मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ।
उसको भी न्योछावर कर दूं,
कुरूपति के चरणों में धर दूं।
रामधारी सिंह दिनकर की जी की ये पंक्तियां मित्रता को बिल्कुल सही परिभाषित करती हैं. ये पंक्तियां उस समय की हैं जब भगवान श्री कृष्ण, कर्ण को दुर्योधन का साथ छोड़कर पांडवों के खेमें में शामिल होने का प्रस्ताव देते हैं. लेकिन कर्ण ने किसी भी स्थिति में अपने मित्र का साथ न छोड़ने की बात कहते हुए उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.
अगर अतीत के कुछ पन्ने पलटें तो हमारे ग्रंथों में भी दोस्ती की कई कहानियां हैं, चाहे वह राम और सुग्रीव की हो या फिर सीता और त्रिजटा की और भगवान श्री कृष्ण और सुदामा के दोस्ती की कहानी की, जिसकी लोग आज भी मिसालें देते हैं. जिन्होंने एक दूसरे की पद और गरिमा को भुलाकर दोस्ती की एक नई इबारत लिखी. इनकी दोस्ती ने हमें सिखाया कि दोस्ती में पद और प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं होता. दोस्ती को एक शब्द में समेटना आसान नहीं साथ ही ये रिश्ता किसी दिन का मोहताज भी नहीं. इस पर्व को तो हर रोज मानाना चाहिए.
आधुनिक दौर में दोस्ती की तासीर और तौर-तरीके जरूर बदले हैं, लेकिन दोस्ती के मायने आज भी वहीं हैं. आज भी दोस्ती की दास्तां अखबारों की सुर्खियां बनती हैं.