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क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से दरक रहा है अल्पसंख्यकों का भरोसा?

लोकसभा चुनाव को लेकर चुनावी बिसात बिछने लगी है. सभी दल अपनी-अपनी तैयारियों में जुट गये हैं. क्या इस बार चुनाव में यूपी में अल्पसंख्यकों का भरोसा सपा ने दरक रहा है? पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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Published : Jun 27, 2023, 8:37 PM IST

Updated : Jun 27, 2023, 9:12 PM IST

लखनऊ : अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर उत्तर प्रदेश में तैयारियां अभी से तेज हो गई हैं. सीटों के लिहाज से सबसे बड़ा राज्य होने के कारण सभी दलों की निगाहें भी प्रदेश पर रहती हैं. निकाय चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सीटों समेत कई जगह यह देखने को मिला कि मुस्लिम मतदाताओं का रुझान सपा के स्थान पर कांग्रेस या ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम के पक्ष में रहा. निकाय चुनावों के बाद यह सवाल जोर पकड़ने लगा है कि आखिर लोकसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं का रुख किसके पक्ष में होगा.

2019 में दलीय स्थिति
2019 में दलीय स्थिति

प्रदेश में पिछले कई दशक से मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद समाजवादी पार्टी ही रही है. यह बात और है कि कभी भाजपा को हराने के लिए मुस्लिम मतदाताओं ने बहुजन समाज पार्टी या राष्ट्रीय लोक दल को वोट दिया हो, पर उनका स्थायी ठिकाना सपा ही रही है. पिछले डेढ़-दो वर्षों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे मुस्लिमों का समाजवादी पार्टी से भरोसा दरका है. इस समुदाय में अब कहीं न कहीं यह चर्चा उठने लगी है कि सपा उनके हितों की रक्षा नहीं कर पा रही है और न ही उनकी समस्याओं या विषयों को सही ढंग से उठाने का प्रयास होता है. वहीं एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम समुदाय के मसले जोर-शोर से उठाते हैं. संसद हो या जनसभा वह अपना नजरिया खुलकर रखते हैं और धीरे-धीर मुस्लिमों खासतौर पर युवाओं में अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं, वहीं तमाम अन्य लोगों को लगता है कि अब कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है, जो मुस्लिमों का कल्याण कर सकती है.

क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से दरक रहा है अल्पसंख्यकों का भरोसा (फाइल फोटो))
क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से दरक रहा है अल्पसंख्यकों का भरोसा (फाइल फोटो))

ऐसे कई कारण हैं, जो समाजवादी पार्टी से मुस्लिम समुदाय के मोहभंग के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हैं. यदि बड़े चुनावों को छोड़ दें तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव प्रचार करने शायद ही निकलते हों. लोकसभा और विधानसभा के उप चुनाव हों या निकाय चुनाव, अखिलेश यादव बिरले ही चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे. यही कारण है कि उनके द्वारा खाली की गई आजमगढ़ लोकसभा सीट और सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान द्वारा छोड़ी गई रामपुर लोकसभा सीट भाजपा ने छीन ली. निकाय चुनाव में भी वह एक भी मेयर प्रत्याशी नहीं जिता सके. इसे लेकर मुस्लिमों में खासा आक्रोश है. लोगों का कहना है कि जब आपका मुकाबला ऐसे दल से है, जो हमेशा लड़ाई के लिए तैयार रहता है, तो आपको भी अपनी तैयारी और प्रचार उसी स्तर पर करना होगा. मुस्लिम समुदाय में सबसे ज्यादा नाराजगी उन मुद्दों को लेकर है, जहां अखिलेश यादव खामोशी अख्तियार कर लेते हैं. अयोध्या मामला हो या आजम खान का प्रकरण, ऐसे तमाम विषय आए, जहां अखिलेश यादव से मुस्लिम समुदाय के लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं. सपा विधायक इरफान सोलंकी और सारस पालने वाले आरिफ के साथ प्रशासनिक रवैये पर अखिलेश की खामोशी भी इस समाज के लोगों को बहुत अखरी है.

