हैदराबाद : आजादी के करीब 75 वर्षों के बाद आज भी पूर्वांचल विकास की राह जोह रहा है. देश और प्रदेश में सरकारें तो कई आईं पर पूर्वांचल के करीब 25 जिलों की 142 से अधिक सीटों पर वोट लेने के बावजूद किसी भी दल ने पूर्वांचल के विकास की ओर कोई खास तवज्जो नहीं दी. पूर्वांचल की राजनीति भी विकास की बजाए पूरी तरह से अगड़ा-पिछड़ा और स्वर्ण दलित की राजनीति तक सिमट कर रह गई.
इसका खामियाजा यह हुआ कि पूर्वांचल विकास के क्षेत्र में लगातार पिछड़ता चला गया. आज एक एक्सप्रेस-वे भी इतनी बड़ी चीज बन गई कि इसे लेकर सपा और भाजपा में एक दूसरे का सिर नोचने जैसे हालात हैं. पूर्वांचल का गेटवे कहा जाने वाला वाराणसी भी तब तक पिछड़े और गंदे शहरों की सूची में शामिल रहा जब तक कि यहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सांसद नहीं चुन लिए गए. पर यहां भी जो विकास हुआ, वह आसपास के जिलों के विकास को तेज नहीं कर सका.
वहीं, आजमगढ़ में मुलायम और अखिलेश यादव के चुनाव लड़ने और इसे अपना प्रमुख राजनीतिक बेस बनाने के बावजूद आजमगढ़ में भी विकास न के बराबर रहा. शायद यही वजह रही कि यहा बेराजगारी और पिछड़ापन ज्यादा रहा और इस तरह लोगों को बांटकर जाति के नाम पर वोट लेना भी राजनीतिक दलों के लिए काफी आसान हो गया. यही हाल पूर्वांचल के अन्य जिलों में भी देखने को मिला.
पिछले चुनाव में जातिवाद पर हावी रहा विकास का मुद्दा
पिछले चुनाव यानी 2017 में पूर्वांचल में भाजपा को जमकर सफलता मिली. 2014 के चुनाव से शुरू हुआ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति लोगों का आकर्षण 2017 में भी उतना ही बना रहा. विकास की उम्मीद में लोगों ने भाजपा को जबरदस्त समर्थन दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने अपनी रैलियों में जनता से कहा कि यदि इस क्षेत्र का विकास करना है तो उसे डबल इंजन की सरकार बनानी पड़ेगी.
शायद इसी बात का असर था कि 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को पूर्वांचल ने अपनी 142 में से 115 सीटें सौंप दीं. इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि भाजपा प्रदेश में अन्य दलों को पीछे छोड़ते हुए रिकॉर्ड 312 सीटें लेकर विधानसभा पहुंची और बहुमत की सरकार बना ली. इस चुनाव में पूर्वांचल में सपा को 17 और बसपा को केवल 14 सीटें ही मिलीं. इसने एक बात स्पष्ट कर दी कि पूर्वांचल जहां राजनीतिक दल केवल जातिगत समीकरणों के आधार पर ही जीत हार की बात करते हैं, वहां विकास के मुद्दे पर भी चुनाव लड़ा और जीता जा सकता है.
हर बार राजनीतिक दल इन जातियों पर लगाते हैं दांव
ब्राह्मण : वर्ष 2012 में पूर्वांचल की जनता ने समाजवादी पार्टी के यादव-मुस्लिम और ब्राह्मणों को साथ लेकर चलने के नारे पर भरोसा किया. यह समीकरण इतना प्रभावी बना कि सपा को पूर्वांचल में 102 सीटें मिलीं और वह सत्ता में आ गई. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. इस चुनाव में भाजपा को 17 सीटें और सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी को मात्र 22 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. गौरतलब है कि प्रदेश में ब्राह्मण वोटर करीब 16-17 प्रतिशत है और पूर्वांचल की 115 सीटों पर किसी भी दल को जिताने का माद्दा रखता है. वैसे भी यूपी में ब्राह्मण हार्डकोर वोटर माना जा है. सीएसडीएस के अनुसार, 2017 विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण समुदाय का 80 प्रतिशत वोट बीजेपी को मिला था जबकि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में 72 और 82 फीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट दिया था. हालांकि, 2022 के चुनाव में ब्राह्मणों को साधने के लिए अखिलेश यादव तमाम जतन कर रहे हैं.
