लखनऊः भारत देश 75वें स्वतंत्रता दिसव को आजादी का अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है. हम देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले वीर सपूतों के याद कर रहे हैं. ऐसे ही लखनऊ के नक्खास स्थित पाटानाला के पीछे सना मार्केट में रहने वाले मोहम्मद शाबिर एक वीर सपूत हैं. जिन्होंने 16 साल की उम्र में टेन की पटरियां उखाड़ फेंकी थी और सुपरिटेंडेंट को जूतों से पीट दिया था. इसके लिए उन्हें 6 माह की जेल और 20 बेतों की पिटाई की सजा मिली थी.
घर में किसी ने नहीं दिया था साथ
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मोहम्मद शाबिर का जन्म 15 फरवरी 1922 को लखनऊ में हुआ था. शाबिर नक्खास स्थित पाटानाला के पीछे सना मार्केट में रहते हैं. मोहम्मद शाबिर को लोग मुतरिब निजामी के नाम से भी जानते हैं. शाबिर के बेटे शारिम बताते हैं कि बाबा तहसीलदार थे. तीन भाइयों में सबसे छोटे पिताजी हैं. पूरा घर पिताजी के खिलाफ था. सब कहते थे कि हुकूमत के खिलाफ मत जाओ, लेकिन पिताजी ने किसी की नहीं सुनी. उन्होंने बताया कि जिस समय पिताजी ने देश की आजादी की मशाल उठाई, उस समय वह हाई स्कूल में थे. नक्खास के एमडी शुक्ला इंटर कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे.
20 बेंत और जेल की मिली थी सजा
मोहम्मद शाबिर के बेटे शारिम बताते हैं कि बात साल 25 जनवरी 1938 की है. महात्मा गांधी से प्रेरित होकर पिताजी ने अपने 176 साथियों के साथ मिलकर महानगर स्टेशन पर रेल की पटरियां उखाड़ फेंकी थीं और सुपरिटेंडेंट को जूतों से पीटा था. जिसकी सजा उन्हें 6 महीने की जेल और 20 बेतों की पिटाई मिली थी. शारिम बताते हैं कि उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ जलसा हुआ करता था. पिताजी भी एक जलसे में शामिल हुए. जिसके बाद देश की आजादी का जुनून सवार हो गया. फिर 16 वर्ष की उम्र में शुरू हुआ सफर 15 अगस्त 1947 तक चला.
इसे भी पढ़ें- आजादी का अमृत महोत्सव: पैराट्रूपर्स ने आसमान में यूं दिखाए करतब, लहराया तिरंगा
बंदूक की जगह थामी कलम
वे बताते हैं कि जेल में रहने के दौरान समझ में आया कि वतन परस्ती क्या होती है. जेल से बाहर निकले तो पूरी तरह से आजादी के मतवाले सिपाही बन चुके थे. बंदूक की जगह कलम थामी और अखबारनवीस बनकर लोगों को जगाने का काम शुरू कर दिया. जेल में रहते वक्त पिताजी ने आतिश-ए-खामोश (ठंडी आग) किताब लिखी जो काफी मशहूर हुई. जिसके बाद इस किताब को उर्दू में भी छपवाया गया. शारिम बताते हैं कि पिताजी उर्दू में कई पत्रों में लिखते थे. जिसके चलते हुए छोटे-बड़े नेताओं के संपर्क में आया करते थे. उनकी मुलाकात एक बार आश्रम में गांधी जी से भी हुई थी.
जवाहरलाल नेहरू से हुई थी मुलाकात
वह बताते हैं कि पिताजी ने एक बार बताया था कि 8 अगस्त 1942 को वह दिन था, जब पूरे देश ने महात्मा गांधी की एक आवाज सुनी थी. उस समय उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक जंग का आह्वान किया था. अंग्रेजों से भारत छोड़ने के लिए कहा था. महात्मा गांधी की इस आवाज पर देश के लाखों करोड़ों लोग अपने घरों से बाहर निकल आए थे. शारिम बताते हैं कि पिताजी की कानपुर में जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात हुई थी. उस दौरान जवाहरलाल नेहरू ने उनसे और उनके साथियों से हिम्मत बनाए रखने की बात कही थी. जिसके बाद पिताजी जेल भरो आंदोलन में शामिल हुए. 9 अगस्त को उन्हें गिरफ्तार कर लखनऊ सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया. कई माह यहां रखने के बाद पिताजी को लाहौर जेल भेज दिया गया. जहां उनके साथ ज्यादा सख्ती की गई.
पानी के जहाज से पहुंचे थे मुंबई
लाहौर से छूटने के बाद लखनऊ पहुंचते-पहुंचते उन्हें काफी वक्त लग गया. पिताजी के पास उस वक्त पैसे नहीं थे. नौकरी की, फिर एक पानी के जहाज से मुंबई पहुंचे. जिसके बाद किसी तरीके से लखनऊ पहुंचे, लेकिन यहां हालात काफी बदल चुके थे. लखनऊ पहुंचने के 6 माह बाद ही आजादी मिल गई थी, लेकिन इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी. अंग्रेजों की चाल के चलते बंटवारा हो गया था. वह बताते हैं उस वक्त पिताजी के लीडर मोहनलाल सक्सेना थे. आजादी के बाद हालात खराब हो चुके थे. पिताजी बताते हैं कि इंदिरा गांधी ने जब स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की पेंशन शुरू की, तब जाकर हालात सुधरे.
कम किया गया कोटा
शारिम बताते हैं कि आजादी के मतवालों ने देश को आजाद कराया, सबसे पहले उनको प्राथमिकता देनी चाहिए, लेकिन अब उल्टा हो रहा है. फ्रीडम फाइटर्स का कोटा कम कर दिया गया है. सरकार को चाहिए की उनके परिवार के बारे में कुछ सोचें. वह कहते हैं कि पिताजी काफी बीमार हैं. बेड पर पड़े हुए हैं जो सुविधा पहले सरकार मेडिकल की देती थी. उसको फिर से शुरू करना चाहिए. दवाएं बहुत महंगी हो गई हैं. 15000 के तीन दिन के इंजेक्शन लगते हैं. वह बताते हैं कि हम दो भाई पिताजी के साथ रहते हैं. एक भाई लंदन और एक जर्मनी में रहता है.