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उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बहुजन समाज पार्टी के लिए आसान नहीं होगी दोबारा वापसी - UP Bureau Chief Alok Tripathi

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ चुकी बहुजन समाज पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव 2024 का सफर कांटों भरा साबित हो सकता है. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बसपा की यूपी में वापसी आसान नहीं लग रही है. हालांकि अकेले चुनाव का लड़ने का ऐलान मायावती ने खुद ही किया है. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण.

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Published : Aug 4, 2023, 7:55 PM IST

लखनऊ : कभी प्रदेश की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी रही बहुजन समाज पार्टी आज हाशिए पर हैं. एकबारगी यह विश्वास नहीं होता कि 2007 के विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने वाली पार्टी आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है. 2022 के विधानसभी चुनावों में पार्टी को सिर्फ एक सीट नसीब हुई तो इसके बाद हुए निकाय चुनावों में एक भी नगर निगम जीतने में नाकाम रही. सत्ता के गलियारों में यह सवाल बार-बार कौंधता है कि आखिर ऐसा कैसे हो गया? और क्या बसपा दोबारा अपनी वापसी कर पाने में सफल हो पाएगी?

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.




वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में जब अप्रत्याशित सपा-बसपा का गठबंधन हुआ था, तो कयास लगाए जाने लगे थे कि अब प्रदेश की राजनीति में बड़ा उलटफेर होने वाला है, लेकिन जब चुनाव नतीजे सामने आए तो किसी को भी बरबस विश्वास नहीं होता था कि सपा सिर्फ पांच लोकसभा की सीटें जीत पाई है, जबकि बसपा को 10 सीटें मिली हैं. हालांकि यह गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चल पाया और मायावती से सपा पर आरोप लगाते हुए गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी. बाद में अखिलेश यादव ने भी कहा कि बसपा से गठबंधन एक बड़ी भूल थी. आज की परिस्थितियों जब भाजपा गठबंधन के खिलाफ देश में एक बड़ा गठजोड़ बन रहा है, तब भी बसपा को कोई पूछ तक नहीं रहा है. मजबूरन मायावती को एलान करना पड़ा कि वह किसी भी पार्टी से गठबंधन नहीं करेंगी. ऐसे में यह सवाल जायज है कि क्या वह अकेले दम पर अपना वजूद बचाए रख पाएंगी? बहुजन समाज पार्टी का जन्म बहुजन समाज के हितों की रक्षा करने के लिए हुआ था, लेकिन डेढ़ दशक तक सत्ता के इर्द-गिर्द रहने के बाद लोगों का बसपा से भरोसा दरकने लगा. मायावती की ऐशो-आराम, पैसे लेकर टिकट देने के आरोप और चुनाव से इतर पार्टी की निष्क्रियता उन पर भारी पड़ी.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.



उत्तर प्रदेश में जाति आधारित राजनीति में फिलहाल भाजपा ने बाजी मार ली है. केंद्र सरकार की तमाम योजनाओं का सीधा लाभ गरीबों और दलित समाज को मिला है. ऐसे में इस समाज को समझ में आने लगा है कि जुमलों से इतर उसका वास्तविक हितैषी वही है, जो उनके हित के लिए जरूरी कदम उठाए. मुफ्त आवास की योजना हो या उज्ज्वला योजना के तहत निशुल्क रसोई गैस वितरण की अथवा शौचालयों की व्यवस्था. ऐसी तमाम योजनाएं है, जो सीधे लोगों को जोड़ पाईं. मुफ्त खाद्यान्न योजना भी लोगों को खूब रास आई. जवाब ने लोगों ने भी भाजपा पर खूब विश्वास जताया. ऐसे में बसपा के लिए अपने समर्थकों को संगठित रखना और बूथ स्तर पर नेटवर्क बनाए रखने में बहुत कठिनाई हो रही है. बसपा के दलित मतदाताओं में भाजपा की सेंध की कोई काट मायावती अब तक नहीं ढूढ़ सकी हैं. ऐसे में यह दिखाई नहीं देता कि आखिर बसपा दोबारा कैसे प्रदेश में खड़ी हो पाएगी.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.



अतीत में भाजपा को बसपा से इतने धोखे मिले हैं कि अब बसपा और भाजपा के बीच गठबंधन की उम्मीद भी बहुत ही कम दिखती है, क्योंकि दोनों ही पार्टियां विभिन्न जातिगत और सामाजिक आधारों पर आधारित हैं और इनकी राजनीतिक दृष्टि बहुत अलग है. भाजपा का मुख्य आधार हिंदू एकता और विकास होता है, जबकि बसपा दलितों के मुद्दे को प्राथमिकता देती है. बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में पुन: वापसी के लिए अपने संगठन को मजबूत करने, युवा वर्ग को आकर्षित करने और विभाजन से बचाने के लिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य को समझ कर उचित कदम उठाने होंगे. दूसरी बड़ी बात है मायावती की सक्रियता. उम्र अथवा अन्य कारणों से मायावती की अब पहले जैसी सक्रियता नहीं है. पार्टी की इस स्थिति में यह भी एक बड़ा कारण है.

