लखनऊ: नवाबों के शहर को बागों के शहर के नाम से भी जाना जाता है. राजधानी में जहां ऐतिहासिक इमारतें हैं, वहीं बड़ी संख्या में बागें भी हुआ करती थीं. जैसे-जैसे शहर का विकास होता गया वैसे-वैसे बागों का अस्तित्व समाप्त हो गया. लखनऊ में आलमबाग, चारबाग, कैसरबाग, लालबाग, मूसाबाग समेत कई इलाके हैं. जानकारों का कहना है कि बढ़ते प्रदूषण के चलते बागों के शहर को अब प्रदूषण के शहर के नाम से जाना जाने लगा है. लॉकडाउन के दौरान उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों के साथ-साथ राजधानी की हवा काफी स्वच्छ हो गई थी. जैसे-जैसे अनलॉक की शुरुआत हुई, नियम और शर्तों के साथ धीरे-धीरे वाहनों से लेकर औद्योगिक क्षेत्रों को छूट दी गई. बीते इन तीन माह में कई जिलों के साथ-साथ राजधानी की आबोहवा भी जहरीली और दमघोंटू हो गई. पेश है ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट...
इन इलाकों की आबोहवा जहरीली
राजधानी के कई इलाकों में सरकारी योजनाओं के तहत निर्माण कार्य चल रहा है. इसको भी वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण माना जा रहा है. राजधानी के गोमतीनगर, लालबाग, सेंट्रल स्कूल, तालकटोरा इंडस्ट्रियल एरिया, अलीगंज के साथ-साथ कानपुर का नेहरू नगर, आईआईटीके, आगरा का संजय पैलेस, नोएडा यूपीपीसीबी-सेक्टर 1, गाजियाबाद के इंदिरापुरम, वसुंधरा, लोनी, ग्रेटर नोएडा का नॉलेज पार्क, मेरठ का गंगानगर, जय भीम नगर, दिल्ली के आनंद विहार, नोएडा सेक्टर 116 की आबोहवा अधिकांश जहरीली पाई गई है.
शहर में दौड़ रहे लाखों वाहन
वनों के विनाश, उद्योग/कल कारखाने, खनन के साथ-साथ परिवहन को भी वायु प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारण माना जा रहा है. उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो यहां करीब 21,23,813 पुराने वाहन और करीब 2,03,584 ट्रांसपोर्ट वाहन हैं. लखनऊ में पंजीकृत वाहनों में ट्रांसपोर्ट वाहन करीब 14,223, नॉन ट्रांसपोर्ट गाड़ियां 3,32,067 हैं. वहीं राजधानी में कुल वाहनों की संख्या 3,46,290 है.
इससे भी होता है वायु प्रदूषण
जानकारों की मानें तो मानवीय क्रियाकलापों से उत्पन्न प्रदूषण में विद्युत गृह, मोटर वाहन, कीटनाशक, जंगल की आग, कृषि कार्यों द्वारा उत्पन्न कचरा, सिगरेट के धुएं से भी प्रदूषण फैलता है. सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सॉलिड पार्टिकुलेट मैटेरियल, लौह कण, ओजोन, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोकार्बंस, मीथेन यह वायु के प्रमुख प्रदूषक हैं.
वायु प्रदूषण से होती हैं यह बीमारियां
वायु प्रदूषण से लाखों लोगों की मौत भी होती है. जानकारों का कहना है कि वर्ष 2019 के दौरान भारत में 16.7 लाख मौतें वायु प्रदूषण से हुई थीं. वायु प्रदूषण से कई बीमारियां हो सकती हैं. इससे ग्लोबल वार्मिंग, दिल की बीमारी, फेफड़ों की बीमारी, कैंसर, मानसिक समस्या और किडनी की बीमारी, प्रेग्नेंट महिला और उसके होने वाले बच्चे को जान का खतरा होने के साथ-साथ अन्य कई बीमारियां हो सकती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार हर साल लगभग 7 मिलियन लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हो जाती है.
