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क्या कहता है दल-बदल कानून: संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी के साथ खास बातचीत

राजनीति में दल-बदल की प्रवृत्ति ने बड़ा रूप ले लिया है. संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी कहते हैं कि दुनिया के जितने भी लोकतांत्रिक देश हैं, उनमें कहीं पर भी दल-बदल कानून जैसी कोई भी व्यवस्था नहीं है. संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी ने दल-बदल की नीति पर अपने विचार व्यक्त किए.

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संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी.
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Published : Jul 31, 2020, 1:30 AM IST

लखनऊ: विचारधारा को तिलांजलि देकर दूसरे दल में सत्ता के मोह में शामिल होने का सिलसिला देश में पहली लोकसभा से ही शुरू हो गया था. सत्तर का दशक आते-आते दल बदलने की प्रवृत्ति ने बहुत बड़ा रूप ले लिया. राजीव गांधी की सरकार दल-बदल विरोधी कानून लेकर आई. इस कानून का उद्देश्य पूरा होता नहीं दिखा तो वर्ष 2003 में एक बार फिर इसमें संशोधन किया गया.

दल-बदल की नीति पर बात करते संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी.

संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी ने कहा कि दल-बदल कानून को अगर समझना है तो आपको पहले लोकसभा चुनाव 1952 को देखना होगा. पहली लोकसभा में ही दल-बदल के मामले सामने दिखने लगे थे. 1960 का दशक आते-आते बड़ी मात्रा में विधायक और सांसदों के दल-बदल की प्रवृत्ति बढ़ती चली गई. एक आंकड़ा है, उसके अनुसार अगर देखें तो 1967 से 1971 के बीच में 142 विधायकों ने और 1900 से ज्यादा सांसदों ने दल-बदल किया. दल-बदल की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हुए 1985 में राजीव गांधी सरकार ने 52वां संशोधन प्रस्तुत किया और उसको दसवीं अनुसूची में डाला. इसी को कहते हैं दल-बदल निरोधक अधिनियम. यह एक मार्च 1985 से लागू हुआ था.

कानून को बना दिया गया कमजोर
इस कानून में इस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया, इस तरीके के प्रावधान किए गए कि जानबूझकर इतना कमजोर बना दिया गया कि उसकी मनमानी व्याख्या की जा सके. यही वजह रही कि राज्य दर राज्य दल-बदल के मामले आने लगे. यह मामले स्पीकर के सामने आए तो सबने अपने-अपने राजनीतिक निहितार्थ को देखते हुए इस कानून की व्याख्या की. यानी दल-बदल कानून लाने का जो मूल उद्देश्य था कि दल-बदल पर रोक लगे, दल-बदल की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगे, इस कानून से मंशा पूरी नहीं हुई. इस कानून के इतने सारे बेजा इस्तेमाल हुए कि अगर उस पर चर्चा की जाए तो एक धारावाहिक बनाया जा सकता है.

इस कानून से विधायक और सांसद की स्वतंत्रता छीनने की बात पर डॉक्टर पीएन त्रिपाठी कहते हैं कि लोकतंत्र की बुनियादी सोच यही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता. आप अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही अवरुद्ध कर देंगे तो आप लोकतंत्र का हनन कर रहे हैं. आप एक संसदीय लोकतांत्रिक देश में रहते हुए लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत लोकतांत्रिक प्रजातंत्र में लोकतांत्रिक राजनीतिक दल की प्रक्रिया को आप आगे नहीं बढ़ा रहे हैं. इसलिए मेरा विचार तो यह है कि दल-बदल कानून को खत्म कर देना चाहिए. किसी भी तरीके के दल-बदल को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. जिस दल के चुनाव चिह्न पर चुनकर आए हैं, वह दल छोड़कर यदि दूसरे दल में शामिल होते हैं तो उनकी सदस्यता उसी वक्त समाप्त कर देनी चाहिए.

अन्य लोकतांत्रिक देशों में नहीं है दल-बदल कानून की कोई व्यवस्था
इसमें 2/3 का प्रावधान है. दूसरा प्रावधान पार्टी के विलय का है, तो दल-बदल का कानून नहीं लगेगा. दल-बदल कानून के अन्य प्रावधान, जिनमें स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है. दल-बदल की व्याख्या स्पीकर को करनी है. स्पीकर कितने दिन में फैसला देंगे, इसका कोई प्रावधान नहीं है. जहां स्पीकर को लगता है इसको तुरंत रद्द कर देना चाहिए, वहां पर जैसे ही मामला सामने आएगा उसी समय सदस्यता रद्द कर दी जाएगी. यदि उन्हें लगेगा कि सदस्यता समाप्त नहीं की जानी चाहिए तो वह प्रकरण को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं. इतनी सारी खामियां इस कानून में है कि इस कानून का जो बुनियादी मकसद था, पूरा नहीं हो पाता है. दुनिया के जितने भी लोकतांत्रिक देश हैं, उनमें कहीं पर भी दल-बदल कानून जैसी कोई भी व्यवस्था नहीं है. अगर आपने दल-बदल किया है तो आप उसी दिन अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे.

