लखनऊ: मुलायम सिंह का जाना एक खास राजनीतिक शैली के अध्याय का समाप्त हो जाना है. उनका खास अंदाज दृढ़ संकल्प था. साथियों के प्रति आत्मीयता थी, गरीब किसानों, बुनकरों, छात्र-छात्राओं के हित की चिंता रही. डॉ लोहिया कहते थी निराश न हो और काम करते रहो. मुलायम सिंह निराशा में भी अपना कर्तव्य करते थे, जब भी संकट या परेशानी में होते तो तुरंत लोगों के बीच पहुंच जाते. वह कारपोरेट नहीं कामरेड (साथियों) संग राजनीति करते रहे. उनका सबसे बड़ा हथियार संवाद और संपर्क रहा.
मेरा उनका परिचय 1967 में जब वह 28 साल के थे, महान सोशलिस्ट नेता राजनारायण जी एवं कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया के जरिए हुआ. 1967 में ही वह पहली बार जसवंत नगर से चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य बने थे. 1974 में जसवंत नगर से वह दूसरी बार और मैं 25/26 साल की उम्र में वाराणसी कैंट से पहली बार चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचा. उसके बाद तो उनके साथ लंबा साथ रहा. सन 1974 में जेपी आंदोलन का दौर रहा. सड़क से सदन तक संघर्ष और आंदोलन का जमाना था. चौधरी चरण सिंह विधान सभा में नेता विरोधी दल रहे. सदन में भी हम लोग रामधारी दिनकर जी की लाइनों का नारा लगाते थे...
'सेनानी करो प्रयाण अभय भावी आकाश तुम्हारा है,
ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है.'
सन 1985 में जब वह विधान सभा में लोकदल से नेता विरोधी दल हुए तो मैं लोकदल का मुख्य सचेतक हुआ. उनके साथ कई अमिट यादें हैं. बात 1985 की है. महंगाई, बेरोजगारी बढ़ रही थी और सदन का सत्र आहूत नहीं किया जा रहा था. तय हुआ कि मुलायम सिंह जी के नेतृत्व में राजभवन में प्रदर्शन किया जाए और धरना दिया जाए. उसमें भाजपा विधान मंडल दल के नेता कल्याण सिंह सहित सभी गैर कांग्रेसी दल शामिल हो गए. संभवत: 26 दिसंबर 1985 की तारीख थी. हम सभी विधायक विधानसभा से जुलूस की शक्ल में राजभवन पहुंचे. राजभवन का मुख्य द्वार बंद था. नारा लगा 'राज्यपाल बाहर आओ'. राज्यपाल तो बाहर आने से रहे. उन्होंने संदेश भिजवाया 5-6 विधायकों का प्रतिनिधि मंडल उनसे अंदर आकर मिल ले. इस पर मुलायम सिंह जी तैयार नहीं हुए उन्होंने राज्यपाल को कहलवाया कि अगर वह सभी विधायकों से नहीं मिलेंगे, तो हम सभी राजभवन के अंदर आ कर उनसे मिलेंगे. 15 मिनट का समय दिया गया. इस दौरान हम सभी राजभवन के मुख्य द्वार के बगल में आमसभा करने लगे.
30 मिनट के बाद हम सभी राजभवन के हाथीनुमा बंद गेट पर थे. मुलायम सिंह जी ने कहा गेट पर चढ़ लांघ कर अंदर चला जाए. धोती पहने अनेक विधायकों को गेट लांघने में दिक्कत हो रही थी, गेट में नोकीले तीर बने थे, धोती उसमें फंस कर फट न जाए. सावधानी बरती गई. मुलायम सिंह जी के कहते ही हम सभी राजभवन के गेट पर चढ़ गए और उसको लांघ कर राजभवन के अंदर दाखिल हो गए. अन्य नेता भी इसी तरह राजभवन में दाखिल हो गए. तब भी राज्यपाल उस्मान आरिफ मिले नहीं, बल्कि हम सबको गिरफ्तार करा दिया. मुलायम सिंह जी सहित हम सभी को पुलिस की गाड़ी में बैठा दिया गया. राजभवन के बाहर मजमा लग गया. पुलिस की गाड़ी को जनता आगे बढ़ने ही नहीं दे रही थी. सभी गाड़ी के सामने आ कर लेट जा रहे थे. बड़ी मशक्कत के बाद गाड़ी आगे बढ़ी और हम लोगों को पुलिस लाइन ले जाया गया. कुछ देर बाद सबको छोड़ दिया गया.
मुलायम सिंह जी के लिए कुछ तारीखें बहुत महत्वपूर्ण रहती थीं. वह हर दो अक्टूबर को हजरतगंज में गांधी जी की मूर्ति को माल्यार्पण करके अपने साथियों के साथ हजरतगंज गांधी आश्रम जाते रहे और खादी की धोती और खादी का कुर्ता खरीदते थे. कभी कभी तो वहां चरखा भी कातते थे. कई बार हम भी उनके साथ गए. हम लोगों ने तो बीएचयू में पढ़ते समय ही तय कर लिया था कि आजीवन खादी पहनेंगे. वह संभवतः उत्तर प्रदेश के आखिरी मुख्यमंत्री माने जाएंगे, जो खादी का कुर्ता और खादी की धोती पहनते रहे. वह यही पोशाक पहन कर लंदन भी गए थे. आजीवन हिंदी बोली और ग्रामीण पोशाक उनकी पहचान और अस्मिता रही.
