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क्या जितिन प्रसाद के जरिए BJP ब्राह्मण मतदाताओं को मनाने में जुटी ? - यूपी विधानसभा चुनाव 2022

योगी सरकार कई जातियां नाराजगी दिख रही हैं. अब यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के लिए पार्टी दूसरे दलों से ब्राह्मण नेताओं को तोड़कर ला रही है. जितिन प्रसाद उसका जीता जागता प्रमाण हैं. अब सवाल उठता है कि क्या ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में इस समाज के नेताओं की कमी हो गई है ?

up assembly election 2022 news
BJP का 'ब्राह्मण स्ट्रोक'.
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Published : Jun 11, 2021, 7:18 PM IST

लखनऊः यूपी की सियासत में भाजपा के बहुत खराब दिनों में भी मतदाताओं के एक वर्ग ने पार्टी का साथ नहीं छोड़ा. करीब 16 से 18 फीसदी मतदाता बीजेपी के साथ मजबूती से खड़ा रहा. इनमें ब्राह्मण और बनिया बिरादरी के मतदाताओं की बहुलता रही. पिछले विधानसभा चुनाव में पिछड़ों का साथ मिला तो 2017 में प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा सत्तासीन हुई, कुछ समय बीतने के बाद ये जातियां सरकार से नाराज हो गई हैं.

हाशिए पर लक्ष्मीकांत बाजपेयी

चर्चा है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जितिन प्रसाद को भारतीय जनता पार्टी में नाराज ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाने के लिए लाया गया है. दूसरी तरफ पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत बाजपेयी लंबे समय से हाशिए पर चल रहे हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 50 सीटें भी नहीं जीत पाई थी. इसके बाद पार्टी नेतृत्व ने लक्ष्मीकांत बाजपेयी को यूपी बीजेपी की कमान सौंपी. बाजपेयी ने संगठन को मजबूत ही नहीं किया बल्कि विपक्ष के नाक में दम कर दिया. तत्कालीन सूबे की अखिलेश यादव सरकार को हर स्तर पर घेरने का काम किया. 2014 का लोकसभा चुनाव इन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया. राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 73 सीटों पर भाजपा गठबंधन ने जीत दर्ज की. लक्ष्मीकांत बाजपेयी की ईमानदार और आक्रामक नेताओं में गिनती है. पेशे से चिकित्सक डॉक्टर लक्ष्मीकांत बाजपेयी जमीनी नेताओं में गिने जाते हैं. जानकारों का मानना है कि राजनाथ सिंह और भाजपा के प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल से उनकी केमेस्ट्री ठीक नहीं थी. इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है. जबकि बाजपेयी के सीएम योगी से अच्छे रिस्ते माने जाते हैं.

देवरिया के सांसद व भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रामापतिराम त्रिपाठी

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के करीबी नेताओं में सुमार पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व सांसद रमापति राम त्रिपाठी मौजूदा समय में मुख्य धारा से थोड़ा अलग हैं. यह 'जूता कांड' वाले पूर्व संसद शरद त्रिपाठी के पिता हैं. वैसे तो यह लगतार किनारे ही चल रहे थे, लेकिन संतकबीरनगर के तत्कलीन सांसद के 'जूता कांड' की वजह से पार्टी ने शरद का टिकट काट दिया. बेटे के स्थान पर इन्हें टिकट मिला. वह संसद पहुंच गए. सांसद तो हो गए, लेकिन संगठन या सरकार में इनकी कोई भूमिका नजर नहीं आती. प्रदेश संगठन की इन्हें बहुत अच्छी जानकारी है. पूर्वांचल में इनकी अच्छी पैठ है. इनके समर्थकों का मानना है कि राजनाथ के खेमे के माने जाने की वजह से इनका हर जगह से पत्ता साफ हो जाता है.

इसे भी पढ़ें- ब्राह्मण चेतना परिषद को रास नहीं आया जितिन के 'हाथ में कमल' इस्तीफों का दौर शुरू

योगी के गृह जनपद गोरखपुर के शिवप्रताप शुक्ला

पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सांसद शिव प्रताप शुक्ला 80 के दशक से यूपी भाजपा की राजनीति करते आ रहे हैं. वह कल्याण सिंह की सरकार में भी मंत्री रहे हैं. यूपी भाजपा में कई बार पदाधिकारी के रूप में काम किया है. मोदी की पहली सरकार में वह वित्त राज्य मंत्री बनाए गए थे, जबकि दूसरी सरकार में उन्हें शामिल नहीं किया गया. जानकारों की मानें तो शिवप्रताप शुक्ला पार्टी में लंबे समय तक इसलिए हाशिए पर रखे गए, क्योंकि उनके भाजपा के ही एक स्थानीय नेता से रिस्ते अच्छे नहीं रहे. हालांकि केंद्र का उन पर हाथ आने के बाद से कड़वाहट थोड़ी कम हुई है. अब स्थितियां सामान्य हैं, लेकिन मुख्य धारा से उन्हें दूर रखा गया है.