2014 में दलीय स्थिति
2014 में दलीय स्थिति

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी पिछड़े मुसलमानों की राजनीति कर इस समाज पर दांव लगाना चाहती है. यही कारण है कि पसमांदा मुसलमानों को लेकर मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक लगातार सभाओं में चर्चा करते हैं और उनके साथ हुई नाइंसाफी का मुद्दा भी उठाते हैं. पसमांदा मुसलमानों में अंसारी, कसाई, तेली, धोबी, घोसी, जुलाहा आदि आते हैं, जिनकी तादाद उत्तर प्रदेश में करीब अस्सी फीसद है. 2022 में जब योगी आदित्यनाथ ने शपथ ली तो पसमांदा समाज से आने वाले दानिश अंसारी को अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री बनाया. वहीं प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष अशफाक सैफी, सुन्नी वक्फ बोर्ड के चेयरमैन जफर फारूकी, मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष इफ्तिखार अहमद आदि भी पसमांदा समाज से ही नाता रखते हैं. भाजपा अपनी तमाम योजनाओं से इस समाज को जोड़कर अपने पक्ष में करना चाहती है. इस संबंध में भाजपा नेताओं का कहना है कि अभी भले ही इस समाज का वोट हमें कुछ कम मिल रहा हो, लेकिन आना वाले वक्त में पसमांदा मुसलमानों को समझ में आ जाएगा कि भाजपा ही उनकी हितैषी है, बाकी दलों ने उनके साथ सिर्फ छल किया है.



राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलशाद कहते हैं कि 'इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले काफी वक्त से मुस्लिम समाज सपा का समर्थन करता रहा है. यह भी सही है कि मौजूदा दौर में जातीय मुद्दे समाज में लगातार सामने आ रहे हैं और मीडिया में भी इन पर खूब चर्चा होती है. स्वाभाविक है कि जिस दल को बिना शर्त एक समाज ने लगातार समर्थन दिया हो, उससे अपने पक्ष को ठीक से रखने की अपेक्षा तो होती ही है. इस मामले में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव में बहुत फर्क है. अखिलेश यादव मुसलमानों के मुद्दे उठाने में हमेशा हिचकते हैं, जबकि मुलायम सिंह में हमेशा बेबाकी दिखाई दी है. इस सबके बावजूद अभी से यह कहना कि मुसलमान सपा के साथ नहीं जाएगा, जल्दबाजी वाली बात होगी. इस वर्ग को अब भी ऐसी पार्टी की तलाश है, जो भाजपा को पराजित कर सके. उत्तर प्रदेश में यह ताकत सिर्फ सपा के पास ही है. बसपा और कांग्रेस तो अपने अस्तित्व के लिए ही संघर्ष कर रही हैं, इसलिए अभी कुछ माह और इंतजार करना होगा. यदि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ गठबंधन बना, तो स्थितियां दूसरी होंगी.'

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लखनऊ : अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर उत्तर प्रदेश में तैयारियां अभी से तेज हो गई हैं. सीटों के लिहाज से सबसे बड़ा राज्य होने के कारण सभी दलों की निगाहें भी प्रदेश पर रहती हैं. निकाय चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सीटों समेत कई जगह यह देखने को मिला कि मुस्लिम मतदाताओं का रुझान सपा के स्थान पर कांग्रेस या ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम के पक्ष में रहा. निकाय चुनावों के बाद यह सवाल जोर पकड़ने लगा है कि आखिर लोकसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं का रुख किसके पक्ष में होगा.

2019 में दलीय स्थिति
2019 में दलीय स्थिति

प्रदेश में पिछले कई दशक से मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद समाजवादी पार्टी ही रही है. यह बात और है कि कभी भाजपा को हराने के लिए मुस्लिम मतदाताओं ने बहुजन समाज पार्टी या राष्ट्रीय लोक दल को वोट दिया हो, पर उनका स्थायी ठिकाना सपा ही रही है. पिछले डेढ़-दो वर्षों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे मुस्लिमों का समाजवादी पार्टी से भरोसा दरका है. इस समुदाय में अब कहीं न कहीं यह चर्चा उठने लगी है कि सपा उनके हितों की रक्षा नहीं कर पा रही है और न ही उनकी समस्याओं या विषयों को सही ढंग से उठाने का प्रयास होता है. वहीं एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम समुदाय के मसले जोर-शोर से उठाते हैं. संसद हो या जनसभा वह अपना नजरिया खुलकर रखते हैं और धीरे-धीर मुस्लिमों खासतौर पर युवाओं में अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं, वहीं तमाम अन्य लोगों को लगता है कि अब कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है, जो मुस्लिमों का कल्याण कर सकती है.

