लखनऊ : प्रकृति से लगाव रखने वाले लोगों और इसे नजदीक से निहारने के लिए वनों की सैर की इच्छा रखने वालों के लिए अच्छी खबर है. जल्द ही प्रदेश के इकलौते दुधवा राष्ट्रीय उद्यान सहित अन्य टाइगर रिजर्व, वन्य जीव विहार और सेंचुरी आदि पर्यटकों के लिए खुलने वाले हैं. यहां आकर प्रकृति के दिलकश नजारे तो लिए ही जा सकते हैं, साथ ही बाघ, गैंडा, तेंदुआ और जंगली हाथियों सहित सैकड़ों प्रजातियों के दुर्लभ जीव भी देख सकते हैं. आप जंगल सफारी करने के बाद चाहें, तो रात वहीं गेस्ट हाउसों में रुककर अपनी यात्रा को यादगार बना सकते हैं. प्रदेश के वनों से गुजरने वाली कुछ नदियों में डॉल्फिन जैसे दुर्लभ जलीय जंतु भी आपकी यात्रा को रोमांचक बनाने का काम करेंगे. 2022 में की गई गणना में प्रदेश के जंगलों में दो सौ पांच बाघ मिले थे. 2018 में यह संख्या सिर्फ एक सौ तिहत्तर थी. आइए हम आपको प्रदेश के कुछ खास जंगलों के विषय में बताते हैं कि इनकी क्या विशेषता है.
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान : प्रदेश के सभी वन क्षेत्र 15 नवंबर से 15 जून तक पर्यटकों के लिए खुले रहते हैं. वर्षा काल में इन्हें बंद कर दिया जाता है. प्रदेश के सबसे बड़े जिले लखीमपुर खीरी स्थित भारत-नेपाल सीमा से सटा दुधवा नेशनल पार्क देश के सबसे प्रतिष्ठित पार्कों में से एक है. लगभग सवा आठ सौ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस जंगल को घास के मैदान, दलदल और नदियां बेहद आकर्षक बनाती हैं. यह जंगल स्तनधारियों की 38 से अधिक प्रजातियों के लिए, सरीसृपों की 16 प्रजातियों और पक्षियों प्रजातियों के लिए एक आदर्श और संरक्षित आवास है. दुधवा की पहचान यहां पाए जाने वाले दुर्लभ बाघों, गैंडों और बारहसिंगा के साथ ही प्रदेश के सबसे बड़े जैव विविधता के केंद्र के रूप में की जाती है.
राष्ट्रीय उद्यान का मिला था दर्जा : 1977 में इस जंगल को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला था. इसे बाघ संरक्षित जंगल के रूप में भी जाना जाता है. इस जंगल में मुख्य रूप से बाघ, जंगली हाथी, गैंडे, तेंदुए, बारहसिंगा, पाढ़ा, चीतल, लकड़बग्घे, सियार, भेड़िए, लोमड़ी, नीलगाएं आदि सैकड़ों प्रजातियों के वन्य जीव, सरीसृप और जलीय जंतु पाए जाते हैं. जलीय जंतुओं में यहां डॉल्फिन, घड़ियाल और मगरमच्छ तो देखे ही जाते हैं. कई दुर्लभ प्रजातियों की मछलियां भी यहां की नदियों में देखने को मिलती हैं. यहां जंगली हाथी बड़ी तादाद में हैं, वहीं दुधवा के सोनारीपुर में 1984 में गैंडा पुनर्वास कार्यक्रम आरंभ किया गया था. पांच गैंडों से शुरू हुए इस पुनर्वास केंद्र में लगभग तीन दर्जन गैंडे हो गए हैं. इनकी बढ़ती तादाद को देखते हुए एक और केंद्र बनाया जा रहा है. वन्यजीवों के अलावा यहां साल के आसमान छूते वृक्ष देखते ही बनते हैं. इस जंगल में खैर, असना, बहेड़ा और जामुन आदि वनस्पतियों प्रमुख रूप से पाई जाती हैं. यहां के जंगलों में अब भी थारू जनजाति के लोग रहते हैं. राजधानी लखनऊ से इसकी दूरी लगभग सवा दो सौ किलोमीटर है.
कतर्नियाघाट वन्य अभयारण्य : बहराइच जिले की मिहींपुरवा तहसील स्थित चार सौ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह जंगल भी नेपाल की सीमा से सटा है. 1976 में इसे अभयारण्य का दर्जा दिया गया. कतर्निया और किशनपुर सेंचुरी को मिलाकर दुधवा बाघ अभयारण्य कहा जाता है. सागौन, साखू और साल के जंगलों से आच्छादित यह जंगल भी घास के मैदान, दलदल और नदियों वाले क्षेत्र से गुलजार है. यहां बाघों की अच्छी खासी तादाद तो है ही, साथ ही यहां से निकलने वाली गेरुआ नदी में बड़ी संख्या में डॉल्फिन देखी जाती हैं. इस नदी में घड़ियाल, मगरमच्छ और डॉल्फिन एक साथ देखे जा सकते हैं. यह एक अनोखा अनुभव होता है. बाघ, तेंदुओं, जंगली हाथियों के अलावा हिरण और खरगोश भी यहां बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं. गिद्धों का भी यह एक प्राकृतिक ठिकाना है. यहां बड़ी संख्या में जंगली सुअर, बारहसिंगा, पाढ़ा, चीतल, लकड़बग्घे, सियार, भेड़िए, लोमड़ी, नीलगाएं आदि भी पाए जाते हैं. साथ ही तराई में नेपाल के जंगलों से भी बड़ी तादाद में वन्यजीवों का आवागमन रहता है. यह राजधानी लखनऊ से लगभग दो सौ किलोमीटर की दूरी पर है और यहां ठहरने के लिए ऑनलाइन गेस्ट हाउस बुक कराए जा सकते हैं.
