कानपुर देहात: चाइनीज झालरों और लाइटों के बैन होने के बाद मिट्टी के कलाकारों को फिर एक बार अच्छे दिन आने की आस बंधी है. उम्मीद है इस दिवाली गांवों के साथ-साथ शहरों के घर भी मिट्टी के दीयों से रोशन होंगे. कुम्हार हर बार की तरह इस बार भी महीनों से दिवाली की तैयारी में जुटे हुए हैं. कुछ सालों से चाइनीज लाइटें बाजार में छा रही थीं और पिछले 2 सालों से कुम्हारों की दिवाली भी खाली जा रही थी.
कनपुरिये रीझे चाइनीज झालर पर, दीये सिर्फ शगुन के लिए
कुम्हारों को इस बार भी दिवाली खाली न मनानी पड़े, इसलिए कुम्हारों ने अपनी पूरी तरह तैयारी कर ली थी, लेकिन कुम्हरों का कहना है कि इस बार भी खाली दिवाली से संतुष्ट होना पड़ेगा. कानपुर में लोगों का रुझान देशी दीये की जगह चाइनीज झालर की तरफ ज्यादा देखा जा रहा है.
कुम्हारों पर भारी पड़ती चाईनीज की चकरी.
कानपुर देहात: चाइनीज झालरों और लाइटों के बैन होने के बाद मिट्टी के कलाकारों को फिर एक बार अच्छे दिन आने की आस बंधी है. उम्मीद है इस दिवाली गांवों के साथ-साथ शहरों के घर भी मिट्टी के दीयों से रोशन होंगे. कुम्हार हर बार की तरह इस बार भी महीनों से दिवाली की तैयारी में जुटे हुए हैं. कुछ सालों से चाइनीज लाइटें बाजार में छा रही थीं और पिछले 2 सालों से कुम्हारों की दिवाली भी खाली जा रही थी.
चाइनीज झालरों ने ही नहीं, मिट्टी के कारीगरों की रोजी-रोटी पर सवाल उन परंपराओं के भी लगातार खत्म होने से उठा, जिसका ये हमेशा से हिस्सा रहे. घर में होने वाले हर संस्कार में मिट्टी के बर्तनों की अनिवार्यता अब खत्म सी हो गई है. चाय की दुकानों पर भी कुल्हड़ों की जगह अब प्लास्टिक और कागज के गिलासों ने ले ली है. बावजूद इसके साल भर मेहनत करने वाले कुम्हारों को दिवाली का इंतजार रहता है. इन्हें इस बात की उम्मीद रहती है कि इनके दीपकों से लोगों के घर जितने ज्यादा रोशन होंगे उतनी ज्यादा रोशनी इनके घर भी आएगी.
कुम्हारों पर भारी पड़ती चाइनीज की चकरी
कुम्हार के चाक पर घूमती इस मिट्टी से परिवार पालने का दम रखने वाले कुम्हारों के हाथ में ऐसा जादू होता है कि वे चाक पर नाचती इस मिट्टी को कभी घड़े तो कभी बच्चों के मिनी बैंक यानी गुल्लक तक बना देते हैं. वहीं दीपों के पर्व यानी दीपावली आने पर यही मिट्टी हजारों दीपकों का रूप ले लेती है, लेकिन आधुनिकता की बड़ी मार दिन प्रतिदिन इन कुम्हारों पर भारी पड़ती जा रही है.
भगवान राम का स्वागत दीपकों से और अब...
परम्परागत दीपावली में इन मिट्टी की दीपकों की जगह उल्लेखनीय होती थी. इन्हीं मिट्टी के दीपो में घी के दीये जलाने की परंपरा हमारे देश में थी. भगवान राम जब रावण का वध करके पहली बार अयोध्या पहुंचे थे, तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम का स्वागत घी के दीप जलाकर किया था. तब से आज तक हम दीपों के इस त्योहार को मनाते चले आ रहे हैं, लेकिन कुछ दशकों से इस परम्परा पर भी मिट्टी का रंग फीका पड़ने लगा है.
