लखनऊ : पिछले दिनों संपन्न हुए निकाय चुनाव में प्रदेश के कई जिलों में बड़ी संख्या में लोगों के वोट न डाल पाने की शिकायतें सामने आईं. पता चला कि इन लोगों का नाम वोटर लिस्ट में था ही नहीं. मतदाता, मतदान कर्मियों और अधिकारी इस बहस में लगे रहे कि एक साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने मतदान किया था, उनका नाम अचानक वोटर लिस्ट से कैसे गायब हो गया? तमाम मतदाता यह नहीं जानते कि नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव के लिए अलग-अलग वोटर लिस्ट बनाई जाती है और यह खामी इसी के चलते हुई है. कई बार मृत वोटरों के नाम सूची से कटवाए जाने के बाद भी अगले चुनाव में सूची में दिखाई देते हैं. लोग इस पर बहस करते हैं और प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल उठाते हैं, क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि जिस सूची से उन्होंने नाम कटवाया था वह दूसरे चुनाव की थी. इस समस्या का निपटारा करने के लिए एक बार फिर ढाई दशक पुरानी कॉमन मतदाता सूची की कवायद तेज हो गई है. इसके कई लाभ भी हैं. कहा जा रहा है कि निर्वाचन आयोग इस बार कॉमन वोटर लिस्ट को लेकर गंभीर है. गौरतलब है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए केंद्रीय निर्वाचन आयोग मतदाता सूची तैयार कराता है, जबकि निकाय और पंचायत चुनावों के लिए राज्य निर्वाचन आयोग. सूचियों का पुनरीक्षण भी यही संस्थाएं करती हैं.
अलग-अलग चुनावों के लिए अलग मतदाता सूचियां होने से सरकार पर आर्थिक बोझ तो पड़ता ही है, साथ ही सरकारी संसाधनों और कर्मचारियों का समय का भी अनुचित रूप से बर्बादी होती है. यही नहीं इस व्यवस्था का कोई अतिरिक्त लाभ मिलता दिखाई नहीं देता, बल्कि नुकसान कई होते हैं. मतदाता सूची में नाम न होने पर पराये विवाद भी जन्म लेते हैं और प्रशासन को असहज परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. ढाई दशक पहले यह कवायद तब शुरू हुई थी, जब अटल बिहारी बाजपेई प्रधानमंत्री थे और उन्होंने केंद्रीय निर्वाचन आयोग से सभी चुनावों के लिए एक ही मतदाता सूची बनाए जाने की सिफारिश की थी. इस सिफारिश पर बहस तो खूब हुई, लेकिन कितने वर्षों में यह कवायद पूरी नहीं की जा सकी. यह बहस एक बार फिर ताजा है. बाद में जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी कॉमन वोटर लिस्ट की सिफारिश दोहराई और केंद्रीय निर्वाचन आयोग से इसे लागू करने का आग्रह किया. इसके बाद भी कई बार संसदीय समितियों व अन्य माध्यमों से चुनाव सुधारों को लागू करने का आग्रह किया गया और कॉमन मतदाता सूची लागू करने की बात केंद्रीय निर्वाचन आयोग के सामने रखी गई. इन सभी कवायदों के बावजूद बात अब तक नहीं बन पाई है और एक बार फिर इसे लेकर बहस तेज हो गई है.
तमाम कोशिशों के बाद देश के अधिकांश राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कॉमन वोटर लिस्ट की बात मान ली गई, हालांकि उत्तर प्रदेश इससे अछूता ही रहा. इसे लेकर कई चुनौतियां भी हैं. केंद्रीय और राज्य निर्वाचन आयोग कॉमन वोटर लिस्ट को लेकर पहले भी कवायद कर चुके हैं, लेकिन इसमें कई चुनौतियां भी हैं. विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन तीन दशक में होता है, जबकि निकायों का हर 10 साल पर. आम चुनावों में एक मतदाता एक पद के लिए मतदान करता है, जबकि पंचायत में चार और शहरी निकायों में कम से कम दो पदों के लिए मतदान करता है. लोकसभा और विधानसभा चुनावों से अलग निकाय और पंचायत चुनाव में मतदाता सूचियां अलग प्रकार से बनती हैं. यही कारण है कि एक मतदाता सूची लागू करने में कई दिक्कतें भी पेश आती हैं. चुनाव आयोग इन दिक्कतों को कैसे दूर करेगा और इसका क्या रास्ता निकालेगा यही महत्वपूर्ण है.
इस संबंध में प्रोफेसर संजय गुप्ता कहते हैं कि 'चुनावों में जनता के पैसे की वैसे भी काफी बर्बादी होती है. यदि नई मतदाता सूची की व्यवस्था लागू कर इस दुरुपयोग को कुछ कम किया जा सके तो यह जनता के लिए ही अच्छा है. सरकारी पैसे और मानव संसाधन का जो दुरुपयोग अलग-अलग सूचियां बनाने पर होता है, वह रुकेगा और कॉमन सूची होने से लोगों में लिस्ट में नाम न होने जैसी तमाम समस्याओं का निदान भी हो जाएगा. हालांकि इसे लेकर केंद्रीय निर्वाचन आयोग कितना गंभीर है कहना कठिन है. जो कवायद पिछले ढाई दशक से चल रही हो और कई प्रधानमंत्रियों ने अपनी सहमति व्यक्त की हो, बावजूद इसके वह सुधार न हो पाना चिंता का विषय है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार आयोग मतदाता सूची का रास्ता निकालेगा और जनता के पैसे की बर्बादी के साथ ही वोटर लिस्ट को लेकर होने वाले विवादों पर भी अंकुश लगाएगा.'
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