लखनऊ: हिन्दुस्तान की आजादी के लिए न जाने कितने वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी. कुछ के नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हुए तो कई अनाम ही वीरगति को प्राप्त हो गए. लेकिन, आज भी कुछ ऐसे निशां मौजूद हैं, जो उनकी वीरता और देश के प्रति उनके समर्पण के भाव को जन-जन तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं. खैर, आज हम बात करेंगे हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई की गवाह रही राजधानी लखनऊ की उन ऐतिहासिक इमारतों की, जिनके जिक्र मात्र से अंग्रेजी क्रूरता और क्रांतिकारियों के अद्मय साहस को महसूस किया जा सकता है. वैसे तो लखनऊ की इमारतों का इतिहास के पन्नों में अलग ही जिक्र है. इमामबाड़ा से लेकर रेजीडेंसी और टीले वाली मस्जिद से लेकर क्लॉक टावर ये सभी स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के गवाह हैं, जो आज भी अमिट निशां के तौर पर मौजूद हैं. खैर, यहां एक ऐसा इमली का पेड़ भी है, जिस पर 40 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी.
40 क्रांतिकारियों को दी गई थी फांसी: इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि साल 1857 में लड़ी गई आजादी की पहली लड़ाई में बेगम हजरत महल लीडरशिप के लिए सामने आई थी. लेकिन तब कई क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने पकड़ लिया था. जिसमें मौलवी बख्श, हाफिज अब्दुल समद, मीर अब्बास, मीर कासिम अली और मम्मू खान शामिल थे. इन्हें अंग्रेजों ने इसी इमली के पेड़ पर फांसी दे दी थी. उन्होंने बताया कि उस समय ये पेड़ केंद्र में हुआ करता था और यहीं पर फांसी की सजा दी जाती थी.
लखनऊ की पहचान इमामबाड़ा: लखनऊ की पहचान चौक स्थित रूमी दरवाजे से होती है. वहीं, इससे लगे बड़े इमामबाड़ा और थोड़ी दूरी पर छोटा इमामबाड़ा स्थित है. आज ये स्थान पर्यटन स्थल के रूप में चिन्हित हैं. यहां रोजाना हजारों लोग घूमने फिरने के लिए आते हैं. लेकिन इसका एक अलग ही इतिहास है. रूमी दरवाजा इमामबाड़े के बाहर पुराने लखनऊ का प्रवेश द्वार माना जाता है. यह करीब 60 फीट ऊंचा है, जिसमें तीन मंजिल है. इस दरवाजे से आप नवाबों के शहर का भरपूर नजारा ले सकते हैं.
वहीं, इमामबाड़ा की इमारतें अद्भुत वास्तुकला से परिपूर्ण है. जिसे देखकर आधुनिक वास्तुकार भी हैरत में पड़ जाते हैं. इसका निर्माण आसफ़ुद्दौला ने 1784 में कराया था और किफायतउल्ला इसके संकल्पकार थे. इमामबाड़े का केंद्रीय कक्ष करीब 50 मीटर लंबा और 16 मीटर चौड़ा है. उन्होंने बताया कि यह जानकर लोगों को हैरानी होगी कि यह पूरी मीनार बिना किसी पिलर के खड़ी है. यह छत करीब 15 मीटर ऊंची है. साथ ही यह हॉल लकड़ी, लोहे और पत्थर के बीम के बाहरी सहारे के बिना खड़ी विश्व की सबसे बड़ी संरचना है. जिसे किसी बीम के बिना ही ईटों को आपस में जोड़कर खड़ा किया गया है.
इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि इमामबाड़े में तीन विशाल कक्ष हैं. जिनके दीवारों के बीच लंबी गलियां हैं, जो करीब 20 फीट चौड़ी हैं और इसकी छत पर जाने के लिए चार रास्ते हैं. ऐसे में आप समझ सकते हैं कि जिस छत पर जाने को चार अलग-अलग सीढ़ियां बनाई गई हो, वहां इंसान तो भटक ही जाएगा. इसलिए आम लोग इसे भूल भुलैया के नाम से भी जानते हैं.
क्रांतिकारियों ने कर लिया था रेजीडेंसी पर कब्जा: उन्होंने बताया कि रेजीडेंसी का निर्माण नवाब आसफ़ुद्दौला के शासनकाल में हुआ था. नवाब ने अंग्रेजों की सुविधा को देखते हुए उन्हें दरिया के किनारे एक ऊंचे टीले पर बसाया था. अट्ठारह सौ में नवाब सआदत अली खान के शासन में रेजीडेंसी बनकर तैयार हुई. यहां की इमारतें लखौरी ईट और सुर्ख चूने से बनी है. 1857 में रेजीडेंसी से स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई शुरू हुई थी. उस समय तमाम अंग्रेजी महिलाओं और बच्चों ने इसी तहखाने में शरण ली थी.
इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि इसी जगह पर 2 जुलाई, 1857 को सर हेनरी लॉरेंस को क्रांतिकारियों ने गोली मारी थी. स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के दौरान 86 दिन तक क्रांतिकारियों ने यहां कब्जा कर लिया था और आज भी यहां की मीनारों पर गदर के कई निशां देखने को मिलते हैं. रेजीडेंसी के अंदर बैंक्वेट हॉल, सेंट मैरी चर्च, ट्रेजरी हाउस, हेनरी लॉरेंस स्मारक आज भी बने हुए हैं.
आज यहां होती है फिल्मों की शूटिंग: इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि राजधानी लखनऊ में तमाम धरोहरें हैं, जिन्हें बचाकर रखना हमारी जिम्मेदारी है. भले ही भारतीय पुरातत्व विभाग इसे संरक्षित रखने का कार्य करती है. लेकिन, इसकी स्वच्छता का ख्याल रखना हमारी और आपकी भी जिम्मेदारी है. इतिहास के पन्नों में दर्ज लखनऊ की धरोहरें अपने आप में खास हैं. आज यहां की धरोहरों रूमी दरवाजा, छोटा इमामबाड़ा, बड़ा इमामबाड़ा, रेसीडेंसी और क्लॉक टावर का इस्तेमाल फिल्मों की शूटिंग प्री वेडिंग शूट फोटोशूट में भी खूब होता है.
ऐसी ही जरूरी और विश्वसनीय खबरों के लिए डाउनलोड करें ईटीवी भारत ऐप