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क्या कांग्रेस की चुनावी नैया को पार लगाएंगे सवर्ण प्रदेश अध्यक्ष ? - vidhan sabha election

कांग्रेस दफ्तर में इन दिनों नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर काफी गहमा-गहमी है. चर्चा है कि विधानसभा चुनाव में जाने से पहले कांग्रेस किसी सवर्ण नेता पर दांव लगा सकती है. इसके अलावा पार्टी किसी ब्राह्मण चेहरे को बतौर मुख्यमंत्री भी पेश कर सकती है.

कांग्रेस की तैयारी.
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Published : Jun 21, 2021, 9:13 PM IST

Updated : Jun 21, 2021, 9:46 PM IST

लखनऊ: कांग्रेस पार्टी पिछले तीन दशकों से उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में पार्टी ने गठबंधन के सहारे जीतने की कोशिश की, मगर वह नाकाम साबित हुई. इन अनुभवों के आधार पर कांग्रेस कई प्रयोग कर रही है. पहला, प्रियंका गांधी मंदिरों में जाकर सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर मुड़ने का संकेत दे रहीं है. दूसरा, मुसलमानों को भी अपने पाले में लाने का प्रयास किए जा रहे हैं. अब सबसे अधिक फोकस अब अपने तीन दशक पुराने परंपरागत वोटर ब्राह्मण समुदाय से समर्थन लेने पर है. इस कड़ी में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी किसी सवर्ण नेता के खाते में जाने की चर्चा की जा रही है. साथ ही मुख्यमंत्री के लिए किसी ब्राह्मण चेहरे को यूपी के सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट करने की अटकलें भी लगाई जा रही है. फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष की रेस में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रमोद तिवारी, आचार्य प्रमोद कृष्णम और आरपीएन सिंह शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश में करीब 12 फीसदी है ब्राह्मणों की आबादी

उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या तकरीबन 12 फीसद है. पिछले तीन विधानसभा चुनाव में इस वोट बैंक ने जिस दल को समर्थन दिया, उसे लखनऊ में सत्ता मिली. इसलिए सभी पार्टियां ब्राह्मणों को अपनी तरफ आकर्षित करने में जुट गई हैं. 80 के दशक तक बाबरी मस्जिद विवाद से पहले लगातार ब्राह्मण मतदाता सिर्फ कांग्रेस पार्टी को ही अपनी पार्टी मानते थे. 1986 में विवादित स्थल पर राम मंदिर का ताला खुला, तो प्रदेश में हिंदुत्व की राजनीति का दबदबा बढ़ने लगा. जब भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर के लिए मुखर हुई तो ब्राह्मण उसकी ओर आकर्षित हुए. इसके बाद सवर्ण धीरे-धीरे बीजेपी के करीब और कांग्रेस से दूर होते गए.

स्पेशल रिपोर्ट.

किसी एक पार्टी का होकर नहीं रहा ब्राह्मण

तीन दशक पहले तक जहां ब्राह्मण सिर्फ कांग्रेस को ही अपनी पार्टी मानते थे लेकिन इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें अपनी तरफ आकर्षित किया. साल 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा को आगे कर एक बड़ा दांव खेला. सोशल इंजीनियरिंग का यह फार्मूला पूरी तरह से फिट बैठा और ब्राह्मणों ने प्रचंड बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर मायावती को बैठा दिया. साल 2012 आते-आते बसपा के सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकल गई. ब्राह्मणों ने 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का रुख कर लिया. 2012 में सपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुई. इसके बाद एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की बारी आई. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की ऐसी आंधी चली कि ब्राह्मण बीजेपी से जुड़ गए. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मणों का आशीर्वाद मिला और बीजेपी ने प्रचंड बहुमत हासिल कर सत्ता का स्वाद चखा.

कांग्रेस को प्रदेश अध्यक्ष की तलाश.
विधानसभा.

