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यूपी में वायरस के म्यूटेशन का खतरा, मैपिंग-जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट पर फोकस - जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट पर फोकस

यूपी में डेल्टा प्लस वेरिएंट के केस मिलने के बाद योगी सरकार सतर्क हो गई है. वेरिएंट की पहचान के लिए प्रदेश में जीन सिक्वेंसिंग लैब शुरू कर दी गई हैं. प्रदेश में केजीएमयू, बीएचयू, लोहिया संस्थान, एनबीआरआई और सीडीआरआई में 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' के लिए सैंपल आ रहे हैं.

कॉन्सेप्ट इमेज.
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Published : Jul 14, 2021, 4:10 PM IST

लखनऊ: यूपी में कोरोना की दूसरी लहर आफत भरी रही. यहां डेल्टा वेरिएंट ने जमकर कहर बरपाया था. वहीं अब डेल्टा प्लस, कप्पा और लैम्डा वेरिएंट का खतरा मंडरा रहा है. ऐसे में बाहर से आने वाले व्यक्तियों के 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' पर जोर दिया जा रहा है. साथ ही पॉजिटिव मिलने पर व्यक्ति के इलाके की मैपिंग कर सैंपल संग्रह किए जा रहे हैं. इसका मकसद राज्य में वायरस के म्यूटेशन व उसके प्रसार के खतरे को रोकना है.

उत्तर प्रदेश में जुलाई में ही डेल्टा प्लस वेरिएंट के दो केस पाए गए. वहीं लखनऊ में कप्पा वेरिएंट भी दो मरीजों में मिला. ऐसे में सरकार ने राज्य में जीन सिक्वेंसिंग लैब शुरू कर दी है. अपर मुख्य सचिव स्वास्थ्य अमित प्रसाद के मुताबिक अब दिल्ली की आईजीआईबी लैब के अलावा केजीएमयू, बीएचयू, लोहिया संस्थान, एनबीआरआई, सीडीआरआई में भी यूपी के सैंपल भेजे जा रहे हैं. बाहर से आने वाले लोगों का रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट, बस स्टॉप पर एंटीजेन टेस्ट किया जा रहा है. वहीं पॉजिटिव आने पर अरटीपीसीआर के साथ-साथ जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट कराया जा रहा है.

दूसरा वेरिएंट मिलने पर 60 घरों में टेस्ट
जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट में वायरस के डेल्टा वेरिएंट के अलावा दूसरा वेरिएंट मिलने पर इलाके की मैपिंग कराई जा रही है. इस दौरान आस-पास के 60 घरों में टेस्ट के लिए सैंपल लेकर लैब भेजे जा रहे हैं. अब तक 1,800 के करीब सैंपल जीन सिक्वेंसिंग के लिए भेजे गए हैं.

महाराष्ट्र में 47 बार बदल चुका स्वरूप
महाराष्ट्र पर किए अध्ययन में तीन महीने के दौरान वहां अलग-अलग जिलों के लोगों में नए-नए वेरिएंट की भरमार मिली है. वैज्ञानिकों को अंदेशा यह भी है कि प्लाज्मा, रेमडेसिविर और स्टेरॉयड युक्त दवाओं के जमकर हुए इस्तेमाल की वजह से म्यूटेशन को बढ़ावा मिला है. यह अध्य्यन पुणे स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ वॉयरोलॉजी (एनआईवी), भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और नई दिल्ली स्थित नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (एनसीडीसी) द्वारा संयुक्त तौर पर किया गया. यहां फरवरी माह से ही वायरस के एस प्रोटीन में सबसे अधिक म्यूटेशन देखने को मिले हैं. महराष्ट्र में वैज्ञानिकों ने 47 बार वायरस के म्यूटेशन देखे.

जांच में ये वेरिएंट भी आ चुके सामने
देश के वैज्ञानिकों को 273 सैंपल में बी. 1.617, 73 में बी. 1.36.29, 67 में बी. 1.1.306, 31 में बी. 1.1.7, 24 में बी. 1.1.216, 17 में बी. 1.596 और 15 सैंपल में बी. 1.1 वेरिएंट मिला. इनके अलावा 17 लोगों के सैंपल में बी.1 और बी. 1.36 वेरिएंट 12 लोगों के सैंपल में मिला है. इनके अलावा और भी कई म्यूटेशन जांच में मिले हैं, जिन पर अध्ययन चल रहा है.