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राजभर : पूर्वांचल की कई सीटों पर राजभर मतदाताओं की संख्या 12 से 22 फीसदी तक है. पूर्वी यूपी के गाजीपुर, चंदौली, मऊ, बलिया, देवरिया, आजमगढ़, लालगंज, अंबेडकरनगर, मछलीशहर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और भदोही में इनकी अच्छी खासी आबादी है जो सूबे की करीब चार दर्जन विधानसभा सीटों पर असर रखते हैं.
कुर्मी वोट : उत्तर प्रदेश में जातिगत आधार पर देखें तो यादव के बाद ओबीसी में सबसे बड़ी कुर्मी समुदाय की है. सूबे में कुर्मी वोटर 6 फीसदी है लेकिन 16 जिलों में कुर्मी और पटेल वोट बैंक छह से 12 फीसदी से ज्यादा है. इनमें मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिले प्रमुख हैं. यूपी की 4 दर्जन विधानसभा सीटों पर कुर्मी वोटर जीतने या फिर किसी को जिताने की ताकत रखता है. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी अनुप्रिया पटेल की अपना दल (एस) के साथ गठबंधन कर कुर्मी समाज के वोटों को हासिल करने में कामयाब रही थी. कुर्मी वोटों की तकत को देखते हुए ही सपा ने इस बार केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल की अपना दल (एस) के साथ गठबंधन किया है.
नोनिया-चौहान : ओबीसी में अति पिछड़ी जाति के तहत आने वाली नोनिया समाज जो चौहान भी लिखती है. यह महज एक से डेढ़ फीसदी हैं लेकिन पूर्वांचल की 10 से ज्यादा सीटों पर असर रखते हैं. नोनिया समाज का वोट मऊ जिले की सभी सीटों पर 50 हजार अधिक वोटर हैं जबकि गाजीपुर के जखनियां में करीब 70 हजार वोटर हैं. इसी तरह बलिया, देवरिया, कुशीनगर, आजमगढ़, महराजगंज, चंदौली व बहराइच में भी बड़ी संख्या में है. नोनिया समाज कभी बसपा का वोट बैंक हुआ करता थे लेकिन 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने फागू चौहान को साथ लेकर नोनिया समाज के 90 फीसदी वोट हासिल किए थे. बीजेपी को इसका फायदा मिला था.
किधर जाएगी इस बार की चुनावी राजनीति
विधासभा चुनाव 2017 में पूर्वांचल में जातिगत राजनीति का उतना जोर नहीं चला था. 2019 के लोकसभा चुनावों में भी जाति की बजाए राजनीति और अमित शाह के धारा-370 और राममंदिर के मुद्दे पर ही वोट पड़े थे. भाजपा नेता भी मानते हैं कि पिछले चुनाव में जनता ने विकास के नाम पर वोट किया था. इस चुनाव में भी भाजपा इस मुद्दे को आगे बढ़ाने के लिए विकास के मुद्दे को ही आगे लेकर आएगी. साथ ही पिछले पांच साल में किए गए अपने कामों को भी जनता के बीच गिनाया जाएगा.
विकास के इन मुद्दों को जनता के बीच ले जाएगी भाजपा
भाजपा पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे, अय़ोध्या-काशी-प्रयागराज का पुनर्निर्माण और गंगा एक्सप्रेस-वे (काम जारी) को आधार बनाकर इस चुनाव में अपने प्रचार को आगे बढ़ा रही है. जनता को बता रही है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने यूपी और पूर्वांचल की जनता से किया गया अपना वायदा पूरा किया है. कश्मीर से धारा 370 और राममंदिर पर किए गए वायदे को भी भाजपा ने पूरा कर दिखाया. इस बात को भी जनता के बीच लेकर जाया जा रहा है.