आखिर कांग्रेस को क्यों है ब्राह्मण चेहरे की जरूरत

कांग्रेस ने ब्राह्मणों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए जितिन प्रसाद को आगे किया था. जितिन प्रसाद ने ब्राह्मण एकता परिषद का गठन कर भाजपा से नाराज ब्राह्मणों को कांग्रेस के पाले में लाने की कवायद शुरू की थी. उनकी ब्राह्मण एकता परिषद से लोगों का जुड़ाव भी होने लगा था. इस बीच भारतीय जनता पार्टी ने जितिन प्रसाद को अपने पाले में मिला लिया. इससे कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फिर गया. बीजेपी अब जितिन प्रसाद को ब्राह्मण चेहरे के रूप में पेश कर रही है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी सवर्ण हैं और भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी हैं. ऐसे में भाजपा ने इन सभी वर्गों को सरकार और संगठन में प्रतिनिधित्व दिया है. ऐसे में कांग्रेस किसी सवर्ण चेहरे को सामने लाकर बीजेपी की रणनीति को तोड़ने का फैसला लिया है. इसके अलावा कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू को लेकर भी संगठन में नाराजगी है. पार्टी के प्रदेश सचिव रह चुके सुनील राय इसकी शिकायत राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी से कर चुके है. सवर्ण चेहरा कांग्रेस को एक साथ कई निशाने साधने में मददगार साबित हो सकता है.

यह भी पढ़ें: उत्तर प्रदेश में किसी मुल्ला की नहीं बल्कि योगी जी की सरकार है: मोहसिन रजा

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की रेस में 4 नाम, उनमें से 3 ब्राह्मण

प्रदेश अध्यक्ष के दौर में कांग्रेस के तीन चेहरे चर्चा में हैं. इनमें कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी का नाम सबसे ऊपर रखा जा रहा है. इसके बाद आचार्य प्रमोद कृष्णम का नाम है, जो प्रियंका गांधी के राजनीतिक सलाहकार भी हैं. प्रमोद कृष्णम 2019 में लखनऊ से ही राजनाथ सिंह के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं. कांग्रेस कार्यालय में तीसरा नाम आरपीएन सिंह का भी लिया जाने लगा है. इसके पीछे वजह है कि जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह अच्छे मित्र हैं. जितिन बीजेपी में जा चुके हैं. आरपीएन सिंह भी कहीं ऐसा कदम न उठा लें इसलिए पार्टी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना सकती है. प्रदेश अध्यक्ष की सूची में ललितेश पति त्रिपाठी का नाम भी आगे किया जा रहा है. कुल मिलाकर यह तय है कि प्रदेश अध्यक्ष का बदलाव होगा तो निश्चित तौर पर कांग्रेस पार्टी सवर्ण चेहरे पर ही दांव लगाने वाली है.

'पीके' ने लगाया था 'शीला' पर दांव, मगर गठबंधन से उल्टा पड़ा दांव

कांग्रेस के पदाधिकारियों का कहना है कि 2022 के चुनाव में पार्टी किसी ब्राह्मण चेहरे को सीएम प्रोजेक्ट कर सकती है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने ब्राह्मण वोटों को लुभाने के लिए शीला दीक्षित को संभावित सीएम के तौर पर पेश किया था. अचानक कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन हो गया और और प्रशांत किशोर की रणनीति धरी रह गई. इसके बाद शीला दीक्षित ही सीएम का फेस नहीं रह गईं इसलिए ब्राह्मणों ने कांग्रेस की तरफ ध्यान ही नहीं दिया.

कांग्रेस के पास अब ऐसा नेता नहीं, जिसके पीछे ब्राह्मण लामबंद हों

पॉलिटिकल एक्सपर्ट अशोक सिंह का मानना है कि पहले कांग्रेस के पास गोविंद बल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्रा और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता थे, जिनके पीछे ब्राह्मण खड़े रहते थे. अभी कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं है. हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के जरिये भाजपा ने जो पैठ बनाई है, उसे खत्म करना आसान नहीं है. कांग्रेस ब्राह्मण चेहरा लाने के बजाय अगर टिकट वितरण में उन्हें महत्व देती है तो इसका असर विधानसभा चुनाव में दिखेगा.