इन राज्यों में 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' बढ़ाने का सुझाव
वैज्ञानिकों ने उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना सहित अन्य राज्यों में 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' बढ़ाने की अपील की है. इससे समयगत वायरस के म्यूटेशन का पता कर संक्रमण के फैलाव से बचा जा सकेगा.

तीन चरणों मे होती जीन सिक्वेंसिंग
केजीएमयू की माइक्रोबायोलॉजी विभाग की डॉ. सुरुचि शुक्ला के मुताबिक 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' की तीन चरणों में प्रक्रिया पूरी की जाती है. इसमें लाइब्रेरी प्रिपरेशन, एलाइनमेंट/सिक्वेंसिंग और बायोइंफोर्मेटिक सॉफ्टवेयर एनॉलिसिस की जाती है. इसके बाद डेटा निकालकर इंटरनेशनल साइट पर डाल दिया जाता है, जिससे कि वेरिएंट को मैच किया जा सके.

डीएनए के करने होते हैं सैकड़ों टुकड़े
डॉ. सुरुचि शुक्ला के मुताबिक कोरोना वायरस का जीन सिक्वेंसिंग करना काफी जटिल कार्य है. इसमें वायरस के आरएनए से डीएनए बनाते हैं. इसके बाद उस डीएनए के छोटे टुकड़े करते हैं. ये टुकड़े सैंपल साइज पर निर्भर करते हैं, जो 200 से 500 तक या उससे ज्यादा भी हो सकते हैं. इसे वायरस का एंप्लिफाई करना भी कहते हैं. इसके बाद उन टुकड़ों की एलाइनिंग होती है. इसमें एक-एक कर सीक्वेंस बनाया जाता है. इसी सीक्वेंस को बायोइंफॉर्मेटिक्स सॉफ्टवेयर पर डालते हैं. इस सॉफ्टवेयर पर दुनिया भर में जितने भी वायरस हैं, उनका सीक्वेंस मौजूद होता है. जिस सीक्वेंस से मैच होता है, इस वायरस की पहचान उसी वेरिएंट के रूप में की जाती है.

किस प्रक्रिया में कितना लगता समय
जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट में वायरस को आरएनए से डीएन में बदलने में दो दिन लगते हैं. इसके बाद एंप्लिफाई करने में दो से तीन दिन लगते हैं. बायोइंफॉर्मेटिक्स सॉफ्टवेयर में उस वेरिएंट की पहचान के लिए लगभग दो दिन लगते हैं. इसीलिए जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट में कम से कम सात दिन का समय लगता है. वहीं सैंपलों की संख्या बहुत अधिक हो जाएगी तो यह समय बढ़ भी सकता है.

लखनऊ: यूपी में कोरोना की दूसरी लहर आफत भरी रही. यहां डेल्टा वेरिएंट ने जमकर कहर बरपाया था. वहीं अब डेल्टा प्लस, कप्पा और लैम्डा वेरिएंट का खतरा मंडरा रहा है. ऐसे में बाहर से आने वाले व्यक्तियों के 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' पर जोर दिया जा रहा है. साथ ही पॉजिटिव मिलने पर व्यक्ति के इलाके की मैपिंग कर सैंपल संग्रह किए जा रहे हैं. इसका मकसद राज्य में वायरस के म्यूटेशन व उसके प्रसार के खतरे को रोकना है.

उत्तर प्रदेश में जुलाई में ही डेल्टा प्लस वेरिएंट के दो केस पाए गए. वहीं लखनऊ में कप्पा वेरिएंट भी दो मरीजों में मिला. ऐसे में सरकार ने राज्य में जीन सिक्वेंसिंग लैब शुरू कर दी है. अपर मुख्य सचिव स्वास्थ्य अमित प्रसाद के मुताबिक अब दिल्ली की आईजीआईबी लैब के अलावा केजीएमयू, बीएचयू, लोहिया संस्थान, एनबीआरआई, सीडीआरआई में भी यूपी के सैंपल भेजे जा रहे हैं. बाहर से आने वाले लोगों का रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट, बस स्टॉप पर एंटीजेन टेस्ट किया जा रहा है. वहीं पॉजिटिव आने पर अरटीपीसीआर के साथ-साथ जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट कराया जा रहा है.

दूसरा वेरिएंट मिलने पर 60 घरों में टेस्ट
जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट में वायरस के डेल्टा वेरिएंट के अलावा दूसरा वेरिएंट मिलने पर इलाके की मैपिंग कराई जा रही है. इस दौरान आस-पास के 60 घरों में टेस्ट के लिए सैंपल लेकर लैब भेजे जा रहे हैं. अब तक 1,800 के करीब सैंपल जीन सिक्वेंसिंग के लिए भेजे गए हैं.

