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यूपी की सियासत में 'ब्रह्मास्त्र' है ब्राह्मण वोट बैंक, जानें ये खास समीकरण

यूपी की सियासत में सबसे अहम माने जाने वाले जातिगण समीकरणों से निष्कर्ष निकालने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इन सबके बीच जो आबादी सबसे अधिक चुनावी परिणामों को प्रभावित करते आई है, वो है ब्राह्मण. सूबे में भले ही ब्राह्मणों की आबादी 12 फीसदी हो, लेकिन इनका सत्ता में दखल का एक लंबा इतिहास रहा है.

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Published : Feb 25, 2022, 10:25 AM IST

Updated : Feb 25, 2022, 11:17 AM IST

लखनऊ: यूपी विधानसभा चुनाव के चार चरणों के संपन्न होने के बाद अब पांचवें चरण के लिए सियासी पार्टियों की जोर आजमाइश का आज आखिरी दिन है यानी आज शाम 6 बजे प्रचार थम जाएगा. वहीं, अब सियासी गलियारों में इस बात के कयास लगने शुरू हो गए हैं कि आगे सूबे में किसकी सरकार बनेगी. इसके अलावा सूबे की सियासत में सबसे अहम माने जाने वाले जातिगण समीकरणों से निष्कर्ष निकालने की कोशिश की जा रही है. खैर, इन सबके बीच जो आबादी सबसे अधिक चुनावी परिणामों को प्रभावित करते आई है, वो है ब्राह्मण. सूबे में भले ही ब्राह्मणों की आबादी 12 फीसदी हो, लेकिन सत्ता में दखल का एक लंबा इतिहास रहा है. यही कारण है कि विधानसभा चुनावों में इस आबादी की भागीदारी अहम होती है. 2022 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं की डिमांड का असर आप पहले ही देख चुके हैं, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों के साथ ही राष्ट्रीय दलों ने भी इस जाति विशेष को आकर्षित करने को कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है. यहां तक कि अवध और पूर्वांचल की सियासत में इनका दबदबा माना जाता है.

60 सीटों पर निर्णायक

आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि 403 में से 60 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां, ब्राह्मण मतदाता निर्णायक की भूमिका में हैं. यहां ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 20% से भी ज्यादा है. प्रयागराज समेत चार ऐसे भी विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां ब्राह्मणों की संख्या 40% से भी अधिक है. ऐसे में यूपी की सत्ता हासिल करने को हर सियासी पार्टी ब्राह्मणों को खासा अहमियत देते आ रही हैं. वहीं, अबकी सबकी नजर ब्राह्मण मतदाताओं पर है और खासकर अवध और पूर्वांचल क्षेत्र में.

प्रदेश में ओबीसी, एससी और मुस्लिम मतदाताओं के बाद सबसे ज्यादा ब्राह्मणों की ही आबादी है. सूबे में करीब 12% ब्राह्मण मतदाता हैं, जो केवल चुनाव में निर्णायक भूमिका नहीं निभाते, बल्कि चुनावी माहौल बनाने में भी आगे हैं. वहीं, संख्या ठीक-ठाक होने के बावजूद ब्राह्मणों के लिए कोई खास पार्टी तय नहीं है. जैसे यादवों के लिए समाजवादी पार्टी तो दलित मतदाताओं के लिए बहुजन समाज पार्टी के साथ ही अन्य कई छोटे-बड़े दल हैं, लेकिन ब्राह्मण मतदाताओं को किसी एक विशेष पार्टी के साथ जोड़कर नहीं देखा जाता है. पहले कांग्रेस में ब्राह्मणों की भूमिका जरूर अहम थी, लेकिन अब नई पीढ़ी के आने के बाद से वो समाप्त हो चुकी है. ब्राह्मण मतदाताओं के साथ सामान्य वर्ग की अन्य जातियों के मतदाता भी जुड़ते हैं. इनमें कायस्थ, भूमिहार, बरनवाल, बनिया, राजपूत समेत अन्य जातियां शामिल हैं.

एक नजर में

  • - सूबे में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 12% है.
  • - प्रदेश में 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने.
  • - एनडी तिवारी प्रदेश के आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे.
  • - 2017 में भाजपा की टिकट पर 46 ब्राह्मण विधायक बने.
  • - 2012 में समाजवादी पार्टी से चुनाव जीत 21 ब्राह्मण विधायक बने.
  • - 2007 में बसपा से 41 ब्राह्मण विधायक बने.

