मेरठ: शायद ही आपने कहीं ऐसा सुना हो, जहां ससुराल में ही दामाद का वध किया जाता हो. लेकिन, यह परंपरा मेरठ (meerut) में बरसों बरस ने निभाई जा रही है. पुराणों के अनुसार मेरठ का पुराना नाम मयराष्ट्र था और यहां के राजा मय थे. राजा मय की बेटी थीं मंदोदरी और मंदोदरी (Mandodari) का विवाह लंकापति रावण (Lankapati Ravan) के साथ हुआ. मंदोदरी के मायके मेरठ में हर साल रावण का पुतला दहन करने की पंरपरा है. यहां प्रत्येक वर्ष गाजे-बाजे और ढोल नगाड़ों के साथ दामाद रावण का वध होता है. इसकी तैयारी मंगलवार से शुरू हो गई है. आज रामलीला मैदान में स्तंभ गाड़ कर भूमि पूजन कर दिया गया है.
असत्य पर सत्य की विजय का सबसे बड़ा उदाहरण हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ रामायण (ramayana) में दर्ज है, जिसमें बताया गया है कि रावण असुर था, अत्याचारी था, जिसने भगवान श्री राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया था. इसीलिए भगवान राम ने लंका पर आक्रमण किया और लंकापति रावण का वध कर दिया, लेकिन यह सब बातें त्रेता युग की हैं. आज हम आपको इसी सत्य से रूबरू कराते हैं.
दरअसल, मेरठ रावण की पत्नी मंदोदरी का मायका है. मेरठ के भैसाली मैदान में पहले तालाब हुआ करता था. कहा जाता है कि मंदोदरी उसी तालाब में नहाने के बाद विल्बेश्वर मंदिर में जाकर भगवान शिव की आराधना करती थीं. विल्बेश्वर मंदिर आज भी लाखों लोगों की आस्था का प्रतीक है. हालांकि, वक्त के साथ तालाब ग्राउंड में तब्दील हो गया, लेकिन मेरठ के लोग इसी मैदान में सैकड़ों सालों से दशहरे के दिन रावण का पुतला जलाते आए हैं.
दशहरे के दिन देश भर में रावण वध का मंचन होता है और रावण के पुतले जलाए जाते हैं, लेकिन रावण की ससुराल में यह परंपरा थोड़े बदलाव से मनाई जाती है. माना जाता है कि रावण की ससुराल मेरठ में है और यहां राम और रावण दोनों के अनुयायी रहते हैं. इसलिए यहां रावण की पूजा भी होती है और रावण का पुतला भी फूंका जाता है.
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प्रत्येक वर्ष की भांति इस साल भी मेरठ के कैंट स्थित भैसाली मैदान में ढोल-नगाड़े और गाजे-बाजे के साथ लंकापति रावण के वध की तैयारी की जा रही है. जिस जगह पर रावण के वध की लीला की जानी है उस जगह का भूमि पूजन किया गया है. शहर के गणमान्य लोग इस भूमि पूजन का हिस्सा बनकर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं, लेकिन जब में उनसे सवाल किया गया कि ससुराल में दामाद के वध की लीला यह कैसी परंपरा है तो उन्होंने कहा कि असत्य पर सत्य की विजय के लिए यह परंपरा त्रेता युग से चली आ रही है. कलयुग में भी इस परंपरा का उसी तरह निर्वाहन किया जा रहा है.
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