लखनऊ: दलित, आदिवासी और मुसलमानों की रहनुमाई कर उत्तर प्रदेश में पार्टी की नींव मजबूत करने वाली बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को अब अपनों से ही अधिक निराशा मिल रही है. अब आप सोचेंगे कि उनका कौन ऐसा अपना है, जो उनके लिए मुसीबत बन गया है और वो भी ऐसी स्थिति में जब उन्हें और उनकी पार्टी को जमीनी स्तर पर संघर्ष करना पड़ रहा है. दरअसल, मायावती अक्सर अपने सियासी मंचों से सूबे में दलितों और मुस्लिमों का पक्ष लेते रही हैं और खासकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो ये दोनों ही इनके सियासी कर्णधार रहे हैं. लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह से बसपा के वोट बैंक में सेंध लगा है, उससे यह स्पष्ट होता है अब आगे उसकी चुनौतियां और अधिक बढ़ने वाली है.
वहीं, अपने सियासी आधार को बचाने को जद्दोजहद कर रहीं बसपा मुखिया मायावती को पश्चिम उत्तर प्रदेश में बड़ा झटका लग गया. मुजफ्फरनगर जिले के कद्दावर मुस्लिम नेता व पूर्व सांसद कादिर राणा ने बसपा को अलविदा कह समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया और वो भी सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की मौजूदगी में पार्टी की सदस्यता ग्रहण की. ऐसे में अब पश्चिम उत्तर प्रदेश में मायावती के पास कोई मुस्लिम चेहरा नहीं रहा.
इस कारण मुस्लिम नेताओं ने किया बसपा से किनारा
एक ओर भाजपा और सपा हैं, जो सूबे में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों की तैयारियों व क्षेत्रवार समीकरण बैठाने को होड़ तोड़ मेहनत कर रहे हैं तो वहीं, दूसरी ओर बसपा कई मोर्चे पर लगातार कमजोर होती जा रही है. चुनाव से पहले अपने सामाजिक समीकरण दुरुस्त करने में लगी बसपा को लाभ शून्य व झटके तेजी से लग रहे हैं.
यही कारण है कि बसपा के नेता भी अब अपने सियासी भविष्य के लिए सुरक्षित ठिकाने तलाशने में जुट गए हैं. जिसकी बात बन गई वो तो निकल लिए, लेकिन वे जो अभी भी अधर में है, उन्होंने खामोशी साध रखी है. हालांकि, सूबे में बढ़ती चुनावी सरगर्मियों के बीच आयाराम और गयाराम का दौर तेजी से चल रहा है. सूबे की मौजूदा सियासी हालात के बीच अगर बात बसपा मुखिया मायावती की करें तो मुस्लिमों का उनसे मोहभंग हो रहा है. यही कारण है कि वे अब बसपा का साथ छोड़कर सपा और दूसरे दलों का दामन थाम रहे हैं.
और रही बात पश्चिम उत्तर प्रदेश की तो यहां बसपा के ज्यादातर नेता हाथी से उतर कर साइकिल की सवारी शुरू कर दिए हैं. वहीं, कुछ ऐसे भी नेता हैं, जो बसपा और सपा दोनों ही पार्टियों से किनारा कर आरएलडी में अपना सियासी भविष्य तलाश रहे हैं. इधर, कादिर राणा के बसपा छोड़ने के बाद अब पार्टी के पास कोई कद्दावर मुस्लिम चेहरा फिलहाल नजर नहीं आ रहा है. वहीं, बिजनौर, हापुड़ और पश्चिमी यूपी के दूसरे कई जिलों की स्थिति भी एक समान ही दिख रही है.
दरअसल, समाजवादी पार्टी से अपने सियासी पारी का आगाज करने वाले कादिर राणा 1993 में चुनाव हारने के बावजूद कुछ महीने बाद ही पार्टी की टिकट पर एमएलसी चुने गए थे. इसके बाद उन्होंने सियासत में मुड़कर नहीं देखा. आरएलडी के टिकट पर विधायक व फिर बसपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीते.
