लखनऊ: कोरोना काल में जहां लोगों के जीने के तरीके में कई बदलाव हुए हैं, वहीं त्योहारों और रीति-रिवाजों में भी बदलाव किए जा रहे हैं. पूरे देश में बकरीद मनाई जाती है. ईद पर ईदगाहों में इस बार सन्नाटा पसरा रहा. वहीं अब ईद-उल-अजहा यानी कि बकरीद पर भी कोरोना महामारी का साया मंडराने लगा है.
शहरों में लगने वाली बकरा मंडियों पर इस बार संक्रमण को देखते हुए असमंजस की स्तिथि बनी हुई है, जिसके चलते लोग भी बकरीद के पर्व की तैयारियों और जानवर की खरीदारी को लेकर असमंजस में हैं.
कोरोना से प्रभावित हुए त्योहार
ईद-उल-अजहा (बकरीद) में बड़े पैमाने पर बकरे की कुर्बानी दी जाती है. अमूमन बक़रीद से पहले शहरों में कई जगह पर बकरा मंडिया सज जाती हैं, जहां दूर-दराज इलाकों से बकरा कारोबारी और किसान अपने जानवर बेचने के लिए मंडियों का रुख करते हैं, लेकिन कोविड-19 महामारी के चलते इस बार बकरा मंडी लगने पर असमंजस बरकरार है. दूसरे शहरों और प्रदेशों से बकरा लेकर किसान शहरों का रुख करते हैं, जहां पर प्रशासन की ओर से कई जगहों पर बड़ी-बड़ी बकरा मंडिया लगाई जाती हैं. कोरोना संक्रमण को देखते हुए ईद की तरह बकरीद पर भी महामारी का साया मंडरा रहा है, जिससे लोग परेशान हैं.
इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया के अध्यक्ष ने बताया
हालांकि इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मौलाना खालिद रशीद ने इस मसले पर बोलते हुए कहा कि बकरीद का चांद 21 जुलाई को देखा जाएगा, जिसके 10 दिन के बाद ईद-उल-अज़हा का त्योहार मनाया जाएगा. ऐसे में अभी से लोगों को बक़रीद को लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है. सरकार के बक़रीद को लेकर इंस्ट्रक्शंस को जारी होने का इंतजार करना चाहिए. मौलाना खालिद रशीद ने कहा कि पूरे देश में 31 जुलाई या फिर एक अगस्त को बकरीद मनाई जाना है, जिसमें अभी वक्त है. ऐसे में लोग इस महामारी के बढ़ते प्रकोप से निजात की दुआ करें और संक्रमण फैलने से बचाएं.
क्यों पूरी दुनिया में मनाई जाती है बकरीद
इस्लाम धर्म के तहत पूरी दुनिया में दो ईद मनाई जाती है. रमजान में पूरे महीने रोज़ा रखने के बाद ईद-उल-फित्र (ईद) मनाई जाती है और उसके 70 दिन बाद ईद-उल-अजहा यानी कि बकरीद का मौका आता है. बकरीद के मौके पर मुस्लिम समुदाय के लोग बड़े पैमाने पर जानवर की कुर्बानी देते हैं.
इस्लामिक मान्यता के अनुसार हजरत इब्राहिम को सपने में अल्लाह ने अपने सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का हुक्म दिया. हजरत इब्राहिम को 80 साल की उम्र में औलाद नसीब हुई थी. ऐसे में उनके लिए सबसे प्यारे उनके बेटे हजरत इस्माइल थे. अल्लाह का हुकुम पूरा करना उनके लिए एक बड़ा-कड़ा इम्तिहान था. एक तरफ अल्लाह का हुक्म था तो दूसरी तरफ बेटे की मोहब्बत, ऐसे में उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर अमल किया और बेटे को अल्लाह की रजा के लिए कुर्बान करने को राजी हो गए.
हजरत इब्राहिम को लगा कि बेटे की कुर्बानी देते समय उनका प्यार कहीं उन्हें यह करने से रोक न दें, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली. इसके बाद हजरत इब्राहिम ने जब अपने बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी चलाई तो अल्लाह के हुक्म से इस्माइल की जगह एक दुंबा (जानवर) पेश कर दिया गया. इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने जब अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उन्होंने अपने बेटे को अपने सामने जिंदा खड़ा पाया. अल्लाह को हजरत इब्राहिम का यह अकीदा इतना पसंद आया कि हर साहिबे हैसियत यानी कि जो कुर्बानी करने के लिए जानवर खरीदने की हैसियत रखता हो, उस पर कुर्बानी करना वाजिब करार दिया गया.
लाखों रुपये की कीमत तक मिलते हैं बकरे
बक़रीद से पहले गांव और दूर-दराज इलाकों से किसान अपने जानवर अच्छी कीमत पाने के लिए शहरों का रुख करते हैं. ऐसे में शहर के कई हिस्सों में बड़ी-बड़ी मंडियां लगती हैं, जहां खरीदार बड़ी तादाद में आते हैं. अमूमन बकरा मंडियों में 5 हजार से लेकर 5 लाख और उससे भी अधिक कीमत के बकरे मिलते हैं, लेकिन कुछ नायाब (खास) बकरे जिन पर अल्लाह या मोहम्मद कुदरती तौर से लिखा होता है, उनकी कीमत 10 लाख से ऊपर तक जाती है.
मुसलमान हर साल अच्छे से अच्छा बकरा बकरीद पर अल्लाह की राह में कुर्बान करने के लिए खरीदता है. इस्लाम के जानकार बताते हैं कि बक़रीद का गोश्त का एक हिस्सा गरीबों और जरूरतमंदों को बांटने का हुक्म है. वहीं एक हिस्सा अपने रिश्तेदारों में बांटना चाहिए, लेकिन कोरोना संक्रमण को देखते हुए ईद की तरह बकरीद पर भी महामारी का साया मंडरा रहा है, जिससे लोग खरीदारी को लेकर परेशान हैं.