आमतौर पर ठाकुर और ब्राह्मणों में मतभेद की बात कही जाती है, लेकिन कई मुद्दों पर ब्राह्मण और ठाकुर भी एक हो जाते हैं. ऐसे में किसी पार्टी के साथ ब्राह्मण मतदाताओं के जुड़ने से अन्य सामान्य वर्ग की जातियों पर भी प्रभाव पड़ता रहा है. वहीं, चुनाव से पहले बसपा ने प्रदेश के सभी जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन कराए थे. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने लखनऊ में भगवान परशुराम की मूर्ति का अनावरण किया था तो भाजपा ने ब्राह्मण मतदाताओं को साधने के लिए ब्राह्मण नेताओं की एक कमेटी बनाई थी. ऐसे में सवाल उठता है आखिर ब्राह्मण यूपी की सियासत के लिए क्यों जरूरी हैं?

तो इसलिए जरूरी है ब्राह्मणों का साथ

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 63 ब्राह्मण प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था, जिसमें से 41 ने जीत हासिल की थी और तब सूबे में मायावती की सरकार बनी थी. उस दौरान बसपा की ओर से नारा दिया गया था- 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है.' मायावती का ये बड़ा सियासी दांव था, जो सफल हुआ था. इधर, 2012 में भाजपा ने सबसे ज्यादा 62 ब्राह्मण उम्मीदवारों को उतारा था, जबकि बसपा ने 58, सपा ने 38 और कांग्रेस ने 52 ब्राह्मणों पर सियासी दांव चला था. लेकिन ब्राह्मण वोटों में बंटवारे की स्थिति में समाजवादी पार्टी को लाभ हुआ और उसके पक्ष में यादव-मुस्लिम वोटों के पड़ने से सूबे में उसकी सरकार बनी. हालांकि, 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के 312 विधायकों में से 58 ब्राह्मण चुने गए थे. वहीं, वर्तमान में प्रदेश में नौ ब्राह्मण मंत्री हैं.

ब्राह्मणों को रिझाने के लिए किए गए ये प्रयास...

बसपा ने सूबे की 75 जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन कराए और खुद मायावती बोल चुकी हैं कि बसपा की सरकार बनने पर ब्राह्मणों को उचित सम्मान देंगी. वहीं, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भगवान परशुराम की मूर्ति का अनावरण कर एलान किया कि अगर उनकी सरकार बनती है तो प्रदेश में भगवान परशुराम की सबसे बड़ी मूर्ति बनवाई जाएगी. इसके अलावा सपा ने कई ब्राह्मण सभाएं की. ऐसे में सत्तारूढ़ भाजपा कहां पीछे रहने वाली थी. भाजपा ने अपने नौ ब्राह्मण मंत्रियों और 58 ब्राह्मण विधायकों की एक कमेटी बना कर ब्राह्मण मतदाताओं को अपने पाले में करने को जिलेवार विशेष रणनीति पर काम किया है. लेकिन अगर मौजूदा सियासी परिदृश्य को देखे तो फिलहाल कुछ भी स्पष्ट नहीं है, क्योंकि मतदाताओं की खामोशी कुछ और ही बयां कर रही है.

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लखनऊ: यूपी विधानसभा चुनाव के चार चरणों के संपन्न होने के बाद अब पांचवें चरण के लिए सियासी पार्टियों की जोर आजमाइश का आज आखिरी दिन है यानी आज शाम 6 बजे प्रचार थम जाएगा. वहीं, अब सियासी गलियारों में इस बात के कयास लगने शुरू हो गए हैं कि आगे सूबे में किसकी सरकार बनेगी. इसके अलावा सूबे की सियासत में सबसे अहम माने जाने वाले जातिगण समीकरणों से निष्कर्ष निकालने की कोशिश की जा रही है. खैर, इन सबके बीच जो आबादी सबसे अधिक चुनावी परिणामों को प्रभावित करते आई है, वो है ब्राह्मण. सूबे में भले ही ब्राह्मणों की आबादी 12 फीसदी हो, लेकिन सत्ता में दखल का एक लंबा इतिहास रहा है. यही कारण है कि विधानसभा चुनावों में इस आबादी की भागीदारी अहम होती है. 2022 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं की डिमांड का असर आप पहले ही देख चुके हैं, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों के साथ ही राष्ट्रीय दलों ने भी इस जाति विशेष को आकर्षित करने को कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है. यहां तक कि अवध और पूर्वांचल की सियासत में इनका दबदबा माना जाता है.

60 सीटों पर निर्णायक

आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि 403 में से 60 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां, ब्राह्मण मतदाता निर्णायक की भूमिका में हैं. यहां ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 20% से भी ज्यादा है. प्रयागराज समेत चार ऐसे भी विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां ब्राह्मणों की संख्या 40% से भी अधिक है. ऐसे में यूपी की सत्ता हासिल करने को हर सियासी पार्टी ब्राह्मणों को खासा अहमियत देते आ रही हैं. वहीं, अबकी सबकी नजर ब्राह्मण मतदाताओं पर है और खासकर अवध और पूर्वांचल क्षेत्र में.