भारत की इकोनॉमी का सीधा लाभ चाइना को
आज हम अगर मिट्टी की दीयों की बात करें तो महज 10 से 20 प्रतिशत मिट्टी की दीयों का ही उपयोग दीपावली के दिन किया जाता है, जिसकी वजह से भारत की इकोनॉमी का सीधा लाभ चाइना को मिल रहा है. इसका सीधा असर उन कुम्हारों पर पड़ रहा है, जो रात दिन कड़ी मेहनत के बाद मिट्टी के दीयों को बनाते हैं. ऐसे में जहां एक ओर हम देश को आर्थिक चोट देकर चाइना को लाभ पंहुचा रहे हैं. वहीं हमारे देश के ऐसे कुम्हार, जो इसी मिट्टी के चाक से परिवार पाल रहे हैं, वह भी इन दिनों भुखमरी के शिकार हो रहे हैं.
तालाब की मिट्टी से दिए तक का सफर
मिट्टी के इस सफर की शुरुआत होती है, कुछ चुनिंदा जगहों से मिलने वाली मिट्टी से. पहले कुम्हारों को जो मिट्टी मुफ्त में मिलती थी, उसके लिए उन्हें अब 12 से 15 सौ रुपये प्रति ट्राली रकम देने होती है, जिसके लिए एसडीएम की परमिशन भी जरूरी हो गई है. मिट्टी घर पहुंचने के बाद उसे पीटा जाता है. बड़े ढ़ेलों को पीटने के बाद इस मिट्टी को छन्ने से छाना जता है, ताकि मिट्टी में एक भी कंकड़ न रह जाए, क्योंकि एक भी कंकड़ आने पर बर्तन नहीं बनाए जा सकते. मिट्टी को छानने के बाद उसे बारीक पीस लिया जाता है, जिसके बाद मिट्टी गीली होकर चाक पर आती है, जहां उसे अलग-अलग रूप दिया जाता है. इसके बाद इन दीयों को पकाने के लिए ऐसी छोटी छोटी भट्टियों में रखा जाता है. रात भर आंच में पकने के बाद यह बाजार तक पहुंचती हैं, लेकिन अफसोस इतनी मेहनत के बाद भी कुम्हारों को दीपक जलाने के लिए घी के पैसे नहीं मिल पाते.
इस दर्द को कौन समझेगा
कुम्हारों की मानें तो चाइना के सामान आने से सीधा असर उनके व्यापार पर पड़ रहा है. प्लास्टिक की प्लेट और गिलासों के आने से बारह महीने चलने वाला कुम्हारों का यह काम चौपट हो चुका है. ऐसे में परिवार चला पाना भी मुश्किल पड़ रहा है और लोग भुखमरी की कगार पर आ चुके हैं. सरकार द्वारा कुम्हारों के इस काम के कोई बढ़ावा भी नहीं दिया जा रहा है. कुम्हारों का कहना है कि चाइनीज झालरें बाजार में आने से अब मिट्टी के दीयों को कोई नहीं पूछता है, जहां पहले लोग 100 दियाली लेते थे, वे अब केवल 10 दियाली ही खरीद रहे हैं. तमाम मुसीबतों के बाद, जब बाजार में बिक्री नहीं होती है तो हम किस तरह घर लौटते हैं और उस दर्द को कोई नहीं समझ सकता. कुम्हारों को इस बार भी दिवाली खाली न मनानी पड़े, इसलिए कुम्हारों ने अपनी पूरी तरह तैयारी कर ली थी, लेकिन कुम्हरों का कहना है कि इस बार भी खाली दिवाली से संतुष्ट होना पड़ेगा.
चाइनीज झालरों ने ही नहीं, मिट्टी के कारीगरों की रोजी-रोटी पर सवाल उन परंपराओं के भी लगातार खत्म होने से उठा, जिसका ये हमेशा से हिस्सा रहे. घर में होने वाले हर संस्कार में मिट्टी के बर्तनों की अनिवार्यता अब खत्म सी हो गई है. चाय की दुकानों पर भी कुल्हड़ों की जगह अब प्लास्टिक और कागज के गिलासों ने ले ली है. बावजूद इसके साल भर मेहनत करने वाले कुम्हारों को दिवाली का इंतजार रहता है. इन्हें इस बात की उम्मीद रहती है कि इनके दीपकों से लोगों के घर जितने ज्यादा रोशन होंगे उतनी ज्यादा रोशनी इनके घर भी आएगी.