यह भी पढ़ें : Modi Surname Defamation Case में राहुल गांधी को मिली राहत, SC ने सजा पर लगाई रोक

लखनऊ : कभी प्रदेश की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी रही बहुजन समाज पार्टी आज हाशिए पर हैं. एकबारगी यह विश्वास नहीं होता कि 2007 के विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने वाली पार्टी आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है. 2022 के विधानसभी चुनावों में पार्टी को सिर्फ एक सीट नसीब हुई तो इसके बाद हुए निकाय चुनावों में एक भी नगर निगम जीतने में नाकाम रही. सत्ता के गलियारों में यह सवाल बार-बार कौंधता है कि आखिर ऐसा कैसे हो गया? और क्या बसपा दोबारा अपनी वापसी कर पाने में सफल हो पाएगी?

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.




वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में जब अप्रत्याशित सपा-बसपा का गठबंधन हुआ था, तो कयास लगाए जाने लगे थे कि अब प्रदेश की राजनीति में बड़ा उलटफेर होने वाला है, लेकिन जब चुनाव नतीजे सामने आए तो किसी को भी बरबस विश्वास नहीं होता था कि सपा सिर्फ पांच लोकसभा की सीटें जीत पाई है, जबकि बसपा को 10 सीटें मिली हैं. हालांकि यह गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चल पाया और मायावती से सपा पर आरोप लगाते हुए गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी. बाद में अखिलेश यादव ने भी कहा कि बसपा से गठबंधन एक बड़ी भूल थी. आज की परिस्थितियों जब भाजपा गठबंधन के खिलाफ देश में एक बड़ा गठजोड़ बन रहा है, तब भी बसपा को कोई पूछ तक नहीं रहा है. मजबूरन मायावती को एलान करना पड़ा कि वह किसी भी पार्टी से गठबंधन नहीं करेंगी. ऐसे में यह सवाल जायज है कि क्या वह अकेले दम पर अपना वजूद बचाए रख पाएंगी? बहुजन समाज पार्टी का जन्म बहुजन समाज के हितों की रक्षा करने के लिए हुआ था, लेकिन डेढ़ दशक तक सत्ता के इर्द-गिर्द रहने के बाद लोगों का बसपा से भरोसा दरकने लगा. मायावती की ऐशो-आराम, पैसे लेकर टिकट देने के आरोप और चुनाव से इतर पार्टी की निष्क्रियता उन पर भारी पड़ी.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.



उत्तर प्रदेश में जाति आधारित राजनीति में फिलहाल भाजपा ने बाजी मार ली है. केंद्र सरकार की तमाम योजनाओं का सीधा लाभ गरीबों और दलित समाज को मिला है. ऐसे में इस समाज को समझ में आने लगा है कि जुमलों से इतर उसका वास्तविक हितैषी वही है, जो उनके हित के लिए जरूरी कदम उठाए. मुफ्त आवास की योजना हो या उज्ज्वला योजना के तहत निशुल्क रसोई गैस वितरण की अथवा शौचालयों की व्यवस्था. ऐसी तमाम योजनाएं है, जो सीधे लोगों को जोड़ पाईं. मुफ्त खाद्यान्न योजना भी लोगों को खूब रास आई. जवाब ने लोगों ने भी भाजपा पर खूब विश्वास जताया. ऐसे में बसपा के लिए अपने समर्थकों को संगठित रखना और बूथ स्तर पर नेटवर्क बनाए रखने में बहुत कठिनाई हो रही है. बसपा के दलित मतदाताओं में भाजपा की सेंध की कोई काट मायावती अब तक नहीं ढूढ़ सकी हैं. ऐसे में यह दिखाई नहीं देता कि आखिर बसपा दोबारा कैसे प्रदेश में खड़ी हो पाएगी.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेली पड़ी बसपा.



अतीत में भाजपा को बसपा से इतने धोखे मिले हैं कि अब बसपा और भाजपा के बीच गठबंधन की उम्मीद भी बहुत ही कम दिखती है, क्योंकि दोनों ही पार्टियां विभिन्न जातिगत और सामाजिक आधारों पर आधारित हैं और इनकी राजनीतिक दृष्टि बहुत अलग है. भाजपा का मुख्य आधार हिंदू एकता और विकास होता है, जबकि बसपा दलितों के मुद्दे को प्राथमिकता देती है. बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में पुन: वापसी के लिए अपने संगठन को मजबूत करने, युवा वर्ग को आकर्षित करने और विभाजन से बचाने के लिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य को समझ कर उचित कदम उठाने होंगे. दूसरी बड़ी बात है मायावती की सक्रियता. उम्र अथवा अन्य कारणों से मायावती की अब पहले जैसी सक्रियता नहीं है. पार्टी की इस स्थिति में यह भी एक बड़ा कारण है.

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