क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से दरक रहा है अल्पसंख्यकों का भरोसा (फाइल फोटो))
क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से दरक रहा है अल्पसंख्यकों का भरोसा (फाइल फोटो))

ऐसे कई कारण हैं, जो समाजवादी पार्टी से मुस्लिम समुदाय के मोहभंग के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हैं. यदि बड़े चुनावों को छोड़ दें तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव प्रचार करने शायद ही निकलते हों. लोकसभा और विधानसभा के उप चुनाव हों या निकाय चुनाव, अखिलेश यादव बिरले ही चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे. यही कारण है कि उनके द्वारा खाली की गई आजमगढ़ लोकसभा सीट और सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान द्वारा छोड़ी गई रामपुर लोकसभा सीट भाजपा ने छीन ली. निकाय चुनाव में भी वह एक भी मेयर प्रत्याशी नहीं जिता सके. इसे लेकर मुस्लिमों में खासा आक्रोश है. लोगों का कहना है कि जब आपका मुकाबला ऐसे दल से है, जो हमेशा लड़ाई के लिए तैयार रहता है, तो आपको भी अपनी तैयारी और प्रचार उसी स्तर पर करना होगा. मुस्लिम समुदाय में सबसे ज्यादा नाराजगी उन मुद्दों को लेकर है, जहां अखिलेश यादव खामोशी अख्तियार कर लेते हैं. अयोध्या मामला हो या आजम खान का प्रकरण, ऐसे तमाम विषय आए, जहां अखिलेश यादव से मुस्लिम समुदाय के लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं. सपा विधायक इरफान सोलंकी और सारस पालने वाले आरिफ के साथ प्रशासनिक रवैये पर अखिलेश की खामोशी भी इस समाज के लोगों को बहुत अखरी है.

2014 में दलीय स्थिति
2014 में दलीय स्थिति

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी पिछड़े मुसलमानों की राजनीति कर इस समाज पर दांव लगाना चाहती है. यही कारण है कि पसमांदा मुसलमानों को लेकर मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक लगातार सभाओं में चर्चा करते हैं और उनके साथ हुई नाइंसाफी का मुद्दा भी उठाते हैं. पसमांदा मुसलमानों में अंसारी, कसाई, तेली, धोबी, घोसी, जुलाहा आदि आते हैं, जिनकी तादाद उत्तर प्रदेश में करीब अस्सी फीसद है. 2022 में जब योगी आदित्यनाथ ने शपथ ली तो पसमांदा समाज से आने वाले दानिश अंसारी को अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री बनाया. वहीं प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष अशफाक सैफी, सुन्नी वक्फ बोर्ड के चेयरमैन जफर फारूकी, मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष इफ्तिखार अहमद आदि भी पसमांदा समाज से ही नाता रखते हैं. भाजपा अपनी तमाम योजनाओं से इस समाज को जोड़कर अपने पक्ष में करना चाहती है. इस संबंध में भाजपा नेताओं का कहना है कि अभी भले ही इस समाज का वोट हमें कुछ कम मिल रहा हो, लेकिन आना वाले वक्त में पसमांदा मुसलमानों को समझ में आ जाएगा कि भाजपा ही उनकी हितैषी है, बाकी दलों ने उनके साथ सिर्फ छल किया है.



राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलशाद कहते हैं कि 'इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले काफी वक्त से मुस्लिम समाज सपा का समर्थन करता रहा है. यह भी सही है कि मौजूदा दौर में जातीय मुद्दे समाज में लगातार सामने आ रहे हैं और मीडिया में भी इन पर खूब चर्चा होती है. स्वाभाविक है कि जिस दल को बिना शर्त एक समाज ने लगातार समर्थन दिया हो, उससे अपने पक्ष को ठीक से रखने की अपेक्षा तो होती ही है. इस मामले में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव में बहुत फर्क है. अखिलेश यादव मुसलमानों के मुद्दे उठाने में हमेशा हिचकते हैं, जबकि मुलायम सिंह में हमेशा बेबाकी दिखाई दी है. इस सबके बावजूद अभी से यह कहना कि मुसलमान सपा के साथ नहीं जाएगा, जल्दबाजी वाली बात होगी. इस वर्ग को अब भी ऐसी पार्टी की तलाश है, जो भाजपा को पराजित कर सके. उत्तर प्रदेश में यह ताकत सिर्फ सपा के पास ही है. बसपा और कांग्रेस तो अपने अस्तित्व के लिए ही संघर्ष कर रही हैं, इसलिए अभी कुछ माह और इंतजार करना होगा. यदि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ गठबंधन बना, तो स्थितियां दूसरी होंगी.'

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Last Updated : Jun 27, 2023, 9:12 PM IST
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