कुम्हारों पर भारी पड़ती चाइनीज की चकरी
कुम्हार के चाक पर घूमती इस मिट्टी से परिवार पालने का दम रखने वाले कुम्हारों के हाथ में ऐसा जादू होता है कि वे चाक पर नाचती इस मिट्टी को कभी घड़े तो कभी बच्चों के मिनी बैंक यानी गुल्लक तक बना देते हैं. वहीं दीपों के पर्व यानी दीपावली आने पर यही मिट्टी हजारों दीपकों का रूप ले लेती है, लेकिन आधुनिकता की बड़ी मार दिन प्रतिदिन इन कुम्हारों पर भारी पड़ती जा रही है.
भगवान राम का स्वागत दीपकों से और अब...
परम्परागत दीपावली में इन मिट्टी की दीपकों की जगह उल्लेखनीय होती थी. इन्हीं मिट्टी के दीपो में घी के दीये जलाने की परंपरा हमारे देश में थी. भगवान राम जब रावण का वध करके पहली बार अयोध्या पहुंचे थे, तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम का स्वागत घी के दीप जलाकर किया था. तब से आज तक हम दीपों के इस त्योहार को मनाते चले आ रहे हैं, लेकिन कुछ दशकों से इस परम्परा पर भी मिट्टी का रंग फीका पड़ने लगा है.
भारत की इकोनॉमी का सीधा लाभ चाइना को
आज हम अगर मिट्टी की दीयों की बात करें तो महज 10 से 20 प्रतिशत मिट्टी की दीयों का ही उपयोग दीपावली के दिन किया जाता है, जिसकी वजह से भारत की इकोनॉमी का सीधा लाभ चाइना को मिल रहा है. इसका सीधा असर उन कुम्हारों पर पड़ रहा है, जो रात दिन कड़ी मेहनत के बाद मिट्टी के दीयों को बनाते हैं. ऐसे में जहां एक ओर हम देश को आर्थिक चोट देकर चाइना को लाभ पंहुचा रहे हैं. वहीं हमारे देश के ऐसे कुम्हार, जो इसी मिट्टी के चाक से परिवार पाल रहे हैं, वह भी इन दिनों भुखमरी के शिकार हो रहे हैं.
तालाब की मिट्टी से दिए तक का सफर
मिट्टी के इस सफर की शुरुआत होती है, कुछ चुनिंदा जगहों से मिलने वाली मिट्टी से. पहले कुम्हारों को जो मिट्टी मुफ्त में मिलती थी, उसके लिए उन्हें अब 12 से 15 सौ रुपये प्रति ट्राली रकम देने होती है, जिसके लिए एसडीएम की परमिशन भी जरूरी हो गई है. मिट्टी घर पहुंचने के बाद उसे पीटा जाता है. बड़े ढ़ेलों को पीटने के बाद इस मिट्टी को छन्ने से छाना जता है, ताकि मिट्टी में एक भी कंकड़ न रह जाए, क्योंकि एक भी कंकड़ आने पर बर्तन नहीं बनाए जा सकते. मिट्टी को छानने के बाद उसे बारीक पीस लिया जाता है, जिसके बाद मिट्टी गीली होकर चाक पर आती है, जहां उसे अलग-अलग रूप दिया जाता है. इसके बाद इन दीयों को पकाने के लिए ऐसी छोटी छोटी भट्टियों में रखा जाता है. रात भर आंच में पकने के बाद यह बाजार तक पहुंचती हैं, लेकिन अफसोस इतनी मेहनत के बाद भी कुम्हारों को दीपक जलाने के लिए घी के पैसे नहीं मिल पाते.