महाराष्ट्र में 47 बार बदल चुका स्वरूप
महाराष्ट्र पर किए अध्ययन में तीन महीने के दौरान वहां अलग-अलग जिलों के लोगों में नए-नए वेरिएंट की भरमार मिली है. वैज्ञानिकों को अंदेशा यह भी है कि प्लाज्मा, रेमडेसिविर और स्टेरॉयड युक्त दवाओं के जमकर हुए इस्तेमाल की वजह से म्यूटेशन को बढ़ावा मिला है. यह अध्य्यन पुणे स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ वॉयरोलॉजी (एनआईवी), भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और नई दिल्ली स्थित नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (एनसीडीसी) द्वारा संयुक्त तौर पर किया गया. यहां फरवरी माह से ही वायरस के एस प्रोटीन में सबसे अधिक म्यूटेशन देखने को मिले हैं. महराष्ट्र में वैज्ञानिकों ने 47 बार वायरस के म्यूटेशन देखे.

जांच में ये वेरिएंट भी आ चुके सामने
देश के वैज्ञानिकों को 273 सैंपल में बी. 1.617, 73 में बी. 1.36.29, 67 में बी. 1.1.306, 31 में बी. 1.1.7, 24 में बी. 1.1.216, 17 में बी. 1.596 और 15 सैंपल में बी. 1.1 वेरिएंट मिला. इनके अलावा 17 लोगों के सैंपल में बी.1 और बी. 1.36 वेरिएंट 12 लोगों के सैंपल में मिला है. इनके अलावा और भी कई म्यूटेशन जांच में मिले हैं, जिन पर अध्ययन चल रहा है.

इन राज्यों में 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' बढ़ाने का सुझाव
वैज्ञानिकों ने उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना सहित अन्य राज्यों में 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' बढ़ाने की अपील की है. इससे समयगत वायरस के म्यूटेशन का पता कर संक्रमण के फैलाव से बचा जा सकेगा.

तीन चरणों मे होती जीन सिक्वेंसिंग
केजीएमयू की माइक्रोबायोलॉजी विभाग की डॉ. सुरुचि शुक्ला के मुताबिक 'जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट' की तीन चरणों में प्रक्रिया पूरी की जाती है. इसमें लाइब्रेरी प्रिपरेशन, एलाइनमेंट/सिक्वेंसिंग और बायोइंफोर्मेटिक सॉफ्टवेयर एनॉलिसिस की जाती है. इसके बाद डेटा निकालकर इंटरनेशनल साइट पर डाल दिया जाता है, जिससे कि वेरिएंट को मैच किया जा सके.

डीएनए के करने होते हैं सैकड़ों टुकड़े
डॉ. सुरुचि शुक्ला के मुताबिक कोरोना वायरस का जीन सिक्वेंसिंग करना काफी जटिल कार्य है. इसमें वायरस के आरएनए से डीएनए बनाते हैं. इसके बाद उस डीएनए के छोटे टुकड़े करते हैं. ये टुकड़े सैंपल साइज पर निर्भर करते हैं, जो 200 से 500 तक या उससे ज्यादा भी हो सकते हैं. इसे वायरस का एंप्लिफाई करना भी कहते हैं. इसके बाद उन टुकड़ों की एलाइनिंग होती है. इसमें एक-एक कर सीक्वेंस बनाया जाता है. इसी सीक्वेंस को बायोइंफॉर्मेटिक्स सॉफ्टवेयर पर डालते हैं. इस सॉफ्टवेयर पर दुनिया भर में जितने भी वायरस हैं, उनका सीक्वेंस मौजूद होता है. जिस सीक्वेंस से मैच होता है, इस वायरस की पहचान उसी वेरिएंट के रूप में की जाती है.

किस प्रक्रिया में कितना लगता समय
जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट में वायरस को आरएनए से डीएन में बदलने में दो दिन लगते हैं. इसके बाद एंप्लिफाई करने में दो से तीन दिन लगते हैं. बायोइंफॉर्मेटिक्स सॉफ्टवेयर में उस वेरिएंट की पहचान के लिए लगभग दो दिन लगते हैं. इसीलिए जीन सिक्वेंसिंग टेस्ट में कम से कम सात दिन का समय लगता है. वहीं सैंपलों की संख्या बहुत अधिक हो जाएगी तो यह समय बढ़ भी सकता है.

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