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UP Assembly Election 2022: इन 4 माफियाओं से मीलों की दूरी बना रहे हैं राजनीतिक दल

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपराध जगत की तूती बोलती है. कई ऐसे माननीय हैं, जिन्होंने पहले तो अपराध की दुनिया में अपने नाम का डंका बजवाया और फिर नेता बनकर वो राजनीति का बेड़ा गर्क कर रहे हैं.

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UP Assembly Election 2022
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Published : Feb 9, 2022, 4:02 PM IST

लखनऊः सूबे में राजनीति और अपराध जगत का बेहद ही करीबी रिश्ता रहा है. यहां की सियासी जमीन पर कई ऐसे नेताओं ने राज किया है, जो अपराध की दुनिया के बेताज बादशाह रहे हैं. लेकिन 2022 के विधान सभा चुनाव में ये अपराध जगत के बेताज बादशाह कहीं गुम है. अब इसे योगी सरकार के बुल्डोजर स्कीम का असर कहें या दामन को बेदाग रखने की रणनीति जिसके चलते कोई भी राजनीतिक दल न ही इन्हें टिकट देने को तैयार है और न ही इनका चुनाव में फायदा लेने के मूड में ही है.

80 के दशक में माफियागिरी शुरु करने वाले बाहुबलियों ने 2012 विधानसभा चुनाव तक अपनी धमक बरकरार रखी थी. लेकिन 2017 में योगी सरकार बनने के बाद उत्तर प्रदेश को योगी आदित्यनाथ ने अपने बुल्डोजर स्कीम के तहत ये एहसास दिला दिया कि माफिया का राजनीति में कोई काम नहीं वो जेल में ही ठीक हैं. जिसका नतीजा ये है कि मुख्तार, अतीक और विजय मिश्रा जैसे लोग जिन्होंने राजनीति का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और अपने बाहुबल से विधान भवन के भीतर बैठने का जुगाड़ बना रखा था, आज की तारीख में वो गायब है. यही नहीं राजनीतिक दल भी इन जैसे माफिया से मीलों की दूरी बना कर चल रहे हैं और नाम लेने से भी कतरा रहे हैं. अखिलेश यादव को ही ले लिजिए, इन्होंने 2012 में अपने मंत्रिमंडल में रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को मंत्री बनाया. वहीं ये पूछ रहे हैं कि कौन राजा भैया. यही नहीं मायावती भी अपने ही विधायक मुख्तार अंसारी के नाम से मुंह फेर ले रही हैं. हालांकि बड़ी पार्टियों के छोटे सहयोगी दल इन माफियाओं के प्रति के गाहे-बगाहे नरमी दिखा टिकट का ऑफर दे रहे हैं. जिसमें समाजवादी पार्टी के साथी ओम प्रकाश राजभर का मुख्तार के लिए प्रेम उमड़ रहा है, तो बीजेपी के सहयोगी संजय निषाद धनंजय सिंह जैसों की पैरवी कर रहें हैं.

राजनीतिक पंडित इसे योगी सरकार द्वारा माफियाराज पर की गई कार्रवाई का असर मान रहे हैं, वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र त्रिपाठी बताते हैं कि 2017 के बाद से जिस तरह यूपी में बीजेपी सरकार ने माफिया और अपराधियों पर कार्रवाई की है. साथ ही ये प्रचार भी किया है कि इन सभी का किसी न किसी राजनीतिक दल से संबंध रहा है. ऐसे में इस बार के चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियां खुद का दामन साफ रखने की कवायद कर रही हैं.

ये वे बाहुबली चेहरे हैं जिससे राजनीतिक पार्टियों ने किनारा किया हुआ है..