आखिर कांग्रेस से क्यों रूठ गए ब्राह्मण

1991 में जब केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार बनी तो एनडी तिवारी को कम तवज्जो मिलने लगी, जिससे ब्राह्मण नाराज हुए. मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद जब सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में सवर्ण और ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती मिली, तो कांग्रेस उन्हें समझा नहीं सकी. कश्मीरी पंडितों के पलायन, शाहबानो केस और तथाकथित मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों ने सवर्णों को कांग्रेस से दूर किया. जब राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ तो रही-सही कसर भी पूरी हो गई. भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर फोकस करने लगी. इसके अलावा आरक्षण पर भी बीजेपी का रुख अन्य पार्टियों की तुलना में सवर्णों के लिए नरम रही. यही वजह है कि बीजेपी ब्राह्मणों की पसंद बनी है.

यह भी पढ़ें: वसीम रिजवी का विवादित बयान: कुरान को बताया आतंक की शिक्षा देने वाली किताब

राजनीतिक विश्लेषक बोले, सिर्फ चेहरा बदलने से नहीं मिलेगा खास फायदा

राजनीतिक विश्लेषक विजय उपाध्याय मानते हैं कि 32 साल से कांग्रेस यूपी में कमजोर हालत में है. पार्टी ने 1996 में बीएसपी के साथ चुनाव लड़ने और 2017 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने के बाद भी उसकी स्थिति नहीं सुधरी. विजय उपाध्याय का कहना है कि जातिगत नेतृत्व बदलने से खास प्रभाव नहीं पड़ेगा. ऐसा नहीं होता है कि किसी खास जाति नेतृत्व से उस जाति का वोट पार्टी को मिल जाएगा. अगर ऐसा होता तो ओबीसी समुदाय के अजय कुमार लल्लू कांग्रेस के लिए पिछड़ा वर्ग का वोट जुटा लेते. सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को रीति-नीति और कार्यक्रम को बदलना पड़ेगा. नेतृत्व बदलने के साथ जनता का विश्वास जीतना जरूरी है.

लखनऊ: कांग्रेस पार्टी पिछले तीन दशकों से उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में पार्टी ने गठबंधन के सहारे जीतने की कोशिश की, मगर वह नाकाम साबित हुई. इन अनुभवों के आधार पर कांग्रेस कई प्रयोग कर रही है. पहला, प्रियंका गांधी मंदिरों में जाकर सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर मुड़ने का संकेत दे रहीं है. दूसरा, मुसलमानों को भी अपने पाले में लाने का प्रयास किए जा रहे हैं. अब सबसे अधिक फोकस अब अपने तीन दशक पुराने परंपरागत वोटर ब्राह्मण समुदाय से समर्थन लेने पर है. इस कड़ी में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी किसी सवर्ण नेता के खाते में जाने की चर्चा की जा रही है. साथ ही मुख्यमंत्री के लिए किसी ब्राह्मण चेहरे को यूपी के सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट करने की अटकलें भी लगाई जा रही है. फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष की रेस में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रमोद तिवारी, आचार्य प्रमोद कृष्णम और आरपीएन सिंह शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश में करीब 12 फीसदी है ब्राह्मणों की आबादी

उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या तकरीबन 12 फीसद है. पिछले तीन विधानसभा चुनाव में इस वोट बैंक ने जिस दल को समर्थन दिया, उसे लखनऊ में सत्ता मिली. इसलिए सभी पार्टियां ब्राह्मणों को अपनी तरफ आकर्षित करने में जुट गई हैं. 80 के दशक तक बाबरी मस्जिद विवाद से पहले लगातार ब्राह्मण मतदाता सिर्फ कांग्रेस पार्टी को ही अपनी पार्टी मानते थे. 1986 में विवादित स्थल पर राम मंदिर का ताला खुला, तो प्रदेश में हिंदुत्व की राजनीति का दबदबा बढ़ने लगा. जब भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर के लिए मुखर हुई तो ब्राह्मण उसकी ओर आकर्षित हुए. इसके बाद सवर्ण धीरे-धीरे बीजेपी के करीब और कांग्रेस से दूर होते गए.