पीएम का काशी दौरे ने किया गहरा असर
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह अपने संसदीय क्षेत्र काशी पहुंचे और हजारों करोड़ की सौगात पूर्वांचल की झोली में डाल दी, उसने पूर्वांचल के लोगों की आंखों में विकास के सपनों की एक नई चमक बिखेर दी है. सीएम योगी आदित्यनाथ की भी तारीफ की. इससे जहां पूर्वांचल में विकास की गंगा बहाने का संकेत दिया तो वहीं योगी आदित्यनाथ को लेकर भी अगले मुख्यमंत्री के संदर्भ में कड़ा संकेत दिया. हालांकि हाल ही में स्वामी प्रसाद मौर्य समेत दर्जनों विधायकों के सपा में शामिल होने के बाद भाजपा अभी इस संदर्भ में कुछ भी खुलकर नहीं बोल रही है.
भाजपा जिस तरह पूर्वांचल पर फोकस कर रही है, उसकी मुख्य वजह केवल विकास या विपक्ष की सियासी सेंध को कम करने की कोशिश तक सीमित नहीं है. पूर्वांचल से ब्राह्मण, ठाकुर और ओबीसी वोटर्स का समीकरण भी सधता है. स्वामी प्रसाद मौर्य के पार्टी से जाने और भाजपा पर पिछड़ों और ओबीसी के साथ भेदभाव करने के आरोपों के बाद इस चुनाव में तो ये मुद्दा बहुत बड़ा हो गया है.
योगी पर लगते रहे हैं ब्राह्मण विरोधी होने के आरोप
गोरखपुर की बात करें तो सीएम योगी की अपने गढ़ में ही ब्राह्मण नेताओं से नहीं पटती. शिवप्रताप शुक्ला और हरिशंकर तिवारी के साथ टकराव की बात पहले ही जगजाहिर है. इस सियासत टकराव को योगी की ब्राह्मण विरोधी की मानसिकता से भी जोड़कर पेश किया जाता रहा है. विकास दुबे और खुशी दुबे के मामले के बाद इस बात को और तूल दिया गया. यही वजह है कि प्रदेश के लगभग 16-17 फीसदी ब्राह्मण वोटर्स को साधने की कवायद भी तेज हो गई है.
2022 की चुनावी जंग को जीतने के लिए एक तरफ जहां बीजेपी ने एके शर्मा, जतिन प्रसाद, श्रीकांश शर्मा जैसे ब्राह्मण चेहरों को सामने लाना शुरू कर दिया है, वहीं बहुजन समाज पार्टी प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन के नाम पर ब्राह्मणों को लगातार साधने की कोशिश करती दिखाई दी है. बसपा को उम्मीद है कि ब्राह्मणों का समर्थन इन कवायदों के बाद उनके पाले में जरूर आएगा.
अखिलेश भी हुए परिपक्व, पूर्वांचल में जातिगण समीकरण साधने में जुटे
2017 में यूपी के छोरे और 2019 में बूआ-बबुआ जैसे चुनावी नारों के साथ बड़े गठबंधनों के साथ चुनावी मैदान में उतरे सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव को जिस तरह मुंह की खानी पड़ी, उससे उन्होंने खासा सबक लिया है. शायद यही वजह है कि उनमें पहले से कहीं ज्यादा राजनीतिक परिपक्वता भी नजर आने लगी है. इसका ही परिणाम है कि इस बार के विधानसभा चुनावों में उन्होंने बड़े दलों से गठबंधन करने की बजाए छोटे छोटे दलों (जो मुख्य रूप से किसी जाति या समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं) से गठबंधन किया.
हाल ही में गोरखपुर और संत कबीरनगर जिले में असर रखने वाले ब्राह्मण नेता सपा में आए हैं. ये सपा के लिए बोनस साबित हो सकता है. आम तौर पर ब्राह्मण सपा के साथ नहीं जाते. माता प्रसाद पांडेय जैसे इक्का-दुक्का नेता छोड़ दें तो पार्टी में कोई चर्चित ब्राह्मण चेहरा नहीं है. हो सकता है कि हरिशंकर तिवारी का प्रभाव उस तरह का न हो जो पहले किसी जमाने में हुआ करता था. इसके बावजूद समुदाय में संदेश तो जाता ही है. अखिलेश के पास पहले से यादव और मुस्लिम समुदाय का वोट बैंक है. पूर्वांचल में ये बदलते समीकरण अखिलेश की स्थिति को पहले से और मजबूत बना सकता है.
