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विश्व परिवार दिवस : 2 दर्जन लोगों से भरा लखनऊ का 'मिश्रा कुटुंब' बना संयुक्तता की मिसाल

शादी के तुरंत बाद परिवार से अलग होना एक फैशन सा बन गया है. ऐसे दौर में राजधानी लखनऊ में एक ऐसा परिवार भी है, जहां एक ही छत के नीचे करीब दो दर्जन लोग खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहे हैं. माता­-पिता, उनके चार बेटे, चारों बेटों की पत्नियां और उनके बच्चे.

दो दर्जन लोग हैं मिश्रा कुटुंब में.
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Published : May 15, 2019, 11:39 PM IST

लखनऊ: आज के दौर में एक और जहां पति-पत्नी और बच्चे के अलावा तीसरे के साथ कोई रहना पसंद नहीं करता. शादी के तुरंत बाद परिवार से अलग होना एक फैशन सा बन गया है, ऐसे दौर में राजधानी लखनऊ में एक ऐसा परिवार भी है, जहां एक ही छत के नीचे करीब दो दर्जन लोग खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहे हैं. माता­-पिता, उनके चार बेटे, चारों बेटों की पत्नियां और उनके बच्चे. सब दूसरे की समस्या को अपनी समस्या समझते हैं.

लखनऊ का 'मिश्रा कुटुंब' समाज के लिए बना मिसाल.

बच्चे अपनी समस्या को लेकर केवल पापा के पास नहीं जाते बल्कि उनके सामने चाचा पड़े या ताऊ उनसे ही कहते हैं. कोई एक भाई स्कूल पहुंचता है. वह सभी बच्चों की फीस भरकर आता है. कभी किसी ने फीस भर दी तो कभी किसी ने. यहां संबंधों में कोई हिसाब नहीं करता. शायद यही वजह है कि यह परिवार इतना खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहा है. इस परिवार के लोगों का मानना है कि संयुक्त परिवार से समस्याएं हो या फिर बीमारियां वह करीब आती नहीं हैं और अगर करीब आती भी हैं तो हारकर कब भाग जाती हैं, इन्हें पता तक नहीं चलता.

संयुक्तता की मिसाल है यह परिवार
आज के दौर में एक परिवार का चलन बढ़ गया है. इसकी अच्छाइयां व्यक्तिगत असर डालती हैं. कुछ लोग इसे अच्छा कह सकते हैं लेकिन बुराइयां सामाजिक ताना-बाना बिखेर रही हैं. आज विश्व परिवार दिवस के रूप में हमने एक ऐसे परिवार से बातचीत की, जिसने संयुक्तता की मिसाल पेश की. गांव में इक्का-दुक्का परिवार तो इस प्रकार से मिल जाते हैं लेकिन शहरों में ऐसे परिवार का होना एक नई दास्तां है.

सबके काम तय हैं घर में
अलीगंज के 75 वर्षीय अशोक मिश्रा पत्नी सावित्री के साथ रहते हैं. उनके चार बेटे हैं. बड़े बेटे उत्तम फिर संजय, विजय और अजय मिश्रा हैं. चार बहुएं साधना, रत्ना, रेनुका और शिवानी मिश्रा हैं. अशोक मिश्रा कहते हैं कि उन्होंने अपनी बहुओं को कभी बहू नहीं माना. बहुओं को बेटी की तरह रखा. उन्हें पूरा अधिकार दिया. घर में सब का काम तय हैं. जो बच्चों को पढ़ाई कराएगा, वह सभी के बच्चों को पढ़ाएगा. जो खाना बनाएगा, वह सभी का खाना बनाएगा. जो बाहर खरीदारी करने जाएगा, वह सबके लिए खरीदारी करके आएगा.

तीसरी पीढ़ी की बेटी प्रियांशी कहती हैं कि वह अपनी समस्या संजय चाचा से कहती हैं. उन्हें कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि वह चाचा से कह रही है. इस परिवार में एक खिलाड़ी अर्पित मिश्र भी हैं.

लखनऊ: आज के दौर में एक और जहां पति-पत्नी और बच्चे के अलावा तीसरे के साथ कोई रहना पसंद नहीं करता. शादी के तुरंत बाद परिवार से अलग होना एक फैशन सा बन गया है, ऐसे दौर में राजधानी लखनऊ में एक ऐसा परिवार भी है, जहां एक ही छत के नीचे करीब दो दर्जन लोग खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहे हैं. माता­-पिता, उनके चार बेटे, चारों बेटों की पत्नियां और उनके बच्चे. सब दूसरे की समस्या को अपनी समस्या समझते हैं.

लखनऊ का 'मिश्रा कुटुंब' समाज के लिए बना मिसाल.

बच्चे अपनी समस्या को लेकर केवल पापा के पास नहीं जाते बल्कि उनके सामने चाचा पड़े या ताऊ उनसे ही कहते हैं. कोई एक भाई स्कूल पहुंचता है. वह सभी बच्चों की फीस भरकर आता है. कभी किसी ने फीस भर दी तो कभी किसी ने. यहां संबंधों में कोई हिसाब नहीं करता. शायद यही वजह है कि यह परिवार इतना खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहा है. इस परिवार के लोगों का मानना है कि संयुक्त परिवार से समस्याएं हो या फिर बीमारियां वह करीब आती नहीं हैं और अगर करीब आती भी हैं तो हारकर कब भाग जाती हैं, इन्हें पता तक नहीं चलता.