कैडर के नेताओं से ज्यादा अच्छे लगते हैं आयातित

उपरोक्त जिन नेताओं की गिनती की जा रही है, उनके बारे में सवाल यह नहीं है कि पार्टी ने उन्हें कुछ नहीं दिया है या फिर दिया है. सवाल यह है कि क्या भाजपा के पास ब्राह्मण नेताओं की कमी हो चली है. ऐसा नहीं है, हमने तो सिर्फ कुछ बड़े चेहरों को गिनाया है. दूसरी पीढ़ी में एक लंबी श्रृंखला है. पार्टी के ही एक नेता कहते हैं कि किसी चेहरे को बड़ा या छोटा नेता बनाने का काम संगठन और नेतृत्व का होता है. पिछले कुछ वर्षों में संगठन और नेतृत्व ने यह नहीं किया है. कुछ चेहरों को पार्टी ने दायित्व तो दे रखा है, लेकिन उनका हस्तक्षेप नगण्य है. वह किसी निर्णायक भूमिका में नहीं हैं. पार्टी नेतृत्व अगर चाहे तो मौजूदा समय में भाजपा में सक्रिय तमाम ब्राह्मण चेहरों में से किसी को आगे करके उस क्षेत्र में स्थापित कर सकती है, लेकिन कैडर के कार्यकर्ताओं की एक कमी होती है, वह संगठन के प्रति अपनी निष्ठा रख पाते हैं. किसी व्यक्ति में उनकी निष्ठा उतनी नहीं होती है. लिहाजा उन्हें हाशिए पर धकेल दिया जा रहा है. यही वजह है कि अपने कोर कैडर के नेताओं को आगे बढ़ाने के बजाए दूसरे दलों से लाकर उन्हें बढ़ाना ज्यादा मुफीद माना जा रहा है.

जितिन को तोड़ने से कांग्रेस को भारी नुकसान

राजनीतिक विश्लेषक अशोक राजपूत का मानना है कि जितिन प्रसाद के आने से भाजपा को कोई लाभ मिले न मिले, लेकिन जितिन प्रसाद को लाभ जरूर मिलेगा. जितिन पिछले दो चुनावों से लगातार हार रहे हैं. वह खुद और उनके समर्थक हार से विचलित हो रहे थे. लगातार सत्ता में रहने की आदत से बेचैनी हो रही थी. इसीलिए उन्होंने भाजपा की तरफ देखना शुरु किया. भाजपा ने उन्हें तोड़कर कांग्रेस को कमजोर करने का संदेश जनता के बीच देने जरूर सफल रही. रही बात भाजपा में ब्राह्मण चेहरों की उपलब्धता की तो संगठन से लेकर सरकार तक कई चेहरों को शामिल किया गया है. यह उन नेताओं को तय करना है कि वह संघर्ष करें, ताकि उनकी भूमिका उच्च स्तर की हो. संगठन और सरकार उन्हें आगे करें.

लखनऊः यूपी की सियासत में भाजपा के बहुत खराब दिनों में भी मतदाताओं के एक वर्ग ने पार्टी का साथ नहीं छोड़ा. करीब 16 से 18 फीसदी मतदाता बीजेपी के साथ मजबूती से खड़ा रहा. इनमें ब्राह्मण और बनिया बिरादरी के मतदाताओं की बहुलता रही. पिछले विधानसभा चुनाव में पिछड़ों का साथ मिला तो 2017 में प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा सत्तासीन हुई, कुछ समय बीतने के बाद ये जातियां सरकार से नाराज हो गई हैं.

हाशिए पर लक्ष्मीकांत बाजपेयी

चर्चा है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जितिन प्रसाद को भारतीय जनता पार्टी में नाराज ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाने के लिए लाया गया है. दूसरी तरफ पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत बाजपेयी लंबे समय से हाशिए पर चल रहे हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 50 सीटें भी नहीं जीत पाई थी. इसके बाद पार्टी नेतृत्व ने लक्ष्मीकांत बाजपेयी को यूपी बीजेपी की कमान सौंपी. बाजपेयी ने संगठन को मजबूत ही नहीं किया बल्कि विपक्ष के नाक में दम कर दिया. तत्कालीन सूबे की अखिलेश यादव सरकार को हर स्तर पर घेरने का काम किया. 2014 का लोकसभा चुनाव इन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया. राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 73 सीटों पर भाजपा गठबंधन ने जीत दर्ज की. लक्ष्मीकांत बाजपेयी की ईमानदार और आक्रामक नेताओं में गिनती है. पेशे से चिकित्सक डॉक्टर लक्ष्मीकांत बाजपेयी जमीनी नेताओं में गिने जाते हैं. जानकारों का मानना है कि राजनाथ सिंह और भाजपा के प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल से उनकी केमेस्ट्री ठीक नहीं थी. इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है. जबकि बाजपेयी के सीएम योगी से अच्छे रिस्ते माने जाते हैं.

