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सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुनावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा

यूपी के शहरों-कस्बों की सड़कों-गलियों में अतिक्रमण सुरसा की तरह बढ़ता जा रहा है. इसके बावजूद निकाय चुनाव में यह मुद्दा गौण हो जाता है. कारण है अतिक्रमणकारियों का वोट बैंक होना. ऐसे में प्रशासनिक स्तर से अभियान चले भी तो कैसे. बहरहाल प्रशासनिक तंत्र की जेबें जरूर गरम होती हैं. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण.

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Published : Apr 18, 2023, 9:48 PM IST


लखनऊ : उत्तर प्रदेश में अतिक्रमण सबसे बड़ी शहरी समस्याओं में से एक है. बावजूद इसके नगरीय निकाय चुनावों में इसे मुद्दा नहीं बनाया जाता. महानगर हों या छोटे कस्बे, हर जगह आधी सड़कों पर अतिक्रम दिखाई देता है. कहीं ठेले-खोमचे लगे होते हैं, तो कहीं अवैध बाजार चल रहे होते हैं. खास बात यह है कि इस समस्या से हर व्यक्ति परेशान है और पूरा सरकारी तंत्र वाकिफ है. बावजूद इसके कार्यवाही नहीं की जाती. शायद इसका कारण अतिक्रमणकारियों को वोटर समझकर कोई भी दल उनसे बैर मोल लेना नहीं चाहता और आम शहरी इस समस्या में पिसता रहता है.

सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
यदि राजधानी लखनऊ की ही बात करें तो कई बार आतिक्रम के कारण लगने वाले जाम में फंसी एंबुलेंस में रोगियों ने दम तोड़ दिया, पर शासन तंत्र ने इसका संज्ञान तक नहीं लिया. जब कभी मीडिया में अतिक्रमण को लेकर अभियान चलाए जाते हैं, तो नगर निगम रस्मअदायगी के लिए कार्यवाही करता है और फिर बैठ जाता है. यही कारण है कि शहर के तमाम बड़े नालों तक पर बस्तियां बस गई हैं. इन नालों पर निर्माण हो जाने के कारण बरसात आने पर इनकी सफाई नहीं हो पाती और जलभराव की समस्या खड़ी हो जाती है. राजधानी के लगभग सभी राष्ट्रीय राजमार्गों पर अवैध फल और सब्जी मंडियां लगती हैं. कुछ राष्ट्रीय राजमार्गों पर तो मौरंग और ईंटों की मंडियां भी लगवाई जाती हैं. स्वाभाविक है कि इससे स्थानी पुलिस को भी 'लाभ' होता है. हर ठेले-खोमचे से लेकर बड़े अतिक्रमणकर्ता से अवैध वसूली भी होती है. स्वाभाविक है कि इससे बहुतों की जेबें गर्म होती हैं, शायद इसीलिए कार्यवाही नहीं होती.
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
ऐसा नहीं कि यदि पुलिस या नगर निगम के अधिकारी चाहें तो अतिक्रमण पर अंकुश नहीं लग सकता. लगभग एक दशक पहले जब राजधानी लखनऊ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक यशश्वी यादव थे, तो उन्होंने राजमार्गों पर लगने वाली मंडियों को एक दायरे तक सीमित कर दिया था. साथ ही उन्होंने थाना प्रभारियों को अतिक्रमण के लिए जिम्मेदारी दे दी थी कि यदि उनके क्षेत्र में अतिक्रमण हुआ तो थानाध्यक्ष व उनके मातहतों पर कार्यवाही की जाएगी. यही नहीं मेडिकल कॉलेज के लिए जाने वाले गोकर्णनाथ मार्ग से पूरा अतिक्रमण हटवा दिया गया था. हालांकि आज फिर वही हालात हैं. गोमती नदी के सभी पुलों और तटबंधों पर अवैध मंडियां हैं. यह हाल सिर्फ राजधानी लखनऊ का नहीं है. प्रदेश के हर छोटे-बड़े शहर और कस्बे की यही स्थिति है. हां, नोएडा और ग्रेटर नोएडा इसके अपवाद जरूर हो सकते हैं. जिस राजधानी में शासन-सत्ता चलाने वाले रहते हैं, जब वहां की हालत ऐसी है, तो पूरे प्रदेश की हालत क्या होगी सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
इस समस्या को लेकर हाईकोर्ट में कुछ मामले उठाने वाले एडवोकेट ओमेंद्र शर्मा कहते हैं राजधानी ही क्या पूरा प्रदेश अतिक्रमण और अवैध निर्माणों से पटा पड़ा है. यदि सरकारी तंत्र चाहे तो एक अतिक्रमण नहीं हो सकता. आखिर नोएडा और ग्रेटर नोएडा भी तो इसी प्रदेश का हिस्सा हैं. वहां क्यों नहीं है अतिक्रमण. जब तक राजनीतिक दल अतिक्रमण करने वालों को वोट बैंक की तरह से देखेंगे तब तक हालात बदलने वाले नहीं हैं. दूसरी बात इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमारे देश में चुनाव असल मसले पर तुनाव नहीं होते. जाति और धर्म के मुद्दों पर जब चुनाव होंगे तो लोगों की समस्याओं का क्या होगा. वर्तमान स्थिति में नहीं लगता कि अतिक्रमण जैसी समस्याओं से छुटकारा मिल पाएगा.

