लखनऊः पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के मुखिय़ा अखिलेश यादव का इस बार विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला कोई नया नहीं है. अगर यूपी के पिछले मुख्यमंत्रियों के चुनावी इतिहास पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, पूर्व सीएम और बसपा सुप्रीमो मायावती, सीएम योगी आदित्यनाथ भी बिना विधानसभा का चुनाव लड़े सीधे सीएम बन गए थे. हालांकि सीएम बनने के बाद कुछ नेताओं ने विधानसभा की सदस्यता हासिल करने के लिए चुनाव लड़ा और कुछ नेता विधान परिषद का सदस्य बनकर ही सत्ता चलाते रहे. चलिए जानते हैं अखिलेश के इस फैसले की वजहों और पुराने चुनावी इतिहास के बारे में.
अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और वह लगातार अपनी चुनावी तैयारियों को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. मौजूदा समय में वह अपनी पार्टी के सबसे बड़े स्टार प्रचारक हैं. जानकार बताते हैं कि अखिलेश यादव अगर खुद चुनाव मैदान में उतरेंगे तो उन्हें कम से कम कुछ न कुछ समय तो अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए देना पड़ेगा. चुनाव प्रचार भी करना पड़ेगा. लोगों से जनसंपर्क और संवाद करते हुए वोट भी मांगने पड़ेंगे. ऐसे में जो समय वह प्रदेश की अन्य विधानसभा सीटों पर चुनाव प्रचार में दे सकते हैं वह अपने क्षेत्र में देने के लिए बाध्य होंगे. इन्हीं सब परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने फिलहाल विधानसभा चुनाव 2022 से खुद को अलग कर लिया है.
सपा मुखिया अखिलेश यादव अभी आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र से लोकसभा सांसद हैं. इससे पहले जब 2012 में समाजवादी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी तब वह मुख्यमंत्री बने थे और बाद में विधानसभा चुनाव लड़ने के बजाय उच्च सदन यानी विधान परिषद से निर्वाचित हुए और 5 साल तक सरकार चलाने का काम किया. अखिलेश यादव अपनी सरकार के कामकाज और भाजपा सरकार के कामकाज की तुलना करते हुए जनता से समर्थन मांगते हुए समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने का आह्वान कर रहे हैं.
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यह है संवैधानिक व्यवस्था
संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत बात की जाए तो कोई भी मुख्यमंत्री या मंत्री पद की शपथ लेने के बाद 6 महीने तक उसे किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित होना जरूरी होता है. ऐसे में अखिलेश यादव एक सोची-समझी रणनीति के साथ चल रहे हैं और उत्तर प्रदेश में अगर समाजवादी पार्टी को जनसमर्थन मिला, सरकार बनी तो उन्हें यह पता है कि वह या तो चुनाव लड़ सकते हैं या फिर विधान परिषद में भी मनोनीत हो जाएंगे. इन्हीं तमाम वजहों को देखते हुए वह चुनाव नहीं लड़ने का फैसला कर रहे हैं.
ये प्रमुख चेहरे जो सीएम बनने के बाद हुए सदस्य निर्वाचित
- बात अगर पिछले करीब दो ढाई दशक की करें तो ऐसे कई प्रमुख मुख्यमंत्री हुए हैं जो मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा या विधान परिषद के लिए 6 महीने की अवधि के दौरान निर्वाचित हुए. बात शुरू करते हैं वर्ष 2000 से जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने शपथ ग्रहण की थी. इसके बाद वह बाराबंकी की हैदरगढ़ विधानसभा सीट से चुनाव लड़े और निर्वाचित हुए. कांग्रेस पार्टी के पुत्तू अवस्थी ने अपनी सीट राजनाथ सिंह के लिए खाली की थी और राजनाथ सिंह हैदरगढ़ से चुनाव लड़े और निर्वाचित हुए और अपनी सरकार चलाई.
- वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में जब उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी तो पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती खुद मुख्यमंत्री बनीं. उस समय हुए चुनाव में मायावती किसी भी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ी थी, उनकी पार्टी बहुमत में आई और उन्होंने खुद मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की. इसके बाद वह विधानसभा चुनाव लड़ने के बजाय विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुई थी और पांच साल तक सरकार चलाई.
- वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की साइकिल सत्ता की सियासी कुर्सी तक जा पहुंची और अखिलेश यादव को मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी विरासत में सौंप दी. उस विधानसभा चुनाव में जनता ने अखिलेश यादव की साइकिल को पसंद किया गया और बहुमत दिया गया. अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने तो वह किसी भी विधानसभा सीट से निर्वाचित नहीं हुए थे. मायावती की तरह अखिलेश यादव भी छह महीने के अंदर विधानसभा चुनाव लड़ने के बजाय एमएलसी बनकर उच्च सदन के सदस्य हुए और 5 साल तक अपनी पूरी सरकार चलाते रहे.
- वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला. जनता ने केंद्र के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी को बहुमत देने का काम किया. इसके बाद बीजेपी नेतृत्व में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर गोरक्ष पीठाधीश्वर और गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ को बिठाने का काम किया. योगी आदित्यनाथ भी किसी विधानसभा सीट से चुनाव नहीं लड़े थे. उन्होंने भी मायावती और अखिलेश यादव की तरह विधानसभा चुनाव लड़ने के बजाय उच्च सदन जाना बेहतर समझा और पार्टी ने उन्हें विधान परिषद भेजा.
इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार प्रद्युम्न तिवारी कहते हैं कि अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और वह चुनाव प्रचार भी करेंगे. ऐसे में यह एक बड़ी वजह हो सकती है कि वह खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे. अब वह निवार्चन क्षेत्र में समय देने के लिए बाध्य नहीं होंगे और वही समय वह अपने प्रत्य़ाशियों की विधानसभाओं को देंगे. उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह, मायावती, अखिलेश यादव, योगी आदित्यनाथ सीएम बनने के बाद सदन के सदस्य के रूप में बाद में निर्वाचित हुए थे. संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत मुख्यमंत्री या कोई भी मंत्री शपथ ग्रहण करने के बाद 6 महीने तक उसे किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित होने की बाध्यता रहती है. कोई विधानसभा चुनाव लड़ता है या फिर एमएलसी बनता है.
उधर, सपा मुखिया अखिलेश यादव के इस फैसले को लेकर सपा के प्रवक्ता फखरुल हसन चांद ने कहा कि अखिलेश यादव गरीबों के नौजवानों के किसानों की आवाज हैं. वह 2012 का विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़े थे और मुख्यमंत्री भी बने थे. हम समझते हैं कि आज देश में नौजवानों की, अगड़ों की, पिछड़ों की दलितों की सब की आवाज अखिलेश यादव हैं. वह पूरे उत्तर प्रदेश में पार्टी का प्रचार करेंगे और 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव एक बार फिर मुख्यमंत्री बनेंगे।