संयुक्तता की मिसाल है यह परिवार
आज के दौर में एक परिवार का चलन बढ़ गया है. इसकी अच्छाइयां व्यक्तिगत असर डालती हैं. कुछ लोग इसे अच्छा कह सकते हैं लेकिन बुराइयां सामाजिक ताना-बाना बिखेर रही हैं. आज विश्व परिवार दिवस के रूप में हमने एक ऐसे परिवार से बातचीत की, जिसने संयुक्तता की मिसाल पेश की. गांव में इक्का-दुक्का परिवार तो इस प्रकार से मिल जाते हैं लेकिन शहरों में ऐसे परिवार का होना एक नई दास्तां है.

सबके काम तय हैं घर में
अलीगंज के 75 वर्षीय अशोक मिश्रा पत्नी सावित्री के साथ रहते हैं. उनके चार बेटे हैं. बड़े बेटे उत्तम फिर संजय, विजय और अजय मिश्रा हैं. चार बहुएं साधना, रत्ना, रेनुका और शिवानी मिश्रा हैं. अशोक मिश्रा कहते हैं कि उन्होंने अपनी बहुओं को कभी बहू नहीं माना. बहुओं को बेटी की तरह रखा. उन्हें पूरा अधिकार दिया. घर में सब का काम तय हैं. जो बच्चों को पढ़ाई कराएगा, वह सभी के बच्चों को पढ़ाएगा. जो खाना बनाएगा, वह सभी का खाना बनाएगा. जो बाहर खरीदारी करने जाएगा, वह सबके लिए खरीदारी करके आएगा.

तीसरी पीढ़ी की बेटी प्रियांशी कहती हैं कि वह अपनी समस्या संजय चाचा से कहती हैं. उन्हें कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि वह चाचा से कह रही है. इस परिवार में एक खिलाड़ी अर्पित मिश्र भी हैं.

Intro:नोट- यह खबर विश्व परिवार दिवस के अवसर पर की गई है। इसका पूरा वीडियो पैकेज एफटीपी से जा रहा है।

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वीओ- आज के दौर में एक और जहां पति पत्नी और बच्चे के अलावा तीसरे के साथ कोई रहना पसंद नहीं करता। शादी के तुरंत बाद परिवार से अलग होना एक फैशन सा बन गया हो। ऐसे दौर में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ लक्ष्मण पुरी में एक ऐसा परिवार भी है जहां एक ही छत के नीचे करीब दो दर्जन लोग खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। माता पिता उनके चार बेटे उन बेटों की पत्नियां उनके बच्चे। सब दूसरे की समस्या को अपनी समस्या समझते हैं। बच्चे अपनी समस्या को लेकर केवल पापा के पास नहीं जाते बल्कि उनके सामने चाचा पड़े या ताऊ उनसे ही कहते हैं। कोई एक भाई स्कूल पहुंचता है। वह सभी बच्चों की फीस भरकर आता है। कभी किसी ने फीस भर दी तो कभी किसी ने। कहा जाता है कि संबंधों में हिसाब नहीं होता यहां भी संबंधों में कोई हिसाब नहीं करता। शायद यही वजह है कि यह परिवार इतना खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहा है। इस परिवार के लोगों का मानना है कि संयुक्त परिवार से समस्याएं हो या फिर बीमारियां वह करीब आती नहीं है। और अगर करीब आती भी हैं तो हारकर कब भाग जाती हैं इन्हें पता तक नहीं चलता।


Body:एंकर-आज के दौर में एक परिवार का चलन बढ़ गया है। इसकी अच्छाइयां व्यक्तिगत असर डालती हैं। कुछ लोग इसे अच्छा कह सकते हैं। लेकिन बुराइयां सामाजिक ताना बाना बिखर रहा है। लेकिन आज विश्व परिवार दिवस के रूप में हमने एक ऐसे परिवार से बातचीत की जिसने संयुक्त परिवार की मिशाल पेस की। गांव में इक्का दुक्का परिवार तो इस प्रकार से मिल जाते हैं लेकिन शहरों में ऐसे परिवार का होना एक नई दास्तां है। अलीगंज के 75 वर्षीय अशोक मिश्रा सावित्री दंपत्ति रहते हैं। उनके चार बेटे हैं। बड़े बेटे उत्तम फिर संजय, विजय और अजय मिश्रा हैं। चार बहुएं साधना, रत्ना, रेनुका और शिवानी मिश्रा हैं। अशोक मिश्रा कहते हैं कि उन्होंने अपनी बहुओं को कभी बहु नहीं माना। बहू को बेटी की तरह रखा। बेटी की तरह बर्ताव किया। उन्हें पूरा अधिकार दिया। घर में सब का काम तय है। जो बच्चों को पढ़ाई कराएगा वह सभी के बच्चों को पढ़ायेगा। जो खाना बनाएगा वह सभी का खाना बनाएगा। जो बाहर खरीदारी करने जाएगा, वह सबके लिए खरीदारी करके आएगा।

तीसरी पीढ़ी की बेटी प्रियांशी कहती है कि वह अपनी समस्या संजय चाचा से कहती है। उसे कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि वह चाचा से कह रही है। चाचा और पापा में भेद महसूस नहीं हुआ। इस परिवार में एक खिलाड़ी अर्पित मिश्र भी है। अर्पित इंडिया के लिए खेलना चाहता है।


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