यह भी पढ़ें : Same Sex Marriage: 'सुप्रीम' सुनवाई के दौरान सीजेआई ने कहा- 5 वर्षों में समाज में समलैंगिक संबंधों की स्वीकार्यता बढ़ी है


लखनऊ : उत्तर प्रदेश में अतिक्रमण सबसे बड़ी शहरी समस्याओं में से एक है. बावजूद इसके नगरीय निकाय चुनावों में इसे मुद्दा नहीं बनाया जाता. महानगर हों या छोटे कस्बे, हर जगह आधी सड़कों पर अतिक्रम दिखाई देता है. कहीं ठेले-खोमचे लगे होते हैं, तो कहीं अवैध बाजार चल रहे होते हैं. खास बात यह है कि इस समस्या से हर व्यक्ति परेशान है और पूरा सरकारी तंत्र वाकिफ है. बावजूद इसके कार्यवाही नहीं की जाती. शायद इसका कारण अतिक्रमणकारियों को वोटर समझकर कोई भी दल उनसे बैर मोल लेना नहीं चाहता और आम शहरी इस समस्या में पिसता रहता है.

सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
यदि राजधानी लखनऊ की ही बात करें तो कई बार आतिक्रम के कारण लगने वाले जाम में फंसी एंबुलेंस में रोगियों ने दम तोड़ दिया, पर शासन तंत्र ने इसका संज्ञान तक नहीं लिया. जब कभी मीडिया में अतिक्रमण को लेकर अभियान चलाए जाते हैं, तो नगर निगम रस्मअदायगी के लिए कार्यवाही करता है और फिर बैठ जाता है. यही कारण है कि शहर के तमाम बड़े नालों तक पर बस्तियां बस गई हैं. इन नालों पर निर्माण हो जाने के कारण बरसात आने पर इनकी सफाई नहीं हो पाती और जलभराव की समस्या खड़ी हो जाती है. राजधानी के लगभग सभी राष्ट्रीय राजमार्गों पर अवैध फल और सब्जी मंडियां लगती हैं. कुछ राष्ट्रीय राजमार्गों पर तो मौरंग और ईंटों की मंडियां भी लगवाई जाती हैं. स्वाभाविक है कि इससे स्थानी पुलिस को भी 'लाभ' होता है. हर ठेले-खोमचे से लेकर बड़े अतिक्रमणकर्ता से अवैध वसूली भी होती है. स्वाभाविक है कि इससे बहुतों की जेबें गर्म होती हैं, शायद इसीलिए कार्यवाही नहीं होती.
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
ऐसा नहीं कि यदि पुलिस या नगर निगम के अधिकारी चाहें तो अतिक्रमण पर अंकुश नहीं लग सकता. लगभग एक दशक पहले जब राजधानी लखनऊ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक यशश्वी यादव थे, तो उन्होंने राजमार्गों पर लगने वाली मंडियों को एक दायरे तक सीमित कर दिया था. साथ ही उन्होंने थाना प्रभारियों को अतिक्रमण के लिए जिम्मेदारी दे दी थी कि यदि उनके क्षेत्र में अतिक्रमण हुआ तो थानाध्यक्ष व उनके मातहतों पर कार्यवाही की जाएगी. यही नहीं मेडिकल कॉलेज के लिए जाने वाले गोकर्णनाथ मार्ग से पूरा अतिक्रमण हटवा दिया गया था. हालांकि आज फिर वही हालात हैं. गोमती नदी के सभी पुलों और तटबंधों पर अवैध मंडियां हैं. यह हाल सिर्फ राजधानी लखनऊ का नहीं है. प्रदेश के हर छोटे-बड़े शहर और कस्बे की यही स्थिति है. हां, नोएडा और ग्रेटर नोएडा इसके अपवाद जरूर हो सकते हैं. जिस राजधानी में शासन-सत्ता चलाने वाले रहते हैं, जब वहां की हालत ऐसी है, तो पूरे प्रदेश की हालत क्या होगी सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा.  फाइल फोटो
सबसे बड़ी शहरी समस्या निकाय चुवावों में क्यों नहीं बनती मुद्दा. फाइल फोटो
इस समस्या को लेकर हाईकोर्ट में कुछ मामले उठाने वाले एडवोकेट ओमेंद्र शर्मा कहते हैं राजधानी ही क्या पूरा प्रदेश अतिक्रमण और अवैध निर्माणों से पटा पड़ा है. यदि सरकारी तंत्र चाहे तो एक अतिक्रमण नहीं हो सकता. आखिर नोएडा और ग्रेटर नोएडा भी तो इसी प्रदेश का हिस्सा हैं. वहां क्यों नहीं है अतिक्रमण. जब तक राजनीतिक दल अतिक्रमण करने वालों को वोट बैंक की तरह से देखेंगे तब तक हालात बदलने वाले नहीं हैं. दूसरी बात इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमारे देश में चुनाव असल मसले पर तुनाव नहीं होते. जाति और धर्म के मुद्दों पर जब चुनाव होंगे तो लोगों की समस्याओं का क्या होगा. वर्तमान स्थिति में नहीं लगता कि अतिक्रमण जैसी समस्याओं से छुटकारा मिल पाएगा.

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