लखनऊ: आज के दौर में एक और जहां पति-पत्नी और बच्चे के अलावा तीसरे के साथ कोई रहना पसंद नहीं करता. शादी के तुरंत बाद परिवार से अलग होना एक फैशन सा बन गया है, ऐसे दौर में राजधानी लखनऊ में एक ऐसा परिवार भी है, जहां एक ही छत के नीचे करीब दो दर्जन लोग खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहे हैं. माता-पिता, उनके चार बेटे, चारों बेटों की पत्नियां और उनके बच्चे. सब दूसरे की समस्या को अपनी समस्या समझते हैं.
बच्चे अपनी समस्या को लेकर केवल पापा के पास नहीं जाते बल्कि उनके सामने चाचा पड़े या ताऊ उनसे ही कहते हैं. कोई एक भाई स्कूल पहुंचता है. वह सभी बच्चों की फीस भरकर आता है. कभी किसी ने फीस भर दी तो कभी किसी ने. यहां संबंधों में कोई हिसाब नहीं करता. शायद यही वजह है कि यह परिवार इतना खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहा है. इस परिवार के लोगों का मानना है कि संयुक्त परिवार से समस्याएं हो या फिर बीमारियां वह करीब आती नहीं हैं और अगर करीब आती भी हैं तो हारकर कब भाग जाती हैं, इन्हें पता तक नहीं चलता.
संयुक्तता की मिसाल है यह परिवार
आज के दौर में एक परिवार का चलन बढ़ गया है. इसकी अच्छाइयां व्यक्तिगत असर डालती हैं. कुछ लोग इसे अच्छा कह सकते हैं लेकिन बुराइयां सामाजिक ताना-बाना बिखेर रही हैं. आज विश्व परिवार दिवस के रूप में हमने एक ऐसे परिवार से बातचीत की, जिसने संयुक्तता की मिसाल पेश की. गांव में इक्का-दुक्का परिवार तो इस प्रकार से मिल जाते हैं लेकिन शहरों में ऐसे परिवार का होना एक नई दास्तां है.
सबके काम तय हैं घर में
अलीगंज के 75 वर्षीय अशोक मिश्रा पत्नी सावित्री के साथ रहते हैं. उनके चार बेटे हैं. बड़े बेटे उत्तम फिर संजय, विजय और अजय मिश्रा हैं. चार बहुएं साधना, रत्ना, रेनुका और शिवानी मिश्रा हैं. अशोक मिश्रा कहते हैं कि उन्होंने अपनी बहुओं को कभी बहू नहीं माना. बहुओं को बेटी की तरह रखा. उन्हें पूरा अधिकार दिया. घर में सब का काम तय हैं. जो बच्चों को पढ़ाई कराएगा, वह सभी के बच्चों को पढ़ाएगा. जो खाना बनाएगा, वह सभी का खाना बनाएगा. जो बाहर खरीदारी करने जाएगा, वह सबके लिए खरीदारी करके आएगा.
तीसरी पीढ़ी की बेटी प्रियांशी कहती हैं कि वह अपनी समस्या संजय चाचा से कहती हैं. उन्हें कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि वह चाचा से कह रही है. इस परिवार में एक खिलाड़ी अर्पित मिश्र भी हैं.