मेरठ: किसान भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाते हैं. देश में लंबे समय से किसानों का आंदोलन भी चल रहा है, वहीं सरकार दावा कर रही है कि उसकी नीतियों से किसान की आय दोगुनी हो जाएगी. अगर उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले की बात की जाए तो यहां के हालात अलग ही नजर आते हैं. यहां ठेके पर जमीन लेकर खेती करने वाले किसान एवं बटाईदारों की स्थिति खराब होती जा रही है. ठेके और बटाई पर खेती करने वाले किसानों का कहना है कि सरकारी योजनाओं का लाभ भूमिहीन किसानों को नहीं मिल रहा है. जानकारी के मुताबिक सरकारी योजनाओं का लाभ उन्ही किसानों को मिलता है जिनके नाम जमीन होती है. हालांकि नाबार्ड और आरबीआई ने ठेकेदारों एवं बटाईदार किसानों को संयुक्त देयता समूह ( जेएलजी ) जरिए कृषि ऋण देने की शिफारिश की थी. ETV भारत ने जब पड़ताल की तो सरकार के सभी दावों की पोल खुलकर सामने आई...
एक साल का होता है ठेका
आपको बता दें कि भूमिहीन किसान जमींदारों से कृषि भूमि को ठेके पर ले लेते हैं. ऐसे किसान जमीन के मालिक को 5 से 10 हजार रुपये प्रति बीघा एक साल के लिए ठेके पर ले लेते हैं. ठेके पर जमीन लेकर खेती करने वाले किसानों को ठेकेदार भी कहते हैं. ठेकेदार ठेके पर जमीन लेकर जमीन में गेहूं, धान और सब्जियों की खेती करते हैं. ETV भारत की टीम ने मेरठ के ठेके पर खेती कर रहे किसानों के बीच पहुंची और उनके हालात का जायजा लिया. ETV भारत से बातचीत में बताया कि वे ठेके पर जमीन लेकर खेती कर रहे हैं. ठेके पर खेती करने से केवल दो वक्त की रोटी ही कमा पाते हैं.
ज्यादा लागत लेकिन कम पैदावार
किसानों ने ETV भारत को बताया कि ठेके पर जमीन लेकर लागत ज्यादा आती है लेकिन उनके पास इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है. गांव में रहकर खेती के साथ दूसरा अन्य रोजगार भी कर पाते हैं. ठेके की मोटी रकम देने के बाद महंगे खाद-बीज, पेस्टिसाइड्स, केमिकल और दवाइयां उनका सारा बजट बिगाड़ देती हैं. रही सही कसर मौसम की मार पूरी कर देती है. धान की फसल ज्यादा बरसात की भेंट चढ़ जाती है तो गेहूं की फसल में सूखा पड़ जाता है, जबकि सब्जियों फसलों की कीट पतंगे बर्बाद कर देते हैं. जिससे उनकी लागत भी पूरी नहीं हो पाती.
बटाईदारों का छलका दर्द
इसी दौरान ETV भारत की टीम ने बटाई पर खेती करने वाले किसानों का भी हाल जानने की कोशिश की. बटाई पर खेती कर रहे किसानों ने बताया कि वे जमींदार की जमीन पर तिहाई, चौथाई पर खेती करते हैं. इसमें जहां जमींदार की जमीन होती है तो वहीं बटाईदार की मेहनत होती है. इसके अलावा जमीन मालिक और बटाईदार लागत में आधा-आधा हिस्सा लगाते हैं. बटाईदार के मुताबिक अगर फसल अच्छी हो जाती है तो जमींदार को भी कुछ बच जाता है. यदि किसी तरह की प्राकृतिक आपदा से फसल बर्बाद हो जाती है तो पूरे साल की मेहनत और लागत पर पानी फिर जाता है.
आर्थिक संकट में भूमिहीन किसान
ठेके एवं बटाई पर खेती कर रहे किसानों को दिन-रात खेतों में मेहनत करनी पड़ती है. मजदूरों के साथ पूरा परिवार कोल्हू के बैल की तरह खेतों की निराई, गुड़ाई करने में लगा रहता है लेकिन बेमौसम बारिश या सूखा आने से उनकी मेहनत पर पानी फिर जाता है. कई बार तो पकी पकाई फसल बर्बाद हो जाती है. ऐसे में भूमिहीन किसानों के सामने आर्थिक संकट मंडराने लगता है. किसान न तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाते हैं और न ही ठीक ढंग से बच्चों की शादी कर पाते हैं. कई किसान तो ऐसे भी हैं, जो पक्का मकान भी नहीं बना पा रहे हैं.
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सरकारी योजनाओं से वंचित हैं ये किसान
ठेके और बटाई पर जमीन लेकर खेती कर रहे किसानों ने ETV भारत से बातचीत में बताया कि भूमिहीन किसानों को किसी भी प्रकार की सरकारी योजना का कोई लाभ नहीं मिलता. जिस किसान के नाम से जमीन है, उन्हीं जमींदारों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का लाभ तो दूर किसी तरह का ऋण भी नहीं मिल रहा है. सरकारी गैरसरकारी बैंक ऋण देने के लिए गारंटी के तौर पर जमीन के कागज मांगते हैं. इसके चलते ठेके एवं बटाई पर खेती कर रहे भूमिहीन किसान सरकारी योजनाओं से वंचित रह रहे हैं.