लखनऊ : आज प्रदेश में निकाय चुनाव का पहला चरण लगभग संपन्न हो गया. इस चुनाव में राजधानी के मतदाताओं ने ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया और तमाम बूथों पर सन्नाटा पसरा रहा, वहीं इस चुनाव में विपक्ष सरकार को घेरने में नाकाम रहा, जिससे भाजपा का मनोबल बढ़ा हुआ दिखाई दिया. ऐसा नहीं है कि सरकार में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही हुआ है. केंद्र हो या राज्य की सरकारें विपक्ष यदि सही से विचार करे तो अनेक मुद्दे मिल सकते हैं, लेकिन आज राजनीति विकास के असल मुद्दों से ज्यादा बयानों पर केंद्रित हो गए हैं. ऐसे में भाजपा की सातों दिन चौबीसों घंटे की रणनीति से जीत पाना विपक्ष के लिए आसान नहीं है.
इस चुनाव में यदि लोगों में उत्साह की कमी है तो उसके पीछे विकास के असल मुद्दों का चुनावी चर्चा से दूर रहना ही है. राजनीतिक दल, खासतौर पर विपक्ष की यह जिम्मेदारी होती है कि वह सरकार की खामियों की ढूंढे और जनता के सामने रखे, लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि विपक्षी पार्टियां ऐसा करने में नाकाम रही हैं. गंगा और सहायक नदियों की सफाई का ही संदर्भ लें. भाजपा की सरकारों ने दावा किया था कि गंगा का पानी आचमन लायक हो जाएगा. इसके लिए हजारों करोड़ रुपये गंगा में ही बहाए गए हैं. बावजूद इसके विपक्ष को यह दिखाई नहीं देता. आज भी गंगा में तमाम नाले प्रवाहित हो रहे हैं. कानपुर और वाराणसी जैसे बड़े शहरों में आचमन तो दूर गंगा में नहाना तक कठिन है. आप अपनी आंखों के सामने पवित्र नदी में नालों का दूषित जल सीधे गंगा में जाता देखेंगे. खेद है कि यह मुद्दा नहीं बन पाता और बड़े-बड़े दावे करने वाली सरकारें बच निकलती हैं.
सड़कों और अस्पतालों का ही विषय लें. सरकार के दावों से उलट आज भी राजधानी की ही तमाम सड़कें जर्जर पड़ी हैं. जिलों और गांवों की सड़कों का हाल तो और बुरा है. तमाम सड़कों की तो पांच साल में मरम्मत तक नहीं हुई है, वहीं तमाम ऐसी भी सड़कें हैं, जिनका कायाकल्प करने का वादा किया गया था, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. योगी सरकार हर जिले में मेडिकल कॉलेज खोलने का दावा करती है, लेकिन इन मेडिकल कॉलेजों में स्टाफ है न ही जरूरी मशीनें और उपकरण. कई जिला अस्पतालों को ही मेडिकल कॉलेज घोषित कर दिया गया है. भला क्या नाम बदलने से ही चिकित्सा की स्थिति सुधर जाएगी?. आज भी राजधानी के अस्पताल और मेडिकल कॉलेज आसपास के जिलों के मरीजों से पटे पड़े रहते हैं. यदि उन्हें अपने जिले में ही अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाती तो वह यहां क्यों आते? विपक्ष को ऐसे मुद्दे दिखाई नहीं देते. शिक्षा क्षेत्र में भी अजब हाल है. राज्य के उच्च शिक्षा मंत्रालय ने आदेश दिया है कि राज्य के सभी विश्वविद्यालय छात्रों से एक समान फीस वसूल करें, लेकिन विश्वविद्यालय इसे मान नहीं रहे हैं. मजबूरन कॉलेजों को विश्वविद्यालयों के खिलाफ अदालत में जाना पड़ा है. हाल ही में लखनऊ विश्वविद्यालय ने एक फरमान जारी किया है कि विश्वविद्यालय और उससे मान्यता लेने वाले चार जिलों के सैकड़ों कॉलेजों के लाखों छात्र दाखिले का आवेदन करने से पहले सौ रुपये का रजिस्ट्रेशन विश्वविद्यालय में कराएंगे. आम आदमी की जेब पर भले ही सौ रुपये का भार पड़ रहा हो, लेकिन विश्वविद्यालय के लिए तो यह करोड़ों की कमाई है. इस विश्वविद्यालय के प्रवेश फार्म का शुल्क भी एक हजार रुपये है. खेद है कि ऐसे जनता से जुड़े मुद्दे विपक्ष को दिखाई नहीं देते और लोग सरकार की खामियों से वाकिफ नहीं हो पाते. मजबूरन उन्हें विकल्प नहीं दिखता और वही दल फिर चुनकर आते हैं, क्योंकि मुद्दों के अभाव में लड़ाई सिंबल तक सिमट जाती है.
इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं 'लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का अपना-अपना महत्व होता है. कोई भी चुनाव होता है तो मतदाता को दोनों के कार्यों को देखते हुए निर्णय करने में सुविधा होती है. यदि हम निकाय चुनावों की चर्चा करें तो विपक्ष मुद्दा विहीन है, हालांकि सत्ता पक्ष के पास गिनाने के लिए तमाम मुद्दे हैं. यही कारण है कि इस चुनाव में सत्ता पक्ष की ओर लोगों का रुझान ज्यादा दिखाई दे रहा है. विपक्ष को जैसी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए था, उसमें वह विफल रहा है. विपक्ष के एक बड़े नेता ने रामचरित मानस पर विवादित बयान दिया तो उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया गया. यदि उन्हें महासचिव न बनाया जाता तो लोग यह विश्वास कर भी सकते थे कि यह उनका निजी बयान था, किन्तु उनकी तरक्की के बाद यह अपने आप में ही एक मुद्दा बन गया, जिसने विपक्ष को ही कमजोर किया है, क्योंकि यह आस्था से जुड़ा गलत व्याख्या पर आधारित मुद्दा था. स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में इसका जवाब दिया, तो विपक्ष को इस मुद्दे पर भी मुंह की खानी पड़ी. इस मुद्दे का सपा को लाभ की बजाय नुकसान ही होने वाला है.'
डॉ दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं 'इधर माफिया के लिए सरकार जो कठोर रुख अपना रही है, प्रयागराज में जो घटना हुई, उसके बाद विपक्ष की जो प्रतिक्रिया थी, वह कहीं न कहीं यह संदेश देने वाली थी कि उनकी विशेष माफिया तत्वों के प्रति हमदर्दी है. इस विषय ने भी विपक्ष पर उल्टा असर डाला. यदि चुनाव प्रचार की बात करें तो जिस तरह मुख्यमंत्री प्रयागराज जाते हैं, मऊ या आजमगढ़ जाते हैं और पिछली सरकार से जब भाजपा सरकार की तुलना करते हैं, चाहे कानून व्यवस्था की बात हो या विकास का मुद्दा, अपने आप ही लोगों का रुख एक ओर ही दिखाई देने लगता है. विपक्ष को जिस तरह से सरकार को घेरना चाहिए था, वह नहीं कर सका. इसीलिए यह चुनाव महज सिंबल की लड़ाई बनकर रह गया है.'
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