प्रदेश में ओबीसी, एससी और मुस्लिम मतदाताओं के बाद सबसे ज्यादा ब्राह्मणों की ही आबादी है. सूबे में करीब 12% ब्राह्मण मतदाता हैं, जो केवल चुनाव में निर्णायक भूमिका नहीं निभाते, बल्कि चुनावी माहौल बनाने में भी आगे हैं. वहीं, संख्या ठीक-ठाक होने के बावजूद ब्राह्मणों के लिए कोई खास पार्टी तय नहीं है. जैसे यादवों के लिए समाजवादी पार्टी तो दलित मतदाताओं के लिए बहुजन समाज पार्टी के साथ ही अन्य कई छोटे-बड़े दल हैं, लेकिन ब्राह्मण मतदाताओं को किसी एक विशेष पार्टी के साथ जोड़कर नहीं देखा जाता है. पहले कांग्रेस में ब्राह्मणों की भूमिका जरूर अहम थी, लेकिन अब नई पीढ़ी के आने के बाद से वो समाप्त हो चुकी है. ब्राह्मण मतदाताओं के साथ सामान्य वर्ग की अन्य जातियों के मतदाता भी जुड़ते हैं. इनमें कायस्थ, भूमिहार, बरनवाल, बनिया, राजपूत समेत अन्य जातियां शामिल हैं.

एक नजर में

  • - सूबे में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 12% है.
  • - प्रदेश में 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने.
  • - एनडी तिवारी प्रदेश के आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे.
  • - 2017 में भाजपा की टिकट पर 46 ब्राह्मण विधायक बने.
  • - 2012 में समाजवादी पार्टी से चुनाव जीत 21 ब्राह्मण विधायक बने.
  • - 2007 में बसपा से 41 ब्राह्मण विधायक बने.

आमतौर पर ठाकुर और ब्राह्मणों में मतभेद की बात कही जाती है, लेकिन कई मुद्दों पर ब्राह्मण और ठाकुर भी एक हो जाते हैं. ऐसे में किसी पार्टी के साथ ब्राह्मण मतदाताओं के जुड़ने से अन्य सामान्य वर्ग की जातियों पर भी प्रभाव पड़ता रहा है. वहीं, चुनाव से पहले बसपा ने प्रदेश के सभी जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन कराए थे. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने लखनऊ में भगवान परशुराम की मूर्ति का अनावरण किया था तो भाजपा ने ब्राह्मण मतदाताओं को साधने के लिए ब्राह्मण नेताओं की एक कमेटी बनाई थी. ऐसे में सवाल उठता है आखिर ब्राह्मण यूपी की सियासत के लिए क्यों जरूरी हैं?

तो इसलिए जरूरी है ब्राह्मणों का साथ

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 63 ब्राह्मण प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था, जिसमें से 41 ने जीत हासिल की थी और तब सूबे में मायावती की सरकार बनी थी. उस दौरान बसपा की ओर से नारा दिया गया था- 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है.' मायावती का ये बड़ा सियासी दांव था, जो सफल हुआ था. इधर, 2012 में भाजपा ने सबसे ज्यादा 62 ब्राह्मण उम्मीदवारों को उतारा था, जबकि बसपा ने 58, सपा ने 38 और कांग्रेस ने 52 ब्राह्मणों पर सियासी दांव चला था. लेकिन ब्राह्मण वोटों में बंटवारे की स्थिति में समाजवादी पार्टी को लाभ हुआ और उसके पक्ष में यादव-मुस्लिम वोटों के पड़ने से सूबे में उसकी सरकार बनी. हालांकि, 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के 312 विधायकों में से 58 ब्राह्मण चुने गए थे. वहीं, वर्तमान में प्रदेश में नौ ब्राह्मण मंत्री हैं.

ब्राह्मणों को रिझाने के लिए किए गए ये प्रयास...

बसपा ने सूबे की 75 जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन कराए और खुद मायावती बोल चुकी हैं कि बसपा की सरकार बनने पर ब्राह्मणों को उचित सम्मान देंगी. वहीं, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भगवान परशुराम की मूर्ति का अनावरण कर एलान किया कि अगर उनकी सरकार बनती है तो प्रदेश में भगवान परशुराम की सबसे बड़ी मूर्ति बनवाई जाएगी. इसके अलावा सपा ने कई ब्राह्मण सभाएं की. ऐसे में सत्तारूढ़ भाजपा कहां पीछे रहने वाली थी. भाजपा ने अपने नौ ब्राह्मण मंत्रियों और 58 ब्राह्मण विधायकों की एक कमेटी बना कर ब्राह्मण मतदाताओं को अपने पाले में करने को जिलेवार विशेष रणनीति पर काम किया है. लेकिन अगर मौजूदा सियासी परिदृश्य को देखे तो फिलहाल कुछ भी स्पष्ट नहीं है, क्योंकि मतदाताओं की खामोशी कुछ और ही बयां कर रही है.

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Last Updated : Feb 25, 2022, 11:17 AM IST
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