देवरिया के सांसद व भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रामापतिराम त्रिपाठी

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के करीबी नेताओं में सुमार पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व सांसद रमापति राम त्रिपाठी मौजूदा समय में मुख्य धारा से थोड़ा अलग हैं. यह 'जूता कांड' वाले पूर्व संसद शरद त्रिपाठी के पिता हैं. वैसे तो यह लगतार किनारे ही चल रहे थे, लेकिन संतकबीरनगर के तत्कलीन सांसद के 'जूता कांड' की वजह से पार्टी ने शरद का टिकट काट दिया. बेटे के स्थान पर इन्हें टिकट मिला. वह संसद पहुंच गए. सांसद तो हो गए, लेकिन संगठन या सरकार में इनकी कोई भूमिका नजर नहीं आती. प्रदेश संगठन की इन्हें बहुत अच्छी जानकारी है. पूर्वांचल में इनकी अच्छी पैठ है. इनके समर्थकों का मानना है कि राजनाथ के खेमे के माने जाने की वजह से इनका हर जगह से पत्ता साफ हो जाता है.

इसे भी पढ़ें- ब्राह्मण चेतना परिषद को रास नहीं आया जितिन के 'हाथ में कमल' इस्तीफों का दौर शुरू

योगी के गृह जनपद गोरखपुर के शिवप्रताप शुक्ला

पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सांसद शिव प्रताप शुक्ला 80 के दशक से यूपी भाजपा की राजनीति करते आ रहे हैं. वह कल्याण सिंह की सरकार में भी मंत्री रहे हैं. यूपी भाजपा में कई बार पदाधिकारी के रूप में काम किया है. मोदी की पहली सरकार में वह वित्त राज्य मंत्री बनाए गए थे, जबकि दूसरी सरकार में उन्हें शामिल नहीं किया गया. जानकारों की मानें तो शिवप्रताप शुक्ला पार्टी में लंबे समय तक इसलिए हाशिए पर रखे गए, क्योंकि उनके भाजपा के ही एक स्थानीय नेता से रिस्ते अच्छे नहीं रहे. हालांकि केंद्र का उन पर हाथ आने के बाद से कड़वाहट थोड़ी कम हुई है. अब स्थितियां सामान्य हैं, लेकिन मुख्य धारा से उन्हें दूर रखा गया है.

कैडर के नेताओं से ज्यादा अच्छे लगते हैं आयातित

उपरोक्त जिन नेताओं की गिनती की जा रही है, उनके बारे में सवाल यह नहीं है कि पार्टी ने उन्हें कुछ नहीं दिया है या फिर दिया है. सवाल यह है कि क्या भाजपा के पास ब्राह्मण नेताओं की कमी हो चली है. ऐसा नहीं है, हमने तो सिर्फ कुछ बड़े चेहरों को गिनाया है. दूसरी पीढ़ी में एक लंबी श्रृंखला है. पार्टी के ही एक नेता कहते हैं कि किसी चेहरे को बड़ा या छोटा नेता बनाने का काम संगठन और नेतृत्व का होता है. पिछले कुछ वर्षों में संगठन और नेतृत्व ने यह नहीं किया है. कुछ चेहरों को पार्टी ने दायित्व तो दे रखा है, लेकिन उनका हस्तक्षेप नगण्य है. वह किसी निर्णायक भूमिका में नहीं हैं. पार्टी नेतृत्व अगर चाहे तो मौजूदा समय में भाजपा में सक्रिय तमाम ब्राह्मण चेहरों में से किसी को आगे करके उस क्षेत्र में स्थापित कर सकती है, लेकिन कैडर के कार्यकर्ताओं की एक कमी होती है, वह संगठन के प्रति अपनी निष्ठा रख पाते हैं. किसी व्यक्ति में उनकी निष्ठा उतनी नहीं होती है. लिहाजा उन्हें हाशिए पर धकेल दिया जा रहा है. यही वजह है कि अपने कोर कैडर के नेताओं को आगे बढ़ाने के बजाए दूसरे दलों से लाकर उन्हें बढ़ाना ज्यादा मुफीद माना जा रहा है.

जितिन को तोड़ने से कांग्रेस को भारी नुकसान

राजनीतिक विश्लेषक अशोक राजपूत का मानना है कि जितिन प्रसाद के आने से भाजपा को कोई लाभ मिले न मिले, लेकिन जितिन प्रसाद को लाभ जरूर मिलेगा. जितिन पिछले दो चुनावों से लगातार हार रहे हैं. वह खुद और उनके समर्थक हार से विचलित हो रहे थे. लगातार सत्ता में रहने की आदत से बेचैनी हो रही थी. इसीलिए उन्होंने भाजपा की तरफ देखना शुरु किया. भाजपा ने उन्हें तोड़कर कांग्रेस को कमजोर करने का संदेश जनता के बीच देने जरूर सफल रही. रही बात भाजपा में ब्राह्मण चेहरों की उपलब्धता की तो संगठन से लेकर सरकार तक कई चेहरों को शामिल किया गया है. यह उन नेताओं को तय करना है कि वह संघर्ष करें, ताकि उनकी भूमिका उच्च स्तर की हो. संगठन और सरकार उन्हें आगे करें.

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