लखनऊ : राजधानी लखनऊ में एक नहीं बल्कि तमाम ऐतिहासिक धरोहर हैं जिनका ताल्लुक 1857 में हुई गदर की लड़ाई से है. कई धरोहरें ऐसी हैं जिन्हें देखकर आप भी पूराने लखनऊ में पहुंच जाएंगे. सभी धरोहरों की वास्तुकला शिल्पकला अद्भुत व निराली है. लखनऊ की धरोहर में जिस तरह से वास्तु कला और नक्काशी की गई है, उन्हें देखने के लिए देश-विदेश से पर्यटक आते हैं. इसके अलावा आर्किटेक्ट की पढ़ाई कर रहे छात्र-छात्राओं को भी उनके कॉलेजों से लखनऊ के धरोहरों को दिखने के लिए जरूर आते हैं. बहरहाल यह धरोहरें धीरे-धीरे अपनी सुंदरता होती जा रही हैं. पुराने समय में लखनऊ की धरोहरों की अलग ही रंगत होती थी. वर्तमान में न तो इन्हें संरक्षित रखा गया है और न ही इनके सौंदर्यीकरण पर कोई काम किया गया है.
अकाल राहत परियोजना में बना था भूल भुलैया : इतिहासकार संजय चौधरी ने बताया कि अशिफुद्दौला ने अकाल राहत परियोजना के तहत सन 1784 -94 के मध्य बनवाया था. इसे भूल भुलैया के नाम से भी जाना जाता है. यह विशाल गुम्बदनुमा हॉल 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है. उस जमाने में इसे बनाने में पांच से दस लाख रुपये की लागत आई थी. इस इमारत के पूरा होने के बाद भी नवाब इसकी साज सज्जा पर ही चार से पांच लाख रुपये सालाना खर्च करते थे.
रूमी दरवाजे का भी खो गया आकर्षण : लखनऊ की पहचान ही रूमी दरवाजे से है. दूर दराज से पर्यटक रूमी दरवाजे को देखने के लिए आते हैं. इमामबाड़े के साथ रूमी दरवाजे का रंग भी पूरी तरह से बदल दिया गया है. इस समय रूमी दरवाजे का रंग पीला कर दिया गया है जो देखने में पहले की तुलना में काम जंच रहा है. इतिहासकार संजय चौधरी ने बताया कि रूमी दरवाजा एक विशाल अलंकृत संरचना है जो इसके ऊपरी भाग में एक आठ मुखी छत्र द्वारा चिह्नित है. पुराने समय में इसका उपयोग पुराने लखनऊ शहर के प्रवेश द्वार को चिह्नित करने के लिए किया गया था. यह अब लखनऊ शहर के प्रतीक के रूप में अपनाया गया है. 60 फीट ऊंचे रूमी दरवाजे का निर्माण 1784-86 में नवाब आसफ़-उद्-दौला द्वारा करवाया गया था. इसके बारे में कहा जाता है कि तुर्की शैली की डिजाइन में इसका निर्माण हुआ है. इसे तुर्किश गेट के रूप में भी जाना जाता है. क्योंकि इसकी डिज़ाइन तुर्की के कांस्टेनटिनोपल के समान है.
रेजीडेंसी की हालत खराब : 1857 की लड़ाई में रेजीडेंसी का हम किरदार रहा है. यह एक ऐसे धरोहर है जहां पर स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई भी हुई थी. अब यहां पर सभी धरोहर खंडहर हो चुकी हैं. स्कूली बच्चे पिकनिक मनाने के लिए जाते हैं. रेजीडेंसी की दीवारों पर अराजकतत्वों ने अजब गजब खिलवाड़ किया है. पूरी दीवारों पर अनाप-शनाप लिखा हुआ है. रेजीडेंसी का निर्माण 1774 में नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेज रेजीडेंट के लिए कराया था. इसलिए इसे रेजीडेंसी कहा जाता है. नवाब आसफ़ुद्दौला ने 1775 में अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित करने के बाद रेजीडेंट के निवास के लिए इसका निर्माण शुरू किया और नवाब सआदत अली खां ने इसे पूरा किया.
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