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मुख्तार अंसारी

मुख्तार अंसारी

बांदा जेल में बंद माफिया डॉन मुख्तार अंसारी मौजूदा समय में बहुजन समाज पार्टी के विधायक हैं. 1996 में मुख्तार बसपा की टिकट पर मऊ सदर से विधानसभा का चुनाव जीते थे. इसके बाद 2002 और 2007 में इसी सीट से निर्दलीय चुनाव जीते. जबकि 2012 में अपनी ही पार्टी कौमी एकता से जीत हासिल की थी. 2017 के चुनाव में अपनी कौमी एकता दल का बसपा में विलय किया गया और 2017 में इसी सीट से बसपा की टिकट पर जीत हासिल की. जिस बसपा से वो विधायक हैं, उसी की मुखिया मायावती समेत सभी बड़े दल उनसे दूरी बनाए हुए हैं. लेकिन एक सच यह भी है कि पूर्वांचल के मुसलमानों के बीच मुख्तार की लोकप्रियता है. वे मऊ के आस पास के कई जिलों की विधानसभा सीटों को जिताने की ताकत भी रखते हैं. हालांकि मुख्तार के बड़े भाई सिबगतुल्लाह अंसारी समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर चुके हैं.

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अतीक अहमद
अतीक अहमद

अतीक अहमद अपने जिले से 1000 किलोमीटर दूर अहमदाबाद जेल में बंद हैं. किसी जमाने में अतीक को हाथों हाथ लेने वाले दल उनका नाम लेने से भी गुरेज कर रहे हैं. 2022 के चुनाव में न ही अतीक का नाम है और न ही वर्चस्व. इसीलिए पूर्वांचल की 14 सीटों पर वर्चस्व रखने वाले अतीक अहमद को इस चुनाव में कोई भी राजनीतिक दल लिफ्ट नही दे रहे हैं.

बाहुबली माफिया अतीक अहमद इलाहाबाद के शहर पश्चिमी सीट से 5 बार विधायक रहे हैं और एक बार सांसद भी चुना जा चुका है. अतीक अहमद ने पहला चुनाव 1989 में इलाहाबाद पश्चिमी सीट से निर्दलीय लड़ कर जीता था. इसके बाद 1993 तक लगातार 3 बार निर्दलीय इसी सीट से जीतते रहे. इसके बाद 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीते. 2002 में अतीक अहमद ने अपना दल का खाता खोलते हुए जीत हासिल की थी. 2004 के लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के टिकट पर फूलपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और सांसद बने थे. योगी सरकार बनने के बाद अतीक अहमद पर शुरू हुई ताबड़तोड़ कार्रवाई के बावजूद सपा अतीक के लिए खड़ी नहीं दिखाई दी, तो ये साफ हो गया कि सपा बाहुबलियों से दूरी बना रही है. हालांकि उनकी पत्नी एआईएमआईएम से चुनाव लड़ रही हैं.

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विजय मिश्रा

विजय मिश्रा

रिश्तेदार के मकान पर कब्जा करने, जान से मारने की धमकी देने और बेटे के नाम वसीयत करने के लिये दबाव डालने के आारोप में आगरा की जेल में बंद बाहुबली विधायक विजय मिश्रा इस बार के विधानसभा चुनावी मैदान से गायब हैं. 3 बार सपा से विधायक रहे विजय मिश्रा का अखिलेश यादव नाम तक नहीं लेना चाहते हैं. 2017 के चुनाव में विजय मिश्रा ने जिस निषाद पार्टी से चुनाव लड़ा था और मोदी लहर में जीत हासिल की थी, वो निषाद पार्टी भी उनसे कोषों की दूरी बनाएं हुए है. वर्तमान में विजय मिश्रा की बेटी सीमा समाजवादी पार्टी की सदस्य हैं.

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धनंजय सिंह
धनंजय सिंहपूर्वांचल के बाहुबलियों की लिस्ट में धनंजय सिंह का भी नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखा हुआ है. जरायम दुनिया से सियासत में एंट्री करने वाले धनंजय फिलहाल अजीत सिंह हत्याकांड में फरार हैं. साल 2002 में धनंजय सियासत और बाहुबल की नाव पर सवार होकर इस साल हुए विधानसभा चुनाव में रारी सीट से विधायक चुने गए. 2004 का लोक सभा चुनाव लड़ा और हार मिलने पर 2009 का चुनाव धनंजय ने बसपा की टिकट से लड़कर जीत हासिल की थी. उसके बाद सभी चुनावों में उनको हार का ही सामना करना पड़ा था. धनंजय सिंह को लखनऊ और जौनपुर पुलिस समेत एसटीएफ की कई टीम तलाश रही है. माना जा रहा है कि इस चुनाव में धनंजय सिंह को न ही कोई दल पूछ रहा है और न ही निर्दलीय चुनाव लड़ने की वो हिम्मत जुटा पा रहे हैं.