स्पेशल रिपोर्ट.

किसी एक पार्टी का होकर नहीं रहा ब्राह्मण

तीन दशक पहले तक जहां ब्राह्मण सिर्फ कांग्रेस को ही अपनी पार्टी मानते थे लेकिन इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें अपनी तरफ आकर्षित किया. साल 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा को आगे कर एक बड़ा दांव खेला. सोशल इंजीनियरिंग का यह फार्मूला पूरी तरह से फिट बैठा और ब्राह्मणों ने प्रचंड बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर मायावती को बैठा दिया. साल 2012 आते-आते बसपा के सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकल गई. ब्राह्मणों ने 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का रुख कर लिया. 2012 में सपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुई. इसके बाद एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की बारी आई. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की ऐसी आंधी चली कि ब्राह्मण बीजेपी से जुड़ गए. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मणों का आशीर्वाद मिला और बीजेपी ने प्रचंड बहुमत हासिल कर सत्ता का स्वाद चखा.

कांग्रेस को प्रदेश अध्यक्ष की तलाश.
विधानसभा.

आखिर कांग्रेस को क्यों है ब्राह्मण चेहरे की जरूरत

कांग्रेस ने ब्राह्मणों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए जितिन प्रसाद को आगे किया था. जितिन प्रसाद ने ब्राह्मण एकता परिषद का गठन कर भाजपा से नाराज ब्राह्मणों को कांग्रेस के पाले में लाने की कवायद शुरू की थी. उनकी ब्राह्मण एकता परिषद से लोगों का जुड़ाव भी होने लगा था. इस बीच भारतीय जनता पार्टी ने जितिन प्रसाद को अपने पाले में मिला लिया. इससे कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फिर गया. बीजेपी अब जितिन प्रसाद को ब्राह्मण चेहरे के रूप में पेश कर रही है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी सवर्ण हैं और भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी हैं. ऐसे में भाजपा ने इन सभी वर्गों को सरकार और संगठन में प्रतिनिधित्व दिया है. ऐसे में कांग्रेस किसी सवर्ण चेहरे को सामने लाकर बीजेपी की रणनीति को तोड़ने का फैसला लिया है. इसके अलावा कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू को लेकर भी संगठन में नाराजगी है. पार्टी के प्रदेश सचिव रह चुके सुनील राय इसकी शिकायत राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी से कर चुके है. सवर्ण चेहरा कांग्रेस को एक साथ कई निशाने साधने में मददगार साबित हो सकता है.

यह भी पढ़ें: उत्तर प्रदेश में किसी मुल्ला की नहीं बल्कि योगी जी की सरकार है: मोहसिन रजा

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की रेस में 4 नाम, उनमें से 3 ब्राह्मण

प्रदेश अध्यक्ष के दौर में कांग्रेस के तीन चेहरे चर्चा में हैं. इनमें कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी का नाम सबसे ऊपर रखा जा रहा है. इसके बाद आचार्य प्रमोद कृष्णम का नाम है, जो प्रियंका गांधी के राजनीतिक सलाहकार भी हैं. प्रमोद कृष्णम 2019 में लखनऊ से ही राजनाथ सिंह के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं. कांग्रेस कार्यालय में तीसरा नाम आरपीएन सिंह का भी लिया जाने लगा है. इसके पीछे वजह है कि जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह अच्छे मित्र हैं. जितिन बीजेपी में जा चुके हैं. आरपीएन सिंह भी कहीं ऐसा कदम न उठा लें इसलिए पार्टी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना सकती है. प्रदेश अध्यक्ष की सूची में ललितेश पति त्रिपाठी का नाम भी आगे किया जा रहा है. कुल मिलाकर यह तय है कि प्रदेश अध्यक्ष का बदलाव होगा तो निश्चित तौर पर कांग्रेस पार्टी सवर्ण चेहरे पर ही दांव लगाने वाली है.