तीन तरीके का होता है प्रदूषण
लखनऊ विश्वविद्यालय जियोलॉजी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर ध्रुव सेन सिंह ने बताया कि प्रदूषण 3 तरीके का होता है. जलमंडल में, एक स्थलमंडल में और एक वायुमंडल में होता है. प्रदूषण की वजह से एयर क्वालिटी इंडेक्स भी खराब होती जा रही है. मकानों के निर्माण से पार्टिकुलेट मैटर सबसे ज्यादा बढ़ जाते हैं. बालू, सीमेंट में धूल के कण होते हैं, जो ईटों के टुकड़े होते हैं. यह वायुमंडल में आ जाते हैं और उसकी गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाते हैं.
गाड़ियों के धुएं से भी वायु प्रदूषण
उन्होंने बताया कि निर्माण के साथ-साथ जब गाड़ियों का संचालन होता है, जब चौराहों पर गाड़ियां रूकती हैं या जाम लग जाता है, जब उससे धुआं निकलता है तो उससे भी पार्टिकुलेट मैटर निकलते हैं. उसके कारण भी वायु की गुणवत्ता काफी प्रभावित होती है. तीसरा कारण उद्योग धंधे भी होते हैं, उनसे भी जो धुआं निकलता है उसका भी वायुमंडल पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है. अगर प्राकृतिक रूप से बरसात हो जाए तो पार्टिकुलेट मैटर जमीन पर आ जाते हैं, जिससे वायु की गुणवत्ता ठीक हो जाती है. अगर हवा चल जाती है तो उससे भी वायु की गुणवत्ता ठीक हो जाती है. जैसे जैसे गर्मी के दिन आते जाएंगे वैसे-वैसे वायु गुणवत्ता ठीक होती जाएगी. जाड़े में हवाएं संगठित हो जाती हैं, जिसके कारण डेंसिटी बढ़ जाती है और पार्टिकुलेट मैटर से हवा की गुणवत्ता गड़बड़ा जाती है.
लिमिटेड चलानी चाहिए गाड़ियां
छात्रा राजनंदनी सिंह बताती हैं कि कोरोना काल में वायु प्रदूषण में थोड़ी कमी आई हैं. उससे पहले वायु प्रदूषण काफी बढ़ रहा था. कोरोना काल में गाड़ियां बंद हो गई थीं, इंडस्ट्रीज बंद हो गई थीं, सब कुछ वर्क फ्रॉम होम हो गया था. जिसके चलते बहुत हद तक पॉल्यूशन से राहत मिली थी. धीरे-धीरे जैसे ही सब कुछ खुलने लगा वैसे वायु प्रदूषण भी बढ़ रहा है. एयर पॉल्यूशन, वाटर पॉल्यूशन और नॉइस पॉल्यूशन लगातार बढ़ रहा है सरकार को इसे कंट्रोल करने के उपाय करने चाहिए.
फेफड़ों में पहुंच जाते हैं कण
पर्यावरणविद सुशील त्रिवेदी बताते हैं कि पीएम 10 का सामान्य लेवल 100 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर होना चाहिए. पीएम 2.5 का नॉर्मल लेवल 60 एमजीसीएम होता है. लखनऊ में पिछले 6 महीने से पीएम 10 का स्तर 400 से 450 और पीएम 2.5 भी 130 से 150 तक रिकॉर्ड हो रहा है. यह खतरनाक हालात की ओर इशारा कर रहे हैं. दरअसल, पीएम 10 और पीएम 2.5 प्रदूषण फैलाने में सबसे बड़ा किरदार निभाते हैं. यह कण इतने छोटे होते हैं कि सांस के जरिए आसानी से हमारे फेफड़ों में पहुंच जाते हैं और सेहत के दुश्मन बन जाते हैं. आमतौर पर लोग इन कणों के बारे में नहीं जानते लेकिन, इससे बचाव के लिए जानना बेहद जरूरी है. पीएम 2.5 का कण कितना छोटा होता है, इसे जानने के लिए ऐसे समझें कि एक आदमी का बाल लगभग 100 माइक्रोमीटर का होता है. इसकी चौड़ाई पर पीएम 2.5 के लगभग 40 कणों को रखा जा सकता है.