जाता है कि आज भी किसी व्यक्ति के आसपास भी अगर कहीं सांप होता है तो खुद ही इसका अहसास हो जाता है. अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र परीक्षित और सांपों के बीच यहां हैरान करने वाली कहानी आज भी सुनाई जाती है. इतिहासकार भी परीक्षितगढ़ के इस रहस्य को लेकर हैरान रह जाते हैं. रहस्य से पहले हम आपको यहां की मान्यताओं के बारे में बताते हैं.
जानिये क्या है पूरा रहस्य
मेरठ का कस्बा परीक्षितगढ़ द्वापर युग अंत में करीब 5 हजार साल पहले महाभारत काल के अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के बेटे परीक्षित के नाम से जाना जाता है. महाभारत काल में राजा परीक्षित यहां शासन किया करते थे. बताया जाता है कि इस स्थान पर ऋषि शमीक का आश्रम था, जहां उन्होंने हजारों वर्ष तपस्या की थी. एक दिन राजा परीक्षित घूमते हुए श्रंगी ऋषि के आश्रम पहुंचे थे.
उस समय ऋषि शमीक तपस्या में विलीन थे, जिसके चलते राजा परीक्षित की आवाज नहीं सुन पाए. इस बात पर राजा क्रोधित हो गए. राजा ने अपना अपमान समझ कर तपस्या कर रहे ऋषि शमीक के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया था. जब इस बात का पता लगा तो ऋषि शमीक के पुत्र श्रंगी ने राजा परीक्षित को श्राप दे दिया. उन्होंने श्राप दिया कि सात दिन में यही सांप जीवित होकर राजा परीक्षित को डंस लेगा. इसके बाद श्राप के अनुसार, उक्त सांप ने राजा परीक्षित को डस लिया, जिस समय वे शुक्रताल में कथा सुन रहे थे. सर्प दंश के चलते राजा परीक्षित की मृत्यु हो गई थी.
कौन थे राजा परीक्षित
जानकारी के मुताबिक, किला परीक्षितगढ़ में सांपों की यह कहानी अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र राजा परीक्षित की मौत से ही जुड़ी है. महाभारत के युद्ध के अंत में भगवान कृष्ण ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को अश्वथामा द्वारा चलाये गए ब्रह्मास्त्र से बचाया था. महाभारत ग्रंथ के अनुसार, परीक्षित का पालन पोषण भगवान विष्णु और कृष्ण ने किया था, लेकिन उनकी मृत्यु श्रंगी ऋषि के श्रापानुसार सांप के काटने से हुई थी.
बताया जाता है कि श्राप से मुक्ति पाने के लिए राजा परीक्षित ऋषि शमीक के बताए अनुसार शुक्रताल सुखदेव आश्रम में भागवत पुराण सुनने गए थे. जहां ठीक सात दिन बाद तक्षक सांप ऋषि का वेश बनाकर राजा परीक्षित के पास आया और उनको डस लिया. सांप के काटने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई थी.
श्राप के बाद पुत्र जान्मेजय को बनाया राजा
श्रंगी ऋषि के श्राप के बाद राजा परीक्षित ने अपने पुत्र जान्मेजय को परीक्षितगढ़ का राजा बनाया था. जिसके बाद जान्मेजय ने पिता की मृत्यु का बदला लेने के उद्देश्य से जंगल के तमाम सांपों को खौलते तेल में तल दिया था. मान्यता है कि भगवान शिव के गले में पड़ा सांप ही धरती पर जीवित बचा था. भगवान शिव ने स्वयं धरती पर आकर जान्मेजय से एक मात्र बचे सांप के लिए जीवन दान मांगा था. जिसके बाद जान्मेजय ने भगवान शिवजी के कहने पर सांप को छोड़ दिया था.
भगवान शिवजी के वरदान से नहीं काटते सांप
बताया जाता है कि भगवान शिव ने परीक्षितगढ़ श्रंगी ऋषि आश्रम में सांप को किसी को नहीं काटने का वरदान दिया था. तभी से यहां सांप किसी को नहीं काटते हैं. यहां पर सांप कितना भी जहरीला हो, पूंछ पर पैर रखे जाने पर भी कुछ नहीं करते हैं.
आज तक आश्रम में आने वाले श्रदालुओं और आसपास के किसानों को एक भी सांप ने नहीं काटा है. गर्मी और बारिश के दिनों में श्रंगी ऋषि के आश्रम में सांपों का बसेरा रहता है. हजारों साल पुराने इन पेड़ों पर बड़ी संख्या में सांप लिपटे रहते हैं, लेकिन सर्दियों के दिनों में ठंड से बचने के लिए बिलों में चले जाते हैं.
गुल्लर के पेड़ के नीचे करते थे तपस्या
श्रंगी ऋषि के इस आश्रम में महाभारत कालीन करीब 5 हजार साल पुराना गुल्लर का पेड़ आज भी द्वापर युग की याद को ताज़ा कर रहा है. गुल्लर के इस पेड़ के नीचे बैठकर ऋषि शमीक और उनके पुत्र श्रंगी ऋषि तपस्या करते थे. आश्रम में यज्ञशाला में हवन कुंड भी है, जहां वे तप किया करते थे. आश्रम के ठीक पीछे वह कुआं भी है, जिसका पानी ऋषि मुनि पीकर प्यास बुझाते थे. श्रंगी ऋषि की प्रतिमा में आज भी सांप लटका हुआ नजर आता है.