मेरठ : इसे मेयर के उम्मीदवारों की नियति मान लें या मेरठ की जनता का फैसला. पश्चिम यूपी के सबसे बड़े शहर मेरठ में उस दल के कैंडिडेट को मेयर की कुर्सी नसीब नहीं हुई, जिसका शासन पूरे उत्तरप्रदेश पर हो. हालांकि योगीराज में कई मिथक टूटे हैं. इस मिथक की शुरुआत इसके निगम बनने के साथ ही शुरू हो गई थी.
1994 में मेरठ नगर पालिका को नगर निगम का दर्जा मिला और 1995 में पहली बार मेयर के लिए वोट डाले गए. तब चुनाव के दौरान प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. पहली बार मेरठ की जनता ने बहुजन समाज पार्टी के कैंडिडेट अयूब अंसारी को मेयर की कुर्सी पर बैठाया. 2000 में प्रदेश के सीएम राजनाथ सिंह थे. यूपी की कमान भारतीय जनता पार्टी के पास थी. 2000 में हुए निकाय चुनाव में बीएसपी के हाजी शाहिद अखलाक मेयर चुने गए. यानी दूसरी बार भी सत्ताधारी दल को मेरठ के मेयर की कुर्सी नहीं मिली.
यह रवायत 2006 के निकाय चुनाव में जारी रही. तब प्रदेश की सत्ता बीएसपी सुप्रीमो मायावती के हाथ में थी. मेयर पद के लिए उस समय हुए चुनाव में बीजेपी की मधु गुर्जर को जीत मिली. 2012 में निकाय चुनाव जब हुए थे तो तब प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. अखिलेश यादव तब मुख्यमंत्री थे. उस वक्त भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हरिकांत अहलूवालिया को मेरठ की जनता ने मेयर चुना था. इस तरह मेयर के पद पर बीजेपी को लगातार दूसरी बार सफलता मिली.
फिर 2017 में निकाय चुनाव हुए. तब प्रचंड लहर में बीजेपी ने पूरे प्रदेश में परचम लहराया था. बीजेपी ने यूपी की 312 विधानसभाओं में जीत दर्ज की थी. मेरठ की सात विधानसभा सीट में से छह पर बीजेपी ने कब्जा किया था. तब किसी ने निकाय चुनाव में बीजेपी की हार की उम्मीद की थी. मगर 2017 के निकाय चुनाव में मेरठ के वोटरों ने अपने अंदाज को कायम रखा. बीजेपी उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा और बीएसपी की सुनीता वर्मा मेयर चुनी गईं. इसके बाद से यह न टूटने वाला मिथक बन गया कि जो पार्टी लखनऊ में राज कर रही है, उसे मेरठ के मेयर पद पर जीत नहीं मिलेगी.
इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार व राजनैतिक विश्लेषक शादाब रिजवी 2017 में बीजेपी कैंडिडेट की हार को मिथक नहीं मानते हैं. उनका कहना है कि प्रदेश में पिछले निकाय चुनावों के वक्त भी परिणाम भाजपा कर पक्ष में ही थे. बीजेपी के सर्वाधिक पार्षदों को जीत मिली थी. भाजपा ने मेयर पद के लिए बड़ा चेहरा कांता कर्दम को खड़ा किया था. बीएसपी की सुनीता वर्मा के पति योगेश वर्मा का दलित वोट बैंक पर अच्छी पकड़ थी. दलित मुस्लिम वोटरों की गोलबंदी के कारण बीजेपी को हार मिली. हालांकि पार्टी ने बाद में कांता कर्दम को राज्यसभा में भेज दिया.
गौरतलब है कि मेरठ में चार बार पिछड़े वर्ग और एक बार अनुसूचित जाति के नेता मेयर रहे हैं. महिलाओं को दो बार महापौर बनने का मौका मिला है. अब एक बार फिर योगी आदित्यनाथ को सरकार है. अब देखने वाली बात यह होगी कि यह मिथक क्या टूट पाएगा या फिर मेरठ के महापौर किसी और दल से चुना जाएगा.
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