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कानपुर देहात: वनवास के दौरान भगवान राम इसी वृक्ष के नीचे किए थे विश्राम

उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले में एक ऐसा वृक्ष मौजूद है जहां वनवास के वक्त भगवान राम ने विश्राम किया था. इस वृक्ष को मोक्ष्य वाला अक्षयवट वृक्ष के नाम से जाना जाता है. आज भी लोग इसकी चमत्कारी महिमा के बारे में हैं.

अक्षयवट वृक्ष
अक्षयवट वृक्ष
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Published : Jun 19, 2020, 12:21 PM IST

कानपुर देहात: यूं तो पूरी प्रकृति किसी न किसी रूप में मानव जाति के लिए लाभदायी है, लेकिन इसमें भी कई ऐसे वृक्ष, पहाड़ और नदियां हैं जो सनातन धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई हैं. वेदों से लेकर पुराणों तक में प्रकृति और मानव जाति की परस्पर सामंजस्