लखनऊ: साल 2022 में यूपी विधानसभा के चुनाव होने हैं. ऐसे में कोई भी पार्टी कोई कोर कसर छोड़ना नहीं चाह रही. बीएसपी प्रमुख मायावती भी इसी को ध्यान में रखकर सियासी समीकरण और गठजोड़ बनाने में लगी हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए एक बार फिर 2007 वाले फार्मूले पर अमल करने के मूड में है. मायावती अबकी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर अपनी चुनावी रणनीति को आगे बढ़ा रही हैं. इसको लेकर बसपा प्रमुख की तरफ से पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दिशा निर्देश भी दिए गए हैं. 2022 की सियासी जंग फतह करने के लिए कॉस्ट फॉर्मूला तैयार किया है, जिसके आधार पर बसपा अपने प्रत्याशी मैदान में उतारेगी.
इस बार के यूपी विधानसभा चुनाव के लिए बीएसपी ने जिला कोआर्डिनेटरों के बदले मुख्य सेक्टर प्रभारी बनाएं हैं. बसपा सेक्टर प्रभारी के जरिए ही मायावती 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों का चयन करेगी. इसी आधार पर बसपा विधायकी का टिकट बांटेगी.
उपचुनाव में असफलता के बाद से बसपा ने बदली थी रणनीति
बसपा सुप्रीमो मायावती ने नवंबर 2020 में हुए विधानसभा उपचुनाव के परिणामों से सबक लेते हुए अपनी रणनीति बदली थी और सोशल इंजीनियरिंग पर फोकस करने का मन बनाया था. इसी आधार पर बसपा अब अपनी चुनावी तैयारियां आगे बढ़ाएगी. मायावती ने कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिया है कि सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के तहत संगठन में सबको समायोजित किया जाए.
ओबीसी, ब्राह्मण पर फोकस
इस बार विधानसभा चुनावों के लिए मायावती ने कास्ट फार्मूला तैयार किया है. इस बार बीएसपी की रणनीति ओबीसी को प्राथमिकता देने की है. इस रणनीति के मुताबिक प्रदेश के हर जिले में एक से दो ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिया जा सकता है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक, इस बार बसपा सामान्य जाति में सबसे ज्यादा ब्राह्मण को तवज्जो देगी. इसके बाद उसने अपने आधार वोटबैंक दलित और मुस्लिम को टिकट देने की रणनीति अपनाई है. पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को दिशा निर्देश दिए हैं कि मुख्य रूप से ब्राम्हण, ओबीसी और दलितों के साथ अल्पसंख्यकों के साथ अपने कामकाज किये जाएं.
उत्तर प्रदेश में करीब 50 फीसदी से ज्यादाओबीसी मतदाता हैं, जो सियासी तौर पर निर्णायक भूमिका में हैं. सामान्य जातियों की बात की जाए तो उसमें सबसे ज्यादा ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ब्राह्मणों को खुश करना चाहती हैं.
योगी सरकार से ब्राह्मणों की नाराजगी का फायदा उठाने की भी कोशिश
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में ब्राह्मण उत्पीड़न की बात कही जाती है और काफी संख्या में ब्राह्मणों की नाराजगी समय-समय पर सामने भी आती रही है. भाजपा के अंदर विधायक और अन्य नेताओं की तरफ से इसको लेकर सवाल भी उठाए जा चुके हैं. ऐसे में बसपा सुप्रीमो मायावती ब्राह्मणों को चुनाव में कैंडिडेट बनाकर भाजपा के वोटबैंक में सेंधमारी करना चाह रही हैं.
ब्राह्मणों के साथ होने से मिल सकता है बसपा को फायदा
अगर बसपा को 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह ही 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों का साथ मिल सके तो इससे उसे लाभ मिलेगा. मायावती को यह पता है कि सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने में ब्राह्मण एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं. यही कारण है कि मायावती मे तमाम परिस्थितियों और समीकरणों का आकलन करते हुए चुनावी मैदान में उतरने का मन बनाया है.
2007 में हिट रहा था ये फार्मूला
2007 के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा ने बेहतर रणनीति बनाई थी. तब सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर चुनाव मैदान में उतरने का फायदा बहुजन समाज पार्टी को मिला था. 2007 के चुनाव में बसपा ब्राम्हण, दलित, अल्पसंख्यक वर्ग को साथ लेकर चुनाव मैदान में उतरी थी और टिकट में बराबर की भागीदारी देते हुए अपने इस एजेंडे को आगे बढ़ाया. इसका असर यह रहा कि 2007 में बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही और बसपा सुप्रीमो मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी.
मायावती ने 2007 में यूपी के चुनाव में 403 में से 206 सीटें जीतकर और 30 फीसदी वोट के साथ सत्ता हासिल की थी, मायावती की इस जीत ने देश में तहलका मचा दिया था. बसपा की ये जीत मायावती की सोती समझी रणनीति का नतीजा थी. 2007 में माया ने ओबीसी, दलितों, ब्राह्मणों, और मुसलमानों के साथ एक तालमेल बनाया था. इसी फॉर्मूले को फिर से जमीन पर उतारने की कवायद में बसपा है.
खिसका है बसपा का जनाधार
मायावती ने राजनीति में अपनी शुरुआत बड़े दलित जनाधार के साथ की थी, लेकिन 2012 के बाद से बसपा का जनाधार लगातार खिसकता गया. 2012 में मायावती ने अपनी सत्ता गंवाई और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता भी नहीं खुला. 2017 में पार्टी 20 सीटों के नीचे सिमट गई, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में वह सपा के साथ गठबंधन कर 10 सीटें जीतने में सफल रही. इस तरह अब बसपा का आधार जाटव समुदाय और कुछ मुस्लिम वोटो में सिमट गया है.
बसपा का ये है प्लान
ऐसे में अब बसपा अपने खोए हुए जनाधार को वापस लाने की कवायद में है. करो या मरो की इस लड़ाई में मायावती ओबीसी, ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोटों का फॉर्मूला बनाना चाहती हैं. इस फॉर्मूले को ध्यान में रखते हुए सेक्टर प्रभारी प्रत्याशियों का चयन कर रहे हैं.
क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने चुनाव को लेकर काम करना शुरू कर दिया है. इसी कारण उन्होंने अति पिछड़ी जाति से आने वाले भीम राजभर को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. इससे वह यह संकेत दे रही हैं कि जो गैर यादव अति पिछड़ा समाज है उसे वह साथ लेकर आगे बढ़ना चाहती हैं. इसके साथ ही ब्राह्मण मतदाता भी पिछले कुछ समय से योगी सरकार से नाराज हैं. ऐसे में उस वर्ग को भी मायावती अपने साथ रख कर अपनी चुनावी तैयारियां आगे बढ़ा रही हैं. मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर ब्राह्मण, दलित, अति पिछड़े और अल्पसंख्यकों को साथ लेकर अपनी चुनावी तैयारियां कर रही हैं. इस तरह उन्हें कामयाबी भी मिल सकती है. यही कारण है कि वह इसी आधार पर अपनी चुनावी तैयारियों को आगे बढ़ा रही हैं.