हैदराबाद: 25 दिसंबर 1924 में जन्में वाजपेयी हमारे बीच नहीं हैं, मगर देश वासियों की यादों में वह आज भी अटल हैं. अटल बिहारी ने सड़क से संसद तक की राजनीति 5 दशकों तक की. इन दशकों में कई ऐसे मौके आए, जिसे उन्होंने अपने ओजस्वी वाणी से यादगार बना दिया. 27 मई 1996 के विश्वास प्रस्ताव हो या 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के दौरान दिया गया भाषण हो. उनकी हर लाइन भारत की राजनीति के लिए सही भविष्यवाणी ही साबित हुई. इस महान शख्सियत का देश के हर कोने से एक लगाव रहा, गहरा नाता रहा. आइए आज कुछ ऐसे ही जगहों की सैर पर चलते हैं और जानते हैं उनका लगाव.
लखनऊ की तहजीब और अटल की शख्सियत
वर्ष 1952 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, पर सफलता नहीं मिली. अटल बिहारी वाजपेयी को पहली बार लोकसभा चुनाव में सफलता 1957 में मिली थी. 1957 में भारतीय जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से उम्मीदवार बनाया. लखनऊ में वह चुनाव हार गए, मथुरा में तो उनकी ज़मानत जब्त हो गई, लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वह लोकसभा पहुंचे. इसके बाद वह ग्वालियर से सांसद बने. मगर वक्त का पहिया घूमा. 1991 में अटल बिहारी दोबारा लखनऊ पहुंचे. आम चुनाव में लखनऊ से शानदार जीत दर्ज की. इसके बाद तो अटल जब तक चुनावी राजनीति में रहे. लखनवी ही रहे. 1996 में अटल लखनऊ और गांधीनगर दोनों सीटों से विजयी हुए. मगर जब सीट चुनने की बारी आई तो लखनऊ को चुना. उन्होंने गांधीनगर से इस्तीफा दे दिया. वह लगातार 1991 से 2009 तक लखनऊ से सांसद रहे. दसवीं लोकसभा से 15 वीं लोकसभा तक.
उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री मोहसिन रजा अटल की शख्सियत पर कहते हैं कि "लखनऊ की जो मान्यता पूरे विश्व में है, वही शैली मुझे अटल बिहारी वाजपेयी में नजर आती थी. जिस विनम्रता से, जिस शालीनता से, जितने प्यार और स्नेह से वो लोगों और कार्यकर्ताओं से मिलते थे और लोगों का दिल जीत लिया करते थे. उसका परिणाम मोहसिन रजा आपके सामने है. मैं उनके विचारों से प्रभावित होकर भाजपा के लिए काम करना शुरू किया. वह मेरे राजनीतिक गुरु थे. उनका व्यक्तित्व लखनऊ की शैली से बिल्कुल मैच करता हुआ था, इसलिए आज हम अटल जी को बहुत मिस करते हैं."
कानपुर से लगाव
अटल बिहारी वाजपेयी का कानपुर से गहरा नाता था. कानपुर के डीएवी कॉलेज के राजनीति शास्त्र विभाग से उन्होंने राजनीति के दांव पेंच सीखे थे. यहां उन्होंने अपने छात्रजीवन के तीन साल गुजारे थे. अटल बिहार वाजपेयी ने राजनीति शास्त्र से एमए किया और वह इस कॉलेज के टॉपर रहे. डीएवी कॉलेज के राजनीति शास्त्र विभाग के बोर्ड पर आज भी अटल जी का नाम अंकित है. उनकी कक्षाएं कमरा नंबर 20 और 21 में लगा करती थीं.
अटल बिहारी बाजपेयी ने 1945 में डीएवी कॉलेज में एडमिशन लिया. जिसके बाद वह धीरे धीरे संघ से जुड़ने लगे और धनकुट्टी शाखा जाने लगे. 1947-1948 के बीच वह संघ के प्रचारक बन गए और देश की सेवा करनी शुरू कर दी. फिर अंतिम दम तक उन्होंने देश की सेवा की.
डीएवी कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस की विभागाध्यक्ष डॉ. दीपशिखा चतुर्वेदी कहती हैं कि अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी पढ़ाई कॉलेज के कमरा नंबर 20 और 21 में पूरी की थी. उनके जाने के बाद इस कमरे को संरक्षित कर दिया गया था. अब कमरा नंबर 21 को अटल बिहारी वाजपेई की याद में उनके शोध केंद्र के रूप में सरकार द्वारा विकसित किया जाना है. जिसमें अटल जी से जुड़े उनके भाषणों की प्रतियां समेत सभी कुछ होगा. जिससे कि आने वाली पीढ़ी जाने कि ऐसे महान व्यक्तित्व ने इस कॉलेज और इस कमरे में पढ़ाई की थी.
पानीपत का वो कचौड़ी वाला
हरियाणा के पानीपत में एक पूड़ी-कचौड़ी की दुकान है. जो पानीपत वालों के लिए ही नहीं बल्कि दूर दराज के लोगों के लिए भी किसी पकवान से कम नहीं है. यहां की कचौड़ियों से अटल बिहारी वाजपेयी के प्रेम का अंदाजा आप ऐसे लगाइए कि उन्होंने देखा कि सभा में मौजूद लोगों में जोश नहीं है तो उन्होंने जोर से कहा कि 'क्या आज आप लोग पानीपत के चिमन की मलाई-कचौड़ी नहीं खाकर आए हैं?
दरअसल, ये किस्सा है साल 2001 का, जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पानीपत की रिफाइनरी के दौरे पर थे. यहां भाषण देते वक्त जब उन्हें तालियों की गड़गड़ाहट नहीं सुनाई दी तो उन्होंने अपने भाषण में कहा कि क्या पानीपत वाले चिमनलाल की कचोरी खा कर नहीं आए हैं?. कहा जाता है कि इस भाषण में जिक्र होने के बाद पानीपत के डीसी ने चिमनलाल से मुलाकात की थी और उस दिन के बाद भी चिमनलाल कचौड़ी वाले के नाम से जाना गया और उसकी दुकान में ग्राहकों की भीड़ बढ़ गई.
बता दें कि पानीपत शहर में किले के पास चिमनलाल की दुकान है और यहीं आरएसएस का कार्यालय भी है और अटल बिहारी वाजपेयी का यहां आना जाना लगा रहता था. चिमनलाल तो अब नहीं रहे लेकिन उनके बेटे राजीव उन यादों को के बारे में बताते हैं कि उनके परदादा बख्तावर सिंह ने करीब 150 साल पहले इस दुकान की शुरुआत की थी और वो अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे हैं.
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