लखनऊः सूबे में राजनीति और अपराध जगत का बेहद ही करीबी रिश्ता रहा है. यहां की सियासी जमीन पर कई ऐसे नेताओं ने राज किया है, जो अपराध की दुनिया के बेताज बादशाह रहे हैं. लेकिन 2022 के विधान सभा चुनाव में ये अपराध जगत के बेताज बादशाह कहीं गुम है. अब इसे योगी सरकार के बुल्डोजर स्कीम का असर कहें या दामन को बेदाग रखने की रणनीति जिसके चलते कोई भी राजनीतिक दल न ही इन्हें टिकट देने को तैयार है और न ही इनका चुनाव में फायदा लेने के मूड में ही है.

80 के दशक में माफियागिरी शुरु करने वाले बाहुबलियों ने 2012 विधानसभा चुनाव तक अपनी धमक बरकरार रखी थी. लेकिन 2017 में योगी सरकार बनने के बाद उत्तर प्रदेश को योगी आदित्यनाथ ने अपने बुल्डोजर स्कीम के तहत ये एहसास दिला दिया कि माफिया का राजनीति में कोई काम नहीं वो जेल में ही ठीक हैं. जिसका नतीजा ये है कि मुख्तार, अतीक और विजय मिश्रा जैसे लोग जिन्होंने राजनीति का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और अपने बाहुबल से विधान भवन के भीतर बैठने का जुगाड़ बना रखा था, आज की तारीख में वो गायब है. यही नहीं राजनीतिक दल भी इन जैसे माफिया से मीलों की दूरी बना कर चल रहे हैं और नाम लेने से भी कतरा रहे हैं. अखिलेश यादव को ही ले लिजिए, इन्होंने 2012 में अपने मंत्रिमंडल में रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को मंत्री बनाया. वहीं ये पूछ रहे हैं कि कौन राजा भैया. यही नहीं मायावती भी अपने ही विधायक मुख्तार अंसारी के नाम से मुंह फेर ले रही हैं. हालांकि बड़ी पार्टियों के छोटे सहयोगी दल इन माफियाओं के प्रति के गाहे-बगाहे नरमी दिखा टिकट का ऑफर दे रहे हैं. जिसमें समाजवादी पार्टी के साथी ओम प्रकाश राजभर का मुख्तार के लिए प्रेम उमड़ रहा है, तो बीजेपी के सहयोगी संजय निषाद धनंजय सिंह जैसों की पैरवी कर रहें हैं.

राजनीतिक पंडित इसे योगी सरकार द्वारा माफियाराज पर की गई कार्रवाई का असर मान रहे हैं, वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र त्रिपाठी बताते हैं कि 2017 के बाद से जिस तरह यूपी में बीजेपी सरकार ने माफिया और अपराधियों पर कार्रवाई की है. साथ ही ये प्रचार भी किया है कि इन सभी का किसी न किसी राजनीतिक दल से संबंध रहा है. ऐसे में इस बार के चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियां खुद का दामन साफ रखने की कवायद कर रही हैं.

ये वे बाहुबली चेहरे हैं जिससे राजनीतिक पार्टियों ने किनारा किया हुआ है..

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मुख्तार अंसारी

मुख्तार अंसारी

बांदा जेल में बंद माफिया डॉन मुख्तार अंसारी मौजूदा समय में बहुजन समाज पार्टी के विधायक हैं. 1996 में मुख्तार बसपा की टिकट पर मऊ सदर से विधानसभा का चुनाव जीते थे. इसके बाद 2002 और 2007 में इसी सीट से निर्दलीय चुनाव जीते. जबकि 2012 में अपनी ही पार्टी कौमी एकता से जीत हासिल की थी. 2017 के चुनाव में अपनी कौमी एकता दल का बसपा में विलय किया गया और 2017 में इसी सीट से बसपा की टिकट पर जीत हासिल की. जिस बसपा से वो विधायक हैं, उसी की मुखिया मायावती समेत सभी बड़े दल उनसे दूरी बनाए हुए हैं. लेकिन एक सच यह भी है कि पूर्वांचल के मुसलमानों के बीच मुख्तार की लोकप्रियता है. वे मऊ के आस पास के कई जिलों की विधानसभा सीटों को जिताने की ताकत भी रखते हैं. हालांकि मुख्तार के बड़े भाई सिबगतुल्लाह अंसारी समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर चुके हैं.

