लखनऊ: अस्थमा भवन जयपुर के डायरेक्टर और राजस्थान हॉस्पिटल के प्रेसिडेंट डॉ. वीरेंद्र सिंह ने अस्थमा रोग पर विशेष जानकारी दी. उन्होंने बताया कि सांस संबंधी रोगों की मौतों के आंकड़ों पर नजर डालें तो विश्व में सबसे अधिक सांस संबंधी मौतें भारत में हो रही हैं. इनमें भी राजस्थान और यूपी के अंदर सबसे ज्यादा मौतें आंकी गई हैं. इन बीमारियों में सीओपीडी, अस्थमा और टीबी जैसी बीमारियां शामिल हैं, इनका मुख्य कारण वायु प्रदूषण है.
शहरों में प्रदूषण ट्रैफिक पॉल्यूशन से तो गांवों में चूल्हे आदि के धुएं की वजह से अस्थमा होता है. पहले ऐसा माना जाता था कि सिर्फ स्मोकिंग की वजह से ही मरीज को अस्थमा और सीओपीडी जैसी बीमारियां होती हैं, लेकिन आंकड़ों से सामने आया है कि ट्रैफिक पॉल्यूशन ही सबसे बड़ा कारण है. लगभग 50 प्रतिशत ट्रैफिक प्रदूषण की वजह से लोगों को अस्थमा और सीओपीडी जैसी बीमारियां हो रही हैं.
इस आयोजन में इंडियन चेस्ट सोसायटी के पूर्व अध्यक्ष और नेशनल कॉलेज ऑफ जस्टिफिकेशन के वर्तमान अध्यक्ष डॉ. सूर्यकांत ने क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पलमोनरी डिसीज यानी सीओपीडी पर हुए पिछले 2 सालों के शोध कार्यों के बारे में जानकारी दी. उन्होंने बताया कि इस कार्यक्रम का उद्देश्य सांस सम्बंधी बीमारियों में आए नए बदलावों को बताना है,
मुंबई स्थित बंबई हॉस्पिटल किचन डिपार्टमेंट की हेड डॉ. अमिता नेने ने बताया कि टीबी की बीमारी हमारी देश की सबसे बड़ी परेशानी है. लगभग हर एक मिनट पर एक टीबी के मरीज की जान चली जाती है. भारत में टीबी से ग्रसित लोगों की संख्या काफी अधिक है. आंकड़ों के अनुसार विश्व के 27% टीबी के मरीज भारत में पाए जाते हैं. इसके अलावा विश्व के 24% तक ड्रग रेसिस्टेंट टीबी के मरीज भारत में ही पाए जाते हैं. ऐसे मरीजों को पहली बार में ही जांचने और उनकी टीबी के प्रकार को जानने के लिए हम नई तकनीक अपना रहे हैं. इस तकनीक से टीबी को जल्द पता लगाया जा सकता है. इस तकनीक का नाम 'जीन एक्सपर्ट' या 'सीबी नेट' है.
जीन एक्सपर्ट तकनीक से 2 घंटे के भीतर ही पता चल सकता है कि मरीज को टीबी है भी या नहीं और अगर उसे टीबी है तो उसे सेंसिटिव टीबी है या फिर ड्रग रेसिस्टेंट टीबी है. इस आधार पर उसकी शुरुआती इलाज भी सही ढंग से किया जा सकता है. पहले इस डायग्नोज में 6 से 8 हफ्तों का समय लगता था, जिसमें अपने अंदाज के हिसाब से डॉक्टर इलाज करते थे. अगर इलाज सही हुआ तो मरीज ठीक हो जाता था, लेकिन यदि इलाज गलत हो जाए तो मरीज की जान पर बन सकती थी.