इस दर्द को कौन समझेगा
कुम्हारों की मानें तो चाइना के सामान आने से सीधा असर उनके व्यापार पर पड़ रहा है. प्लास्टिक की प्लेट और गिलासों के आने से बारह महीने चलने वाला कुम्हारों का यह काम चौपट हो चुका है. ऐसे में परिवार चला पाना भी मुश्किल पड़ रहा है और लोग भुखमरी की कगार पर आ चुके हैं. सरकार द्वारा कुम्हारों के इस काम के कोई बढ़ावा भी नहीं दिया जा रहा है. कुम्हारों का कहना है कि चाइनीज झालरें बाजार में आने से अब मिट्टी के दीयों को कोई नहीं पूछता है, जहां पहले लोग 100 दियाली लेते थे, वे अब केवल 10 दियाली ही खरीद रहे हैं. तमाम मुसीबतों के बाद, जब बाजार में बिक्री नहीं होती है तो हम किस तरह घर लौटते हैं और उस दर्द को कोई नहीं समझ सकता. कुम्हारों को इस बार भी दिवाली खाली न मनानी पड़े, इसलिए कुम्हारों ने अपनी पूरी तरह तैयारी कर ली थी, लेकिन कुम्हरों का कहना है कि इस बार भी खाली दिवाली से संतुष्ट होना पड़ेगा.
Intro:नोट_यहा खबर sarveshwar pathak सर के आदेशानुसार भेजी जा रही है।
एंकर- कभी दीपावली का पर्व आते ही कुम्हारो के चेहरे पर चमक देखने को मिलती थी। .... लेकिन आधुनिकता के इस दौर में एक ओर जहां लोगो के घरो में मिटटी के दियो की जगह इलेक्ट्रानिक झालरों ने ले ली है वही देश में अब परम्परागत दीपावली के साथ ही कुम्हारो का वजूद भी विलुप्त होता नजर आ रहा है ।
Body:वी0ओ0 -१ - कुम्हार के चाक पर घूमती इस मिटटी से परिवार पालने का दम रखने वाले किसानों के हाथ में ऐसा जादू होता है कि वे चाक पर नाचती इस मिटटी को कभी घड़े तो कभी सुराही तो कभी बच्चो के मिनी बैंक यानी गुल्लक तक बना देते है , वही दीपो के पर्व यानी दीपावली आने पर यही मिटटी हजारो दियालियो का रूप ले लेती है , लेकिन आधुनिकता की बड़ी मार दिनपर दिन इन कुम्हारो पर भारी पड़ती जा रही है ।
परम्परागत दीपावली में इन मिटटी की दीपको की जगह उललेखनीय होती थी , इन्ही मिटटी के दीपो में घी के दिए जलाने की परंपरा हमारे देश में थी , भगवान राम जब रावण सर्व नाश कर पहली बार अयोध्या पहुचे थे तो अयोध्या वाशियो ने भगवान् राम का स्वागत घी के दीप जलाकर किया था , तबसे आज तक हम दीपो के इस त्युहार को मनाते चले आए है ।
पिछले दो दसको से मिटटी के दियो का चलन धीरे धीरे समाप्त हो गया है और मिटटी की दियालियो की जगह घरो में इलेक्ट्रानिक झालरों ने ले ली है जिसमे चाइना से आई झालरों की कीमत सबसे काम होने के कारण लोगो का रुझान उसकी तरफ बढ़ता गया , आज हम अगर मिटटी की दियालियो की बात करे तो महज 10 से 20 प्रतिशत मिटटी की दियालियो का ही उपयोग दीपावली के दिन किया जाता है जिसकी वजह से भारत की इकोनामी का सीधा लाभ चाईना को मिल रहा है और इसकी सीधी मार इन कुम्हारो पर पड़ रही है , ऐसे में जहां एक ओर हम देश को आर्थिक चोट देकर चाईना का लाभ पंहुचा रहे है वही हमारे देश के ऐसे कुम्हार जो इसी मिट्टी के चाक से परिवार पाल रहे थे वह इन दिनों भुखमरी शिकार हो रहे है ।
पहले जरुरत इस बात की है कि आखिर एक तालाब की इस मिटटी से दिए तक के सफर को भी आप जाने क्योकि कड़ी मेहनत के बाद एक कुम्हार की आमदनी कितनी होती है और उसके एवज में उसे मिलता क्या है ।