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अतीक अहमद
अतीक अहमद

अतीक अहमद अपने जिले से 1000 किलोमीटर दूर अहमदाबाद जेल में बंद हैं. किसी जमाने में अतीक को हाथों हाथ लेने वाले दल उनका नाम लेने से भी गुरेज कर रहे हैं. 2022 के चुनाव में न ही अतीक का नाम है और न ही वर्चस्व. इसीलिए पूर्वांचल की 14 सीटों पर वर्चस्व रखने वाले अतीक अहमद को इस चुनाव में कोई भी राजनीतिक दल लिफ्ट नही दे रहे हैं.

बाहुबली माफिया अतीक अहमद इलाहाबाद के शहर पश्चिमी सीट से 5 बार विधायक रहे हैं और एक बार सांसद भी चुना जा चुका है. अतीक अहमद ने पहला चुनाव 1989 में इलाहाबाद पश्चिमी सीट से निर्दलीय लड़ कर जीता था. इसके बाद 1993 तक लगातार 3 बार निर्दलीय इसी सीट से जीतते रहे. इसके बाद 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीते. 2002 में अतीक अहमद ने अपना दल का खाता खोलते हुए जीत हासिल की थी. 2004 के लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के टिकट पर फूलपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और सांसद बने थे. योगी सरकार बनने के बाद अतीक अहमद पर शुरू हुई ताबड़तोड़ कार्रवाई के बावजूद सपा अतीक के लिए खड़ी नहीं दिखाई दी, तो ये साफ हो गया कि सपा बाहुबलियों से दूरी बना रही है. हालांकि उनकी पत्नी एआईएमआईएम से चुनाव लड़ रही हैं.

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विजय मिश्रा

विजय मिश्रा

रिश्तेदार के मकान पर कब्जा करने, जान से मारने की धमकी देने और बेटे के नाम वसीयत करने के लिये दबाव डालने के आारोप में आगरा की जेल में बंद बाहुबली विधायक विजय मिश्रा इस बार के विधानसभा चुनावी मैदान से गायब हैं. 3 बार सपा से विधायक रहे विजय मिश्रा का अखिलेश यादव नाम तक नहीं लेना चाहते हैं. 2017 के चुनाव में विजय मिश्रा ने जिस निषाद पार्टी से चुनाव लड़ा था और मोदी लहर में जीत हासिल की थी, वो निषाद पार्टी भी उनसे कोषों की दूरी बनाएं हुए है. वर्तमान में विजय मिश्रा की बेटी सीमा समाजवादी पार्टी की सदस्य हैं.

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धनंजय सिंह
धनंजय सिंहपूर्वांचल के बाहुबलियों की लिस्ट में धनंजय सिंह का भी नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखा हुआ है. जरायम दुनिया से सियासत में एंट्री करने वाले धनंजय फिलहाल अजीत सिंह हत्याकांड में फरार हैं. साल 2002 में धनंजय सियासत और बाहुबल की नाव पर सवार होकर इस साल हुए विधानसभा चुनाव में रारी सीट से विधायक चुने गए. 2004 का लोक सभा चुनाव लड़ा और हार मिलने पर 2009 का चुनाव धनंजय ने बसपा की टिकट से लड़कर जीत हासिल की थी. उसके बाद सभी चुनावों में उनको हार का ही सामना करना पड़ा था. धनंजय सिंह को लखनऊ और जौनपुर पुलिस समेत एसटीएफ की कई टीम तलाश रही है. माना जा रहा है कि इस चुनाव में धनंजय सिंह को न ही कोई दल पूछ रहा है और न ही निर्दलीय चुनाव लड़ने की वो हिम्मत जुटा पा रहे हैं.
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