लखनऊ: अवध के आखिरी बादशाह नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी बेगम सिकंदर के लिए एक महल बनवाया था, जो प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान बड़े युद्ध का गवाह बना. बेगम का महल भग्नावशेष के रूप में संरक्षित है और महल के बाग वाले हिस्से को नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपना बोटैनिकल गार्डन बना रखा है.
दरअसल लखनऊ का सिकंदर बाग चौराहा बेगम सिकंदर के महल के पास स्थित है. इस बाग का बड़ा ही ऐतिहासिक महत्व है. इसकी आधारशिला नवाब सादात अली खान ने सन् 1800 में एक शाही बाग के तौर पर रखी थी, हालांकि 19वीं सदी के पहले इस बाग को अवध के नवाब वाजिद अली शाह (1822-1887) ने एक शाही बाग के रूप में विकसित किया, जो इसका प्रयोग अपने ग्रीष्मावास के तौर पर किया करते थे. नवाब वाजिद अली शाह ने ही इसका नाम अपनी बेगम सिकंदर महल के नाम पर सिकंदर बाग रखा.
150 एकड़ में फैला है यह बाग
यह बागलगभग 150 एकड़ में फैला है और इसके बीचों-बीच एक छोटा सा मण्डप है. इसी मण्डप में कला प्रेमी नवाब वाजिद अली शाह द्वारा कथक नृत्य की शैली में प्रसिद्ध रासलीला का मंचन किया जाता था. यहीं पर मुशायरों और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता था. फिलहाल आजकल यहां पर भारतीय 'राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान' का कार्यालय है. बेगम सिकंदर के बारे में इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि वह एक तवायफ की टीम का हिस्सा थीं और एक कार्यक्रम के दौरान प्रिंस वाजिद अली शाह उनकी खूबसूरती पर मोहित हो गए.
बेगम की इस आखरी ख्वाहिश को नवाब ने किया पूरा
रवि भट्ट ने बताया कि वाजिद अली शाह ने 15 साल की लड़की उमराव को अपने पास रोक लिया और अपने साथी के साथ उसका निकाह करा दिया. वाजिद अली शाह जब बादशाह बने तो दोनों ने उमराव को सिकंदर नाम दिया और अपने खास लोगों में शामिल कर लिया. उमराव को बाद में तपेदिक की बीमारी हुई और जब वह गंभीर हालत में थीं तो उन्होंने वाजिद अली शाह से निकाह की दरख्वास्त की. वाजिद अली शाह ने उनकी आखिरी ख्वाहिश को मानते हुए उन्हें बेगम सिकंदर का दर्जा दिया.
इसी महल में हुई थी ब्रिटिश और भारतीय सिपाहियों की लड़ाई
1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान लखनऊ की घेराबंदी के समय ब्रिटिश सैनिकों से घिरे सैकड़ों भारतीय सिपाहियों ने इस बाग में शरण ली. 16 नंवबर 1857 को ब्रिटिश फौजों ने बाग पर चढ़ाई कर लगभग 2,000 सिपाहियों को मार डाला. लड़ाई के दौरान जो ब्रिटिश सैनिक मारे गए उनको तो एक गहरे गड्डे में दफना दिया गया, लेकिन मृत भारतीय सिपाहियों के शवों को यूं ही सड़ने के लिए छोड़ दिया गया. 1858 की शुरूआत में एक ब्रिटिश फोटोग्राफर फेलिस बीटो ने परिसर के भीतरी हिस्सों की एक कुख्यात तस्वीर ली थी, जो पूरे परिसर में मृत सैनिकों के बिखरे पड़े कंकालीय अवशेषों को दिखाती है.
पयर्टन की राह देखता सिकंदर बाग
बाग में जगह-जगह से तोप के गोले, तलवार, ढालें, बंदूक और राइफल के टुकड़े निकले थे, जो अब एक संग्रहालय में सुरक्षित रखे गए हैं. बाग की दीवारें लड़ाई की गवाही देती हैं. हालांकि प्रथम स्वाधीनता संग्राम का महत्वपूर्ण गवाह होने के बावजूद सिकंदर बाग स्मारक का लोगों के बीच प्रचार-प्रसार नहीं किया गया. लिहाजा राजधानी लखनऊ के भी ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम है कि बेगम सिकंदर कौन थीं और उनके महल का क्या इतिहास है.