हर नेता को सता रहा सियासी भविष्य की चिंता
खैर, 2013 में मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद बदले हालात में उनके लिए जगह बनाना मुश्किल हो गया था. ऐसे में अब बसपा छोड़कर उन्होंने घर वापसी की है. कुछ दिनों पहले ही कादिर राणा के विधायक भाई नूर सलीम राणा ने बसपा छोड़ आरएलडी का दामन थाम लिए. वहीं, मीरापुर से बसपा विधायक रहे मौलाना जमील अहमद कासमी तो पहले ही आरएलडी में जा चुके हैं.
इसके अलावा पश्चिम उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता व पूर्व विधायक नवाजिश आलम और उनके पिता व पूर्व सांसद अमीर आलम पहले ही बसपा को टाटा बाय-बाय कर दिए हैं. ये बाप-बेटे दोनों ही आरएलडी में शामिल होकर जयंत चौधरी को मजबूत करने में जुटे हैं. सहारनपुर में बसपा के दिग्गज नेता रहे माजिद अली भी पार्टी छोड़ चुके हैं. माजिद अली सहारनपुर के जिला पंचायत अध्यक्ष रहे चुके हैं और साल 2017 में देवबंद सीट से चुनाव भी लड़े थे.
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बिजनौर में भी पूर्व विधायक शेख सुलेमान बसपा से सपा में आ गए हैं. वहीं, बसपा से दो बार विधायक रहे शेख मोहम्मद गाजी भी हाथी से उतरकर चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी में शामिल हो गए हैं. इसी तरह हापुड़ के विधायक असलम चौधरी का भी बसपा से मोहभंग हो गया है और वो भी सपा के साथ हो लिए हैं. गाजियाबाद के लोनी से पूर्व विधायक जाकिर अली भी अब सपा में शामिल हो गए हैं.
ऐसे गिरा सियासी ग्राफ
दरअसल, 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही बसपा का सियासी ग्राफ लगातार नीचे गिर रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा का खाता तक नहीं खुल पाया था तो वहीं, 2017 के विधानसभा चुनाव में सबसे निराशाजनक हाल देखने को मिले, जहां पार्टी बामुश्किल 19 सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी, लेकिन उसके बाद लगातार ये आंकड़ा घटता ही चला गया. आज आलम यह है कि बसपा के पास केवल सात विधायक ही बचे हैं और शेष तो बागी हो गए हैं.
बसपा के बागी विधायक असलम राईनी और मुजतबा सिद्दीक सपा के संपर्क में है, जो अपनी सदस्यता को बचाए रखने के लिए सदस्यता ग्रहण नहीं कर रहे हैं. ऐसे ही पूर्वांचल में अंसारी परिवार का भी बसपा से मोहभंग हो गया है. मुख्तार अंसारी के बड़े भाई पूर्व विधायक सिबातुल्ला अंसारी भी बसपा छोड़कर सपा में शामिल हो गए हैं. बसपा से लोकसभा चुनाव लड़ चुके शाहिद सिद्दीकी भी अब पार्टी छोड़कर आरएलडी में शामिल हो गए हैं.
अब ये तीन भी कब तक रूकेंगे!
2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर तीन मुस्लिम सासंद जीते थे, जिनमें सहारनपुर से हाजी फजलुर्रहमान और अमरोहा से कुंवर दानिश अली, जबकि गाजीपुर से अफजाल अंसारी है. खैर, इन तीनों को छोड़कर अन्य दूसरों ने तो पार्टी को अलविदा कह दिया है. यही कारण है कि आज बसपा में मुस्लिम चेहरों की किल्लत पड़ गई है.
अबकी तय है दलित वोट में भाग
स्थानीय सियासी जानकारों की मानें तो जमीनी स्तर पर बसपा सूबे में कहीं नजर नहीं आ रही है, जिसके चलते पार्टी के तमाम नेताओं को अपने सियासी भविष्य की चिंता सता रही है. दलित वोट में भी बसपा के साथ सिर्फ जाटव ही बचे हैं. जिस पर भीम आर्मी के चंद्रशेखर भी नजर गढ़ाए हुए हैं. ऐसे में किसान आंदोलन से आरएलडी को मिली संजीवनी और अब सपा से हो रहे गठबंधन के चलते बसपा के मुस्लिम नेताओं को अपनी जीत की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं दिख रही है.