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PGI में किडनी ट्रांसप्लांट के लिए फ्लूड मैनेजमेंट तकनीक स्‍थाप‍ित

राजधानी लखनऊ में एसजीपीजीआई (संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान) ने किडनी ट्रांसप्लांट को सफल बनाने के लिए नई फ्लूड (पानी) मैनेजमेंट तकनीक स्थापित कर ली है. फ्लूड मैनेजमेंट तकनीक को विश्व स्तर पर मान्यता मिली है.

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Published : Mar 10, 2021, 2:20 AM IST

संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान
संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान

लखनऊ: एसजीपीजीआई (संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान) ने किडनी ट्रांसप्लांट को सफल बनाने के लिए नई फ्लूड (पानी) मैनेजमेंट तकनीक स्थापित कर ली है. फ्लूड मैनेजमेंट तकनीक को विश्व स्तर पर मान्यता मिली है. नए तरह-तरह के फ्लूड मैनेजमेंट में देखा गया कि सोडियम, पोटैशियम संतुलित रहने के साथ क्लोलाइड की मात्रा नियंत्रित रहती है.

क्लोराइड की बढ़ी मात्रा प्रत्यारोपित किडनी के लिए खतरनाक होती है. यह प्रत्यारोपित किडनी के फंक्शन को बाधित कर सकता है. तकनीक को स्थापित करने वाले एनेस्थेसिया विभाग के प्रो. संदीप साहू हैं. इनकी टीम डॉ. दिव्या श्रीवास्तव, डॉ. तपस और डॉ. ऊषा किरण ने किडनी ट्रांसप्लांट के 120 मरीजों पर लंबे समय से शोध किया.

अस्पताल के प्रो. संदीप साहू के अनुसार किडनी ट्रांसप्लांट से पहले तकरीबन आठ घंटे बिना खाना-पानी के रखा जाता है. ओटी में लाने के बाद फ्लूड (पानी) चढ़ाया जाता है, जिससे रक्त दाब को नियंत्रित किया जाता है. अभी फ्लूड के रूप में नार्मल सलाइन या रिंगर लेक्टेट चढ़ाया जाता रहा है. देखा गया कि इससे सोडियम, पोटैशियम में असंतुलन रहता है. लेक्टेट को खराब किडनी नहीं निकाल पाती है. क्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है, जो ट्रांसप्लांट के बाद कई तरह की परेशानी का कारण बनती है.

हम लोगों ने बैलेस साल्ट फ्लूड पर शोध किया तो देखा कि इस फ्लूड को देने से यह सब परेशानी काफी कम हो जाती है. इस फ्लूड में पाये जाने वाले इलेक्ट्रोलाइट खून में पाए जाने वाले इलेक्ट्रोलाइट की तरह ही होते हैं. दूसरे शब्दों में कहते तो यह एकदम खून की तरह ही है. इस शोध को बाली जर्नल ऑफ एनेस्थेसिया के अलावा इंडियन जर्नल ऑफ एनेस्थेसिया ने स्वीकार किया है.

फ्लूड देने के तरीके पर हुआ शोध
अभी तक फ्लूड सेंट्रल लाइन से दिया जाता रहा है, लेकिन हम लोगों ने ट्रांस इसोफेजियल डाप्लर (सीधे ट्यूब आमाशाय में डाली जाती है) और स्ट्रोक वाल्यूम वैरीएशन तकनीक से प्लूड चढाया, जिसमें देखा गया कि प्लूड शरीर में एकत्र नहीं होता है. साथ ही फ्लूड की मात्रा भी कम लगती है. इससे हीमोडायनमिक मॉनिटरिंग भी आसाना होती है.

लखनऊ: एसजीपीजीआई (संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान) ने किडनी ट्रांसप्लांट को सफल बनाने के लिए नई फ्लूड (पानी) मैनेजमेंट तकनीक स्थापित कर ली है. फ्लूड मैनेजमेंट तकनीक को विश्व स्तर पर मान्यता मिली है. नए तरह-तरह के फ्लूड मैनेजमेंट में देखा गया कि सोडियम, पोटैशियम संतुलित रहने के साथ क्लोलाइड की मात्रा नियंत्रित रहती है.

क्लोराइड की बढ़ी मात्रा प्रत्यारोपित किडनी के लिए खतरनाक होती है. यह प्रत्यारोपित किडनी के फंक्शन को बाधित कर सकता है. तकनीक को स्थापित करने वाले एनेस्थेसिया विभाग के प्रो. संदीप साहू हैं. इनकी टीम डॉ. दिव्या श्रीवास्तव, डॉ. तपस और डॉ. ऊषा किरण ने किडनी ट्रांसप्लांट के 120 मरीजों पर लंबे समय से शोध किया.

अस्पताल के प्रो. संदीप साहू के अनुसार किडनी ट्रांसप्लांट से पहले तकरीबन आठ घंटे बिना खाना-पानी के रखा जाता है. ओटी में लाने के बाद फ्लूड (पानी) चढ़ाया जाता है, जिससे रक्त दाब को नियंत्रित किया जाता है. अभी फ्लूड के रूप में नार्मल सलाइन या रिंगर लेक्टेट चढ़ाया जाता रहा है. देखा गया कि इससे सोडियम, पोटैशियम में असंतुलन रहता है. लेक्टेट को खराब किडनी नहीं निकाल पाती है. क्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है, जो ट्रांसप्लांट के बाद कई तरह की परेशानी का कारण बनती है.

हम लोगों ने बैलेस साल्ट फ्लूड पर शोध किया तो देखा कि इस फ्लूड को देने से यह सब परेशानी काफी कम हो जाती है. इस फ्लूड में पाये जाने वाले इलेक्ट्रोलाइट खून में पाए जाने वाले इलेक्ट्रोलाइट की तरह ही होते हैं. दूसरे शब्दों में कहते तो यह एकदम खून की तरह ही है. इस शोध को बाली जर्नल ऑफ एनेस्थेसिया के अलावा इंडियन जर्नल ऑफ एनेस्थेसिया ने स्वीकार किया है.

फ्लूड देने के तरीके पर हुआ शोध
अभी तक फ्लूड सेंट्रल लाइन से दिया जाता रहा है, लेकिन हम लोगों ने ट्रांस इसोफेजियल डाप्लर (सीधे ट्यूब आमाशाय में डाली जाती है) और स्ट्रोक वाल्यूम वैरीएशन तकनीक से प्लूड चढाया, जिसमें देखा गया कि प्लूड शरीर में एकत्र नहीं होता है. साथ ही फ्लूड की मात्रा भी कम लगती है. इससे हीमोडायनमिक मॉनिटरिंग भी आसाना होती है.

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