मिटटी के इस सफर की शुरुवात होती है कुछ चुनिंदा जगहों से मिलने वाली मिटटी से पहले कुम्हारो को जो मिटटी मुफ्त में मिलती थी उसके लिए उन्हें अब 12 से 15 सौ रूपये प्रति ट्राली रकम देने होती है जिसके लिए एसडीएम की परमिशन जरुरी हो गई है , मिटटी घर पहुचने के बाद उसे पीटा जाता है बड़े ढेलो को पीटने के बाद इस मिटटी को छन्ने से छाना जता है ताकि मिटटी में एक भी कंकड़ न रह जाए , क्योकि एक भी कंकड़ आने पर बर्तन नहीं बनाए जा सकते , मिटटी को छानने के बाद उसे बारीक पीस लिया जाता है जिसके बाद मिटटी गीली होकर चाक पर आती है जहां उसे अलग अलग रूप दिया जाता है क्योकि इस समय दीपावली का पर्व नजदीक है लिहाजा इन दिनों दीपक की ओर इन कुम्हारो का ध्यान बढ़ जाता है , चाक पर मिटटी जब दिए की सकल ले लेती है तो उसे गेरू में रंगने का काम किया जाता है जिससे दियालियो को लाल रंग मिल जाता है , इसके बाद इन दियालियो को पकाने के लिए ऐसी छोटी छोटी भट्टियों में रखा जाता है रात भर आंच में पकने के बाद यह दियालिया बाजार तक पहुचाई जाती है ।
Conclusion:वी ओ-२- खुद कुम्हारो की माने तो चाईना के सामान आने से सीधा असर उनके व्यापार पर पड़ रहा है , फाइवर की प्लेट व प्लास्टिक के ग्लासों के आने से बारह महीने चलने वाला कुम्हारो का यह धंधा चौपट हो चूका है , ऐसे में परिवार चला पाना मुश्किल पड़ रहा है...और लोग भुखमरी की कगार पर आ चुके है । सरकार द्वारा कुम्हारो के इस धंधे के लिए कुछ भी नहीं किया जता है...कुम्हारो का कहना है कि चाइनीज झालते बाजार में आने से अब मिटटी के दिए को अब कोई नहीं पूछता है जहां पहले लोग 100 दियालिया लेते थे वह अब दस दियाली ही खरीद रहा है , तमाम मुशीबतों के बाद जब सामान तैयार कर बाजार तक पहुचने के बाद बिक्री नहीं होती है तो इस तरह से परिवार पालने में दिक्कत सामना करना पड़ रहा है ।
बाईट- ( कुम्हार )
Date- 23_10_2019
Center - Kanpur dehat
Reporter - Himanshu sharma
एंकर- कभी दीपावली का पर्व आते ही कुम्हारो के चेहरे पर चमक देखने को मिलती थी। .... लेकिन आधुनिकता के इस दौर में एक ओर जहां लोगो के घरो में मिटटी के दियो की जगह इलेक्ट्रानिक झालरों ने ले ली है वही देश में अब परम्परागत दीपावली के साथ ही कुम्हारो का वजूद भी विलुप्त होता नजर आ रहा है ।
Body:वी0ओ0 -१ - कुम्हार के चाक पर घूमती इस मिटटी से परिवार पालने का दम रखने वाले किसानों के हाथ में ऐसा जादू होता है कि वे चाक पर नाचती इस मिटटी को कभी घड़े तो कभी सुराही तो कभी बच्चो के मिनी बैंक यानी गुल्लक तक बना देते है , वही दीपो के पर्व यानी दीपावली आने पर यही मिटटी हजारो दियालियो का रूप ले लेती है , लेकिन आधुनिकता की बड़ी मार दिनपर दिन इन कुम्हारो पर भारी पड़ती जा रही है ।
परम्परागत दीपावली में इन मिटटी की दीपको की जगह उललेखनीय होती थी , इन्ही मिटटी के दीपो में घी के दिए जलाने की परंपरा हमारे देश में थी , भगवान राम जब रावण सर्व नाश कर पहली बार अयोध्या पहुचे थे तो अयोध्या वाशियो ने भगवान् राम का स्वागत घी के दीप जलाकर किया था , तबसे आज तक हम दीपो के इस त्युहार को मनाते चले आए है ।
