लखनऊ : प्रदेश सरकार ने अपने ताजा आंकड़ों में बताया है कि राज्य में 65000 से ज्यादा झीलों और तालाबों का अस्तित्व समाप्त हो चुका है, हालांकि हालात इससे कहीं भयावह हैं. यदि हम आंकड़ों की बात करें तो राज्य के 75 जिलों में अट्ठारह मंडल 316 तहसीलें और 16 नगर निगम हैं. इनके साथ ही 106774 गांव और 338 नगरपालिका है. हमारा प्रदेश जनसंख्या के आधार पर सबसे बड़ा और क्षेत्रफल की दृष्टि में चौथा राज्य है. यानी हमारी आबादी देश की आबादी का 16.50 प्रतिशत है. राज्य की इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद जल संरक्षण के लिए सरकारों को जो करना चाहिए था उतना नहीं किया. स्थिति यह है कि अब अधिकांश गांव में पक्के मकान ही बनते हैं. स्वाभाविक है इससे तालाबों से मिट्टी निकालने की प्रक्रिया पूरी तरह से बंद हो गई. अब इन्हीं तालाबों पर अतिक्रमण और अवैध कब्जे हैं.
पूरे प्रदेश की बात की जाए तो 65000 क्या हर गांव में एक-दो तालाबों पर अवैध कब्जे जरूर पाए जाएंगे. ऐसा कोई उपाय अब तक नहीं निकाला जा रहा जिससे तालाबों का संरक्षण हो और वह भूगर्भ जल भी भरते रहें. अतिक्रमण के कारण वह मार्ग भी बंद हो गए जिनसे रिस कर पानी तालाबों तक पहुंचता था. गांव-गांव इतने झमेले हैं कि इन पचड़ों में कोई भी अधिकारी पढ़ना नहीं चाहता, क्योंकि जहां एक गांव में कार्रवाई शुरू होती है, तत्काल राजनीतिक दबाव आने शुरू हो जाते हैं. तालाबों का अस्तित्व मिटने और परंपरागत खेती छोड़ देने से भूगर्भ जल की स्थिति बहुत खराब हो गई है. हाल यह हो गया है कि लगभग पचास हजार वर्षों से जो पानी भूगर्भ में संरक्षित था अब हम उसका उपयोग करने लगे हैं. यदि हम धरती से पानी सिर्फ निकालते रहेंगे और उसकी कोख नहीं भरेंगे, तो एक-दो पीढ़ी के बाद स्थितियां बहुत विकट और भयावह हो जाएंगी. दुखद बात है कि इन स्थितियों की ओर किसी को चिंता नहीं है.
उत्तर प्रदेश में कोई भी व्यक्ति जिसका प्लाट कितना ही छोटा क्यों न हो बोरिंग कराकर सबमर्सिबल से पूरे इलाके का पानी निकाल सकता है. उसे रोकने का कोई कानून नहीं है. इसी कारण राजधानी लखनऊ के ही अनेक क्षेत्रों में लोग छोटे-छोटे प्लाटों से भूगर्भ का पीने लायक पानी टैंकरों से भवन निर्माण के लिए भेजते हैं. ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी अधिकारियों और नेताओं को नहीं है. जानकारी होने के बावजूद कोई इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता. आप खुद सोचिए कि जब हमारे जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी पेयजल के विषय में ही कोई चर्चा नहीं करेगा, जरूरी कानून नहीं बनेंगे तो इससे स्थिति कहां पहुंच जाएगी. आज नदियों का हाल आप देख ही रहे हैं. कई नदियां करीब समाप्त हो गई हैं और इनमें बहाव बिल्कुल नहीं है. गोमती और इसकी सहायक नदियों का भी यही हाल है. इन नदियों को पीछे से पानी ही नहीं मिल रहा, फिर इनमें बहाव कहां से आएगा. इसके बाद भी गोमती जैसी नदियों पर दबाव है, राजधानी लखनऊ के निवासियों की बड़ी संख्या पेयजल आपूर्ति करने का. दुखद बात यह है कि सरकार सर्वे तो करा लेती है, लेकिन जरूरी कदम उठाने में उसे बहुत वक्त लग जाता है.
तालाबों के संरक्षण और भूगर्भ जल के लिए काम करने वाले डॉ विवेक कुमार कहते हैं कि 'कई ऐसे उपाय हैं, जिनसे तालाबों का अस्तित्व बचा रह सकता है, भूगर्भ जल की पूर्ति हो सकती है, मवेशियों को साल भर पीने का पानी मिल सकता है और सरकार की आमदनी भी बढ़ सकती है. वह कहते हैं इस विषय में कभी सोचा ही नहीं जाता. डॉक्टर विवेक कहते हैं हरे क्षेत्र में दस-पंद्रह किलोमीटर की परिधि में ईट भट्टे होते हैं. यदि प्रशासन इस परिधि के तालाबों की पैमाइश करा कर भट्ठा संचालकों को एक सीमा तक मिट्टी खनन की अनुमति दे दे, तो यह अनावश्यक रूप से खेती की भूमि बर्बाद नहीं करेंगे, बल्कि आसपास के तालाबों से इन्हें पर्याप्त मिट्टी मिल जाएगी और सरकार को राजस्व भी. वह कहते हैं कि उपाय और भी हो सकते हैं, इसके लिए सरकार को आगे आना होगा.'
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