वह हर 23 मार्च को लोहिया जयंती और 12 अक्टूबर लोहिया निर्वाण दिवस पर लोहिया जी की मूर्ति पर माल्यार्पण करते रहे. लोहिया पार्क जाते, उनके जीवन के बारे में समाजवादियों को बताते थे. हर 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर लखनऊ पार्टी कार्यालय पर झंडा फहराते रहे. जब वह संभवत: 4 या 5 दिसंबर 1989 को पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उनके मंत्रिपरिषद का मैं भी सदस्य बना. मेरी उनसे बात हुई कि सब जगह सिर्फ कांग्रेसी नेताओं की ही मूर्ति लगी है. किसी अन्य नेता की नहीं, जबकि अनेक गैर कांग्रेसी नेताओं का भी देश के स्वतन्त्रता संग्राम में प्रशंसनीय योगदान रहा है. मैंने उन्हें सुझाव दिया कि विधान सभा के सामने गोविंद वल्लभ पंत जी की आदमकद मूर्ति है. क्यों न विधान सभा के प्रांगण में चौधरी चरण सिंह जी की मूर्ति लगवाई जाए. वह मान तो तुरंत गए, लेकिन उन्होंने पूछा कैसे होगा? मैंने उनसे कहा कि आप स्वीकृति दे दें, हम लोग प्रयास करेंगे. 2-3 सेकेंड सोचने के साथ ही उन्होंने कहा ठीक है.
मुलायम सिंह जी में एक गजब का गुण था. वह पलक झपकते फैसला ले लेते थे और उसको कार्यान्वित करने में कतई देर नहीं करते. टालने या देखने में उनका यकीन नहीं था. हां तो हां, नहीं तो फिर नहीं ही. समय बहुत कम था. अप्रैल 1990 का महीना था और 29 मई चौधरी साहब की पुण्यतिथि थी. इतनी जल्दी मूर्ति किससे बनवाई जाए? पता चला कि लखनऊ चौक मे एक प्रसिद्ध मूर्तिकार हैं. मैं उनसे जाकर मिला और योजना बताई. उन्होंने इतने कम समय में मूर्ति बनाने में असमर्थता जताई. मेरे विशेष आग्रह पर उन्होंने एक रास्ता निकाला कि प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ति बना देंगे और बाद में कांस्य (तांबे) की बनकर जाएगी. मैंने पूरी बात मुलायम सिंह जी को बताई. उन्होंने तुरंत कहा देर मत करिए.प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ति बनवाइए. बाद में कांस्य की लग जाएगी. कोई समस्या नहीं है. मौका चूकना नहीं चाहिए. इस सिलसिले में कई बार मूर्तिकार से मिलने चौक आना-जाना हुआ.
28 मई 1990 तक मूर्ति लगा दी गई. किसी को पता भी नहीं चला. मुलायम सिंह जी को सुझाव दिया कि चौधरी अजित सिंह को मुख्य अतिथि बनाया जाए. तात्कालिक मतभेद को दर किनार करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें सम्मान के साथ जरूर बुलाइए.29 मई 1990 को भव्य कार्यक्रम में मुलायम सिंह जी ने मूर्ति का अनावरण किया. मुख्य अतिथि अजित सिंह जी हुए. अध्यक्ष विधानसभा हरिकिशन श्रीवास्तव ने अध्यक्षता की. मैंने कार्यक्रम का संचालन किया. मेरी एक कमी पर मुलायम सिंह जी को अच्छा नहीं लगा, वह यह थी कि मैंने अपना नाम शिलापट्ट में नहीं लिखवाया. (वह दौर आत्म प्रचार का नहीं था). कुछ दिनों के बाद रातोंरात मुलायम सिंह जी ने चौधरी चरण सिंह जी की प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी मूर्ति हटवा कर उसी स्थान पर कांस्य की मूर्ति लगवा दी, जो आज विधान सभा के प्रांगण में शोभायमान है. उस अवसर पर एक स्मारिका का भी प्रकाशन किया गया था, जिसकी एक भी प्रति उप्र राज्य सूचान विभाग के पास नदारद है.
मुलायम सिंह जी के साथ अनेक गिरफ्तारियों तथा अनेकों की परेशानियों के समय में उनकी साहसपूर्ण भूमिका की अविस्मरणीय स्मृतियां मानस पटल पर अंकित हैं. उनका शरीर गया है, पर उनकी आत्मा, उनका चेहरा, उनकी आवाज, उनकी मुस्कुराहट, उनका अंदाज आज भी मेरे आंख के सामने है.
गीता का वाक्य है..... 'शरीर नश्वर है, किंतु आत्मा अजर अमर है.