पिछले दो दसको से मिटटी के दियो का चलन धीरे धीरे समाप्त हो गया है और मिटटी की दियालियो की जगह घरो में इलेक्ट्रानिक झालरों ने ले ली है जिसमे चाइना से आई झालरों की कीमत सबसे काम होने के कारण लोगो का रुझान उसकी तरफ बढ़ता गया , आज हम अगर मिटटी की दियालियो की बात करे तो महज 10 से 20 प्रतिशत मिटटी की दियालियो का ही उपयोग दीपावली के दिन किया जाता है जिसकी वजह से भारत की इकोनामी का सीधा लाभ चाईना को मिल रहा है और इसकी सीधी मार इन कुम्हारो पर पड़ रही है , ऐसे में जहां एक ओर हम देश को आर्थिक चोट देकर चाईना का लाभ पंहुचा रहे है वही हमारे देश के ऐसे कुम्हार जो इसी मिट्टी के चाक से परिवार पाल रहे थे वह इन दिनों भुखमरी शिकार हो रहे है ।
पहले जरुरत इस बात की है कि आखिर एक तालाब की इस मिटटी से दिए तक के सफर को भी आप जाने क्योकि कड़ी मेहनत के बाद एक कुम्हार की आमदनी कितनी होती है और उसके एवज में उसे मिलता क्या है ।
मिटटी के इस सफर की शुरुवात होती है कुछ चुनिंदा जगहों से मिलने वाली मिटटी से पहले कुम्हारो को जो मिटटी मुफ्त में मिलती थी उसके लिए उन्हें अब 12 से 15 सौ रूपये प्रति ट्राली रकम देने होती है जिसके लिए एसडीएम की परमिशन जरुरी हो गई है , मिटटी घर पहुचने के बाद उसे पीटा जाता है बड़े ढेलो को पीटने के बाद इस मिटटी को छन्ने से छाना जता है ताकि मिटटी में एक भी कंकड़ न रह जाए , क्योकि एक भी कंकड़ आने पर बर्तन नहीं बनाए जा सकते , मिटटी को छानने के बाद उसे बारीक पीस लिया जाता है जिसके बाद मिटटी गीली होकर चाक पर आती है जहां उसे अलग अलग रूप दिया जाता है क्योकि इस समय दीपावली का पर्व नजदीक है लिहाजा इन दिनों दीपक की ओर इन कुम्हारो का ध्यान बढ़ जाता है , चाक पर मिटटी जब दिए की सकल ले लेती है तो उसे गेरू में रंगने का काम किया जाता है जिससे दियालियो को लाल रंग मिल जाता है , इसके बाद इन दियालियो को पकाने के लिए ऐसी छोटी छोटी भट्टियों में रखा जाता है रात भर आंच में पकने के बाद यह दियालिया बाजार तक पहुचाई जाती है ।
Conclusion:वी ओ-२- खुद कुम्हारो की माने तो चाईना के सामान आने से सीधा असर उनके व्यापार पर पड़ रहा है , फाइवर की प्लेट व प्लास्टिक के ग्लासों के आने से बारह महीने चलने वाला कुम्हारो का यह धंधा चौपट हो चूका है , ऐसे में परिवार चला पाना मुश्किल पड़ रहा है...और लोग भुखमरी की कगार पर आ चुके है । सरकार द्वारा कुम्हारो के इस धंधे के लिए कुछ भी नहीं किया जता है...कुम्हारो का कहना है कि चाइनीज झालते बाजार में आने से अब मिटटी के दिए को अब कोई नहीं पूछता है जहां पहले लोग 100 दियालिया लेते थे वह अब दस दियाली ही खरीद रहा है , तमाम मुशीबतों के बाद जब सामान तैयार कर बाजार तक पहुचने के बाद बिक्री नहीं होती है तो इस तरह से परिवार पालने में दिक्कत सामना करना पड़ रहा है ।
बाईट- ( कुम्हार )
Date- 23_10_2019
Center - Kanpur dehat
Reporter - Himanshu sharma
Last Updated : Oct 27, 2019, 11:47 PM IST