पीलीभीत टाइगर रिजर्व : राजधानी लखनऊ से लगभग पौने तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित पीलीभीत जिले का यह जंगल प्राकृतिक संपदा से भरपूर है. 2014 में इस जंगल को टाइगर रिजर्व का दर्जा प्रदान किया गया. यह जंगल भी दुधवा की तरह साल के ऊंचे दरख्तों और घास के मैदानों के लिए जाना जाता है. दुधवा, कतर्नियाघाट और पीलीभीत टाइगर रिजर्व के जंगलों में उगने वाली सात-आठ फीट लंबी घास बाघों की पसंद का रहवास है. पीलीभीत में भी दलदलों का अंबार है. इस जंगल की सीमा पर बाइस किलोमीटर लंबा शारदा सागर बांध बना है, जो बेहद मनमोहक नजारा प्रस्तुत करता है. यह जंगल आठ सौ किलोमीटर में फैला है. वन विभाग के अनुसार पीलीभीत टाइगर रिजर्व में पांच दर्जन से भी ज्यादा बाघ पर्यटकों का आकर्षण बढ़ाते हैं. यहां दुधवा और कतर्नियाघाट में पाई जाने वाली लगभग सभी प्रजातियां पाई जाती हैं. यदि संख्या की बात करें, तो करीब सवा सौ से अधिक प्रजातियों के जानवर, साढ़े पांच सौ प्रजातियों के पक्षी और दो हजार से ज्यादा वनस्पतियां मिलती हैं. यहां के प्रमुख आकर्षणों में चूका बीच, जंगल सफारी, सप्त सरोवर, पाइथन प्वाइंट, क्रोकोडाइल प्वाइंट, भीम ताल, बारहसिंगा ताल आदि प्रमुख हैं.
सुहेलवा वन्यजीव अभयारण्य : नेपाल से सटे श्रावस्ती, गोंडा और बलरामपुर के बीच स्थिति सुहेलवा वन्यजीव अभयारण्य बेहद मनमोहक है. चार सौ बावन वर्ग किलोमीटर में फैले इस जंगल के पहाड़ी नालों से बहता निर्मल जल और यहां के अनछुए जंगल किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं. प्रकृति प्रेमियों के लिए यह एक बहुत ही समृद्ध वन्य संपदा वाला क्षेत्र है. राजधानी लखनऊ से लगभग दो सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह जंगल तेंदुए, भड़ियों, नीलगायों और हिरणों का प्राकृतिक घर है. 1988 में इसे अभयारण्य घोषित किया गया. इस वन के उत्तर दिशा में नेपाली वन क्षेत्र हैं, जहां से प्राय: वन्य जीव एक-दूसरे की सीमा में आते-जाते रहते हैं. पहले यह जंगल बलरामपुर स्टेट के राजा की निजी संपत्ति थी और इसे बलरामपुर स्टेट के नाम से जाना जाता था, लेकिन जमींदारी उन्मूलन अधिनियम 1952 लागू होने के बाद इसे राज्य सरकार का वन क्षेत्र घोषित किया गया. इस वन में भी थारू जनजाति के लोग रहते हैं. इस जंगल में खैर और शीशम के वृक्षों की संख्या सबसे ज्यादा है. इसके अलावा जामुन, होल्डू, फलदू, जिगना आदि के वृक्ष भी यहां पाए जाते हैं.
चंद्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य : पूर्वांचल के चंदौली जिले में स्थित चंद्रप्रभा अभयारण्य घने जंगलों और झरनों की थाती समेटे पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है. वाराणसी से इसकी दूरी लगभग सत्तर किलोमीटर है. अठहत्तर वर्ग किलोमीटर में फैला यह जंगल सौगौन, महुआ, अमलतास, तेंदूआ आदि के दरख्तों से सुशोभित है. इस जंगल में तेंदुआ, जंगली सुअर, हिरण, सांभर, नीलगाय, चिंकारा, चीतल आदि तो पाए ही जाते हैं. साथ ही यहां पक्षियों की डेढ़ सौ से अधिक प्रजातियां भी पाई जाती हैं. यह जंगल वाराणसी के राजघराने के शिकार आदि के लिए बनाया गया था. 1957 में इसे अभयारण्य घोषित किया गया और 1958 में यहां एशियाई शेरों को लाया गया. हालांकि योजना सफल नहीं रही. यहां झरने, गुफाएं और पहाड़ भी हैं, जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनते हैं.
राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य : यह अभयारण्य राजधानी लखनऊ से दो सौ साठ किलो मीटर की दूरी पर स्थित है. इसे घड़ियालों, गंगा डॉल्फिन या सूंस और लालमुकुट कछुओं का प्राकृतिक आवास माना जाता है. इसकी स्थापना 1978 में की गई थी और यह चंबल नदी के तटवर्ती क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की सीमाओं को छूता है. अभयारण्य पांच हजार चार सौ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसका सवा छह सौ वर्ग किलोमीटर का हिस्सा उत्तर प्रदेश में आता है. बीहड़ों से गुजरने वाली चंबल नदी की रेत में इन जलीय जीवों का जीवन पनपता है. इस नदी का पानी अन्य नदियों की तुलना में काफी साफ है और जलीय जीवों में रुचि रखने वालों को यहां कई चीजें आकर्षित करेंगी. यहां कई प्रजातियों के पक्षी भी देखे जाते हैं.