लखनऊ: नवाबों के शहर लखनऊ को बागों के शहर के नाम से भी जाना जाता है. लखनऊ में आलमबाग, कैसरबाग, चारबाग, सिकंदराबाद, मूसाबाग, बादशाहबाग समेत कई ऐसे इलाके हैं जो कई इतिहास को समेटे हुए हैं. इन्हीं में से एक है विलायती बाग. यह विलायती बाग अवध के नवाबों और अंग्रेज महिलाओं की आशिकी और मोहब्बत का गवाह है.
यूरोपीय पत्नी के लिए बनवाया था
विलायती बाग के बारे में इतिहासकारों का कहना है कि नवाब गाजी उद्दीन हैदर ने 1814 में इस उद्यान का निर्माण अपनी एक प्रिय यूरोपिय पत्नी के लिए किया था. यह बाग सदर कैंट स्थित प्रसिद्ध दिलकुशा गार्डन से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इस बाग में एक प्रवेश द्वार है जो गोमती नदी की ओर खुलता है, जहां वह अपने बेगम व विदेशी मेहमानों के साथ सुकून भरे पल बिताते थे. पुराने समय में देशी-विदेशी पौधों का एक आकर्षक केंद्र रहा यह बाग अब एक कब्रिस्तान में बदल गया है. इसमें तीन अंग्रेजी सैनिकों हेनरी पी गार्वी, कैप्टन डब्लू हेली हचिंसन और सार्जेंट एस न्यूमैन की कब्रें हैं. इस सुंदर बाग ने 1857 की लड़ाई के कई जख्मों को झेला है. जिसके कारण अब यह क्षतिग्रस्त स्थिति में है.
बताया जाता है विलायती बाग के प्रवेश गेट पर 25 सीढ़ियां हैं, जो जमीन के नीचे छुपी हुई थी जिसे भारतीय पुरातत्व विभाग ने खोज निकाला था. बताया जाता है कि इस भाग से दिलकुशा होते हुए हजरतगंज स्थित शाहनजफ तक सुरंग भी हुआ करती थी. इसमें चार सुरंगे बनाई गई थीं. चारों सुरंगों में केवल एक सुरंग का रास्ता ही सही था बाकी के तीन गलत थे. इन सुरंगों को अब पूरी तरीके से बंद कर दिया गया है.
विलायती बाग से सटी एक हजरत कासिम शहीद बाबा की दरगाह भी है. इस दरगाह पर सालाना उर्स मनाया जाता है. दरगाह के पास के लोग बताते हैं कि कासिम बाबा 1029 में अरब से लखनऊ आए थे. अन्याय और जुल्म के खिलाफ संघर्ष करते हुए उन्होंने दिलकुशा के जंगल में शहादत पाई थी. दरगाह पर दूर-दूर से वह बड़े बड़े लोग मन्नतें मांगने आते हैं. बताया जाता है कि सालाना उर्स में मौलाना से लेकर सरकार में शामिल कई मंत्री नेता तक शामिल होते हैं. खंडहर पड़े इस विलायती बाग को सजाने संवारने का जिम्मा एएसआई ने अपने हाथों में लिया है. विलायती बाग के खोए हुए वैभव को वापस लाने के लिए 25 लाख की धनराशि भी स्वीकृत की गई थी.
जानकार नवाब जफर मीर अब्दुल्लाह बताते हैं कि नवाब आसिफ उद दौला के समय में यहां कोठियां बनवाई गईं थीं. इन कोठियों में बेगम व मेहमान सैर सपाटे के लिए जाया करते थे. 1857-58 में जब अंग्रेज यहां पर काबिज हो गए तो 1858 में वह जमीन रेलवे ट्रैक के लिए एक्वायर की गई.