लखनऊ : उत्तर प्रदेश की राजनीति में अवसरवाद और परिवारवाद बहुत भीतर तक रचे-बसे हैं. समाजवाद का नारा देने वाली समाजवादी पार्टी में भी यह दोनों 'वाद' समय-समय पर देखने को मिलते रहे हैं. जब अवसरवाद की राजनीति चरम पर हो तो यह समझना कठिन हो जाता है कि कौन-कब मौके का फायदा उठा रहा है और सही राह चल रहा है. मुलायम सिंह यादव के निधन से रिक्त हुई मैनपुरी संसदीय सीट पर अखिलेश यादव ने अपनी पत्नी डिंपल यादव को लड़ाने का फैसला किया. इस प्रतिष्ठा पूर्ण सीट पर जीत सुनिश्चित करने के लिए अखिलेश और डिंपल शिवपाल के घर गए और प्रचार में सहयोग मांगा. पार्टी ने भी उन्हें प्रचारकों की सूची में शामिल किया. नतीजतन अखिलेश, शिवपाल और रामगोपाल एक साथ चुनावी मंच पर जुटे. अखिलेश ने मंच पर चाचा शिवपाल के तीन बार पैर छुए. अब तक के अनुभवों से तमाम लोगों को अखिलेश का यह आचरण चौकाने वाला लगा. राजनीतिक गलियारों में चर्चा शुरू हुई कि 'कहीं अखिलेश का यह आचरण राजनीतिक अवसरवाद तो नहीं है.'
सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद सैफई में पूरा यादव खानदान एकजुट दिखाई दिया. यही मौका था, जब अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल यादव के साथ कई बार साथ-साथ दिखाई दिए. दोनों नेताओं में निकटता देख कयास लगाए जाने लगे कि क्या बिखरा परिवार फिर से एक होगा? हालांकि कुछ दिन बाद ही शिवपाल यादव ने मैनपुरी में ऐसे बयान दिए, जिससे लगने लगा कि फांस अभी पूरी तरह से निकली नहीं है. कहीं न कहीं अखिलेश और शिवपाल में कुछ मतभेद रह गए हैं. मैनपुरी उप चुनाव की घोषणा होते ही अखिलेश यादव ने डिंपल यादव को चुनाव मैदान में उतारने का एलान किया. यही नहीं उन्होंने इस सीट के लिए स्टार प्रचारकों की सूची में शिवपाल यादव का नाम भी शामिल किया गया. बात यहीं नहीं रुकी अखिलेश यादव अपनी पत्नी डिंपल यादव के साथ शिवपाल को मनाने उनके घर गए. रिश्तों में जमा बर्फ इसके बाद ही पिघलनी शुरू हुई. शिवपाल यादव ने ट्वीट कर डिंपल यादव को जिताने के लिए जी-जान लगाने की बात कही. फिर चुनावी मंच पर अखिलेश यादव, प्रोफेसर राम गोपाल यादव और शिवपाल यादव का एक साथ आगमन हुआ. अखिलेश ने इस मंच पर शिवपाल के तीन बार पैर छुए. उनका यह आचरण समर्थकों को खूब भाया, लेकिन विश्लेषकों में चर्चा शुरू हो गई कि कहीं यह दोस्ती मैनपुरी उप चुनाव तक तो नहीं है. कहीं पूर्व की भांति अखिलेश यादव फिर शिवपाल को किनारे तो नहीं कर देंगे. यह सवाल अब भी बना हुआ है.
दरअसल, 2012 में विधानसभा चुनाव चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव और उनकी सरकार में 'मिनी मुख्यमंत्री' कहे जाने वाले कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह यादव में मतभेद 2015 के बाद तब शुरू हुए, जब तत्कालीन खनन मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. गायत्री को शिवपाल सिंह का करीबी माना जाता था. अखिलेश यादव ने गायत्री प्रजापति सहित दो मंत्रियों को बर्खास्त कर दिया. बात यहीं से बिगड़नी शुरू हो गई. अमर सिंह ने भी इस आग में घी का काम किया. अखिलेश यादव प्रोफेसर रामगोपाल के काफी निकट हो गए तो शिवपाल इन दोनों ही नेताओं से धीरे-धीरे दूर होने लगे. नाराज शिवपाल ने मुलायम सिंह यादव से अखिलेश यादव की शिकायत की, तो उन्होंने शिवपाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. वार-पलटवार का सिलसिला आगे भी चलता रहा. अंतत: 2018 में शिवपाल यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली. 2019 के लोकसभा चुनावों में इस पार्टी को खास सफलता नहीं मिली. 2022 का चुनाव आते-आते दोनों नेताओं में सुलह की कोशिशें फिर परवान चढ़ने लगीं.
2022 के विधानसभा चुनाव आते-आते शिवपाल को यह अंदाजा हो गया था कि 'एकला चलो' की राह आसान नहीं है. दोनों खेमों से सुलह के प्रयास हुए तो शिवपाल ने सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. बाद में उन्होंने आरोप लगाए कि उनकी पार्टी को पचास टिकट देने का वादा अखिलेश ने किया था, किंतु एक भी टिकट किसी और को नहीं दिया. चुनाव जीतकर आने के बाद अखिलेश ने एक बार फिर चाचा शिवपाल का अनादर किया. उन्होंने विधायक दल की बैठक में बुलाया नहीं गया. इसे लेकर शिवपाल ने अपनी तीखी नाराजगी जाहिर की. इस पर सपा ने 23 जुलाई 2022 को पत्र जारी कर कहा कि यदि आपको लगता है कि कहीं ज्यादा सम्मान मिलेगा, तो आप वहां जाने के लिए स्वतंत्र हैं. यानी बात बनी और टूट गई. दोनों ने अलग-अलग रास्ते अपना लिए. हालांकि दोनों ही खेमों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह चाहते हैं कि मतभेद दूर कर परिवार एक हो. लोगों को ऐसा लगता है कि यदि शिवपाल और अखिलेश साथ आ जाएं, तो समाजवादी पार्टी मजबूत हो सकती है और सत्ता का रास्ता भी खुल सकता है.
अतीत के अनुभव बताते हैं कि अखिलेश यादव की ओर से शिवपाल को बार-बार धोखा ही मिला है. जब उन्होंने जरूरत समझी तो पास बुलाया, जब उन्हें लगा कि शिवपाल मतलब के नहीं रहे, उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर बाहर कर दिया. चूंकि मैनपुरी में शिवपाल यादव का खासा प्रभाव माना जाता है, इसलिए शायद अखिलेश को उनके पास जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. अखिलेश अब तक किसी उप चुनाव में प्रचार के लिए नहीं गए, किंतु पत्नी के चुनाव में मैनपुरी में ही डेरा डाले हैं. ऐसे में यह देखना जरूरी है कि अखिलेश यादव का इस चुनाव के बाद शिवपाल को लेकर क्या रुख रहता है? कहीं वह अतीत की तरह फिर तो अपना रुख बदल तो नहीं लेंगे? क्योंकि यह तो राजनीति है और राजनीति में सब कुछ संभव है.