दल-बदल कानून को लेकर अभी तक जितनी रिपोर्ट आई हैं, उसमें यह सामने आया है कि दल-बदल को रोकने में मदद के बजाए इसे बढ़ावा मिला है. सांसद और विधायक को लोकतंत्र में अपनी बात कहने की आजादी अपने ही राजनीतिक दल में होनी चाहिए. किसी राजनीतिक दल के सदस्य अपने दल की नीति, कार्यक्रम से सहमत नहीं हैं तो उन्हें यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने वरिष्ठ लोगों के सामने विरोध दर्ज करा सकें. अगर सदस्य को उसके चलते अनुशासनहीनता के आधार पर निकाला जाएगा तो लोकतंत्र के नाम पर यह लोकतंत्र को ही नुकसान पहुंचाने वाला निर्णय होगा. ह्विप जारी करके राजनीतिक दल अपने ही सदस्यों को बाध्य करते हैं. इसलिए अब इस कानून को समाप्त कर सीधा कानून बनाने की आवश्यकता आ गई है.

यूपी का यह दल-बदल रहा सबसे चर्चित
यूपी में भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की साझा सरकार थी. भाजपा और बसपा की अनबन हुई. इसके बाद सरकार गिर गई. बसपा के कई विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए. इस पर बसपा ने अपने सदस्यों की विधानसभा सदस्यता समाप्त किए जाने की याचिका दायर की. तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने भी अपने ढंग से इस कानून की व्याख्या की. डॉ. पीएम त्रिपाठी कहते हैं कि उन्होंने जो तर्क दिया वह चौंकाने वाला था. केसरीनाथ त्रिपाठी ने बसपा सदस्यों की सदस्यता समाप्त न किए जाने को लेकर दलील दी कि इस कानून के तहत दो तिहाई विधायकों का टूटना आवश्यक है. विधायक कब तक टूटकर दो तिहाई संख्या पूर्ण करेंगे. इसका जिक्र कानून में नहीं है. इसलिए विधायकों के टूटने की अभी यह प्रक्रिया शुरू हुई है. इस प्रकार से विधानसभा अध्यक्ष ने दल-बदल करने वाले विधायकों की सदस्यता ही नहीं बचाई, बल्कि बसपा के अन्य सदस्यों को टूटकर भाजपा में शामिल होने का रास्ता भी दिखा दिया.

लखनऊ: विचारधारा को तिलांजलि देकर दूसरे दल में सत्ता के मोह में शामिल होने का सिलसिला देश में पहली लोकसभा से ही शुरू हो गया था. सत्तर का दशक आते-आते दल बदलने की प्रवृत्ति ने बहुत बड़ा रूप ले लिया. राजीव गांधी की सरकार दल-बदल विरोधी कानून लेकर आई. इस कानून का उद्देश्य पूरा होता नहीं दिखा तो वर्ष 2003 में एक बार फिर इसमें संशोधन किया गया.

दल-बदल की नीति पर बात करते संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी.

संविधान विशेषज्ञ डॉ. पीएम त्रिपाठी ने कहा कि दल-बदल कानून को अगर समझना है तो आपको पहले लोकसभा चुनाव 1952 को देखना होगा. पहली लोकसभा में ही दल-बदल के मामले सामने दिखने लगे थे. 1960 का दशक आते-आते बड़ी मात्रा में विधायक और सांसदों के दल-बदल की प्रवृत्ति बढ़ती चली गई. एक आंकड़ा है, उसके अनुसार अगर देखें तो 1967 से 1971 के बीच में 142 विधायकों ने और 1900 से ज्यादा सांसदों ने दल-बदल किया. दल-बदल की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हुए 1985 में राजीव गांधी सरकार ने 52वां संशोधन प्रस्तुत किया और उसको दसवीं अनुसूची में डाला. इसी को कहते हैं दल-बदल निरोधक अधिनियम. यह एक मार्च 1985 से लागू हुआ था.

कानून को बना दिया गया कमजोर
इस कानून में इस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया, इस तरीके के प्रावधान किए गए कि जानबूझकर इतना कमजोर बना दिया गया कि उसकी मनमानी व्याख्या की जा सके. यही वजह रही कि राज्य दर राज्य दल-बदल के मामले आने लगे. यह मामले स्पीकर के सामने आए तो सबने अपने-अपने राजनीतिक निहितार्थ को देखते हुए इस कानून की व्याख्या की. यानी दल-बदल कानून लाने का जो मूल उद्देश्य था कि दल-बदल पर रोक लगे, दल-बदल की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगे, इस कानून से मंशा पूरी नहीं हुई. इस कानून के इतने सारे बेजा इस्तेमाल हुए कि अगर उस पर चर्चा की जाए तो एक धारावाहिक बनाया जा सकता है.

इस कानून से विधायक और सांसद की स्वतंत्रता छीनने की बात पर डॉक्टर पीएन त्रिपाठी कहते हैं कि लोकतंत्र की बुनियादी सोच यही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता. आप अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही अवरुद्ध कर देंगे तो आप लोकतंत्र का हनन कर रहे हैं. आप एक संसदीय लोकतांत्रिक देश में रहते हुए लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत लोकतांत्रिक प्रजातंत्र में लोकतांत्रिक राजनीतिक दल की प्रक्रिया को आप आगे नहीं बढ़ा रहे हैं. इसलिए मेरा विचार तो यह है कि दल-बदल कानून को खत्म कर देना चाहिए. किसी भी तरीके के दल-बदल को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. जिस दल के चुनाव चिह्न पर चुनकर आए हैं, वह दल छोड़कर यदि दूसरे दल में शामिल होते हैं तो उनकी सदस्यता उसी वक्त समाप्त कर देनी चाहिए.

अन्य लोकतांत्रिक देशों में नहीं है दल-बदल कानून की कोई व्यवस्था
इसमें 2/3 का प्रावधान है. दूसरा प्रावधान पार्टी के विलय का है, तो दल-बदल का कानून नहीं लगेगा. दल-बदल कानून के अन्य प्रावधान, जिनमें स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है. दल-बदल की व्याख्या स्पीकर को करनी है. स्पीकर कितने दिन में फैसला देंगे, इसका कोई प्रावधान नहीं है. जहां स्पीकर को लगता है इसको तुरंत रद्द कर देना चाहिए, वहां पर जैसे ही मामला सामने आएगा उसी समय सदस्यता रद्द कर दी जाएगी. यदि उन्हें लगेगा कि सदस्यता समाप्त नहीं की जानी चाहिए तो वह प्रकरण को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं. इतनी सारी खामियां इस कानून में है कि इस कानून का जो बुनियादी मकसद था, पूरा नहीं हो पाता है. दुनिया के जितने भी लोकतांत्रिक देश हैं, उनमें कहीं पर भी दल-बदल कानून जैसी कोई भी व्यवस्था नहीं है. अगर आपने दल-बदल किया है तो आप उसी दिन अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे.

दल-बदल कानून को लेकर अभी तक जितनी रिपोर्ट आई हैं, उसमें यह सामने आया है कि दल-बदल को रोकने में मदद के बजाए इसे बढ़ावा मिला है. सांसद और विधायक को लोकतंत्र में अपनी बात कहने की आजादी अपने ही राजनीतिक दल में होनी चाहिए. किसी राजनीतिक दल के सदस्य अपने दल की नीति, कार्यक्रम से सहमत नहीं हैं तो उन्हें यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने वरिष्ठ लोगों के सामने विरोध दर्ज करा सकें. अगर सदस्य को उसके चलते अनुशासनहीनता के आधार पर निकाला जाएगा तो लोकतंत्र के नाम पर यह लोकतंत्र को ही नुकसान पहुंचाने वाला निर्णय होगा. ह्विप जारी करके राजनीतिक दल अपने ही सदस्यों को बाध्य करते हैं. इसलिए अब इस कानून को समाप्त कर सीधा कानून बनाने की आवश्यकता आ गई है.

यूपी का यह दल-बदल रहा सबसे चर्चित
यूपी में भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की साझा सरकार थी. भाजपा और बसपा की अनबन हुई. इसके बाद सरकार गिर गई. बसपा के कई विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए. इस पर बसपा ने अपने सदस्यों की विधानसभा सदस्यता समाप्त किए जाने की याचिका दायर की. तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने भी अपने ढंग से इस कानून की व्याख्या की. डॉ. पीएम त्रिपाठी कहते हैं कि उन्होंने जो तर्क दिया वह चौंकाने वाला था. केसरीनाथ त्रिपाठी ने बसपा सदस्यों की सदस्यता समाप्त न किए जाने को लेकर दलील दी कि इस कानून के तहत दो तिहाई विधायकों का टूटना आवश्यक है. विधायक कब तक टूटकर दो तिहाई संख्या पूर्ण करेंगे. इसका जिक्र कानून में नहीं है. इसलिए विधायकों के टूटने की अभी यह प्रक्रिया शुरू हुई है. इस प्रकार से विधानसभा अध्यक्ष ने दल-बदल करने वाले विधायकों की सदस्यता ही नहीं बचाई, बल्कि बसपा के अन्य सदस्यों को टूटकर भाजपा में शामिल होने का रास्ता भी दिखा दिया.

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