'पीके' ने लगाया था 'शीला' पर दांव, मगर गठबंधन से उल्टा पड़ा दांव

कांग्रेस के पदाधिकारियों का कहना है कि 2022 के चुनाव में पार्टी किसी ब्राह्मण चेहरे को सीएम प्रोजेक्ट कर सकती है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने ब्राह्मण वोटों को लुभाने के लिए शीला दीक्षित को संभावित सीएम के तौर पर पेश किया था. अचानक कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन हो गया और और प्रशांत किशोर की रणनीति धरी रह गई. इसके बाद शीला दीक्षित ही सीएम का फेस नहीं रह गईं इसलिए ब्राह्मणों ने कांग्रेस की तरफ ध्यान ही नहीं दिया.

कांग्रेस के पास अब ऐसा नेता नहीं, जिसके पीछे ब्राह्मण लामबंद हों

पॉलिटिकल एक्सपर्ट अशोक सिंह का मानना है कि पहले कांग्रेस के पास गोविंद बल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्रा और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता थे, जिनके पीछे ब्राह्मण खड़े रहते थे. अभी कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं है. हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के जरिये भाजपा ने जो पैठ बनाई है, उसे खत्म करना आसान नहीं है. कांग्रेस ब्राह्मण चेहरा लाने के बजाय अगर टिकट वितरण में उन्हें महत्व देती है तो इसका असर विधानसभा चुनाव में दिखेगा.

आखिर कांग्रेस से क्यों रूठ गए ब्राह्मण

1991 में जब केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार बनी तो एनडी तिवारी को कम तवज्जो मिलने लगी, जिससे ब्राह्मण नाराज हुए. मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद जब सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में सवर्ण और ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती मिली, तो कांग्रेस उन्हें समझा नहीं सकी. कश्मीरी पंडितों के पलायन, शाहबानो केस और तथाकथित मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों ने सवर्णों को कांग्रेस से दूर किया. जब राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ तो रही-सही कसर भी पूरी हो गई. भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर फोकस करने लगी. इसके अलावा आरक्षण पर भी बीजेपी का रुख अन्य पार्टियों की तुलना में सवर्णों के लिए नरम रही. यही वजह है कि बीजेपी ब्राह्मणों की पसंद बनी है.

यह भी पढ़ें: वसीम रिजवी का विवादित बयान: कुरान को बताया आतंक की शिक्षा देने वाली किताब

राजनीतिक विश्लेषक बोले, सिर्फ चेहरा बदलने से नहीं मिलेगा खास फायदा

राजनीतिक विश्लेषक विजय उपाध्याय मानते हैं कि 32 साल से कांग्रेस यूपी में कमजोर हालत में है. पार्टी ने 1996 में बीएसपी के साथ चुनाव लड़ने और 2017 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने के बाद भी उसकी स्थिति नहीं सुधरी. विजय उपाध्याय का कहना है कि जातिगत नेतृत्व बदलने से खास प्रभाव नहीं पड़ेगा. ऐसा नहीं होता है कि किसी खास जाति नेतृत्व से उस जाति का वोट पार्टी को मिल जाएगा. अगर ऐसा होता तो ओबीसी समुदाय के अजय कुमार लल्लू कांग्रेस के लिए पिछड़ा वर्ग का वोट जुटा लेते. सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को रीति-नीति और कार्यक्रम को बदलना पड़ेगा. नेतृत्व बदलने के साथ जनता का विश्वास जीतना जरूरी है.

Last Updated : Jun 21, 2021, 9:46 PM IST
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