पूर्वी UP की इन परियोजनाओं के बदौलत भाजपा को उम्मीद
पीएम मोदी ने जुलाई 2021 में ही वाराणसी से पूर्वांचल में चुनावी बिगुल फूंक दिया था. यहां उन्होंने 1,500 करोड़ की विकास परियोजनाओं का उद्घाटन किया था. इसके तुरंत बाद में गृह मंत्री अमित शाह मिर्ज़ापुर पहुंचे थे जो पूर्वी यूपी में विंध्याचल क्षेत्र का हिस्सा है. यहां उन्होंने 150 करोड़ की विंध्याचल कॉरिडोर परियोजना की आधारशिला रखी थी.
इसी तरह पिछले कुछ महीनों में ही पीएम मोदी ने करीब 2,329 करोड़ के नौ नए मेडिकल कॉलेजों का उद्घाटन किया. इनमें छह पूर्वांचल में हैं. इसके अलावा प्रयागराज और कुशीनगर हवाई अड्डों ने काम करना शुरू कर दिया. आज़मगढ़, अयोध्या, चित्रकूट, झांसी तथा सोनभद्र में हवाई अड्डों के निर्माण का काम भी भाजपा इस चुनाव में जनता के बीच लेकर जा रही है.
इसके अलावा पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे जो उत्तर प्रदेश के नौ ज़िलों- लखनऊ, बाराबंकी, अमेठी, सुल्तानपुर, अयोध्या, आंबेडकर नगर, आज़मगढ़, मऊ और गाज़ीपुर से होकर गुज़रता है और जल्द ही इसे वाराणसी-आज़मगढ़ हाईवे से जोड़ दिया जाएगा, को भी भाजपा जनता के बीच लेकर जा रही है.
इसके अलावा वाराणसी में काशी विश्वनाथ धाम कारिडोर के बनने के बाद भाजपा इसे भी चुनाव में अपनी उपलब्धि की तरह ही गिना रही है. अयोध्या में मंदिर निर्माण के अलावा अब मथुरा के मुद्दे को भी जनता के बीच ले जाया जा रहा है. यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे पूर्वांचल का यादव समाज भी भाजपा से जुड़ सकता है.
इसके अलावा भाजपा कानून व्यवस्था को लेकर भी जनता के बीच जा रही है. खासकर पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का उदघाटन करते हुए मोदी ने पूर्वी यूपी में ‘माफियावाद’ लाने के लिए पिछली सरकारों की आलोचना की थी. इसी तरह अमित शाह ने योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में पूर्वांचल ‘माफिया और मच्छर मुक्त’ हो जाने की घोषणा की थी. यह सीधे तौर पर सपा पर हमला और भाजपा के लिए आगामी चुनाव में जमीन तैयार करने के रूप में देखा जा रहा है.
सपा का बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा
पूर्वांचल के लोगों के विकास की आस और जातिगत समीकरणों के काम न आने जैसै पूर्व के अनुभवों से सबक लेते हुए इस बार समाजवादी पार्टी ने भी पूर्वांचल में महंगाई और बेरोजगारी को मुख्य मुद्दा बताना शुरू कर दिया है. इसके साथ ही भाजपा द्वारा जिन भी योजनाओं का उद्घाटन या शिलान्यास किया जा रहा है, सपा उन्हें अपना बताने में जुटी है. चाहे एक्सप्रेसवे हो या श्रीकाशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण, बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे हो या कानपुर में मेट्रो का उद्घाटन, सभी योजनाओं को सपा अपना बता रही है. हालांकि इसका उसे आगामी चुनावों में कितना लाभ होगा, यह वक्त ही बताएगा. जहां तक पूर्वांचल में मुद्दों की बात है तो आगामी चुनाव विकास के साथ जातिगत समीकरणों की एक मिश्रित कड़ी के रूप में जरूर सामने आता दिखेगा. अब इसमें बाजी किसके हाथ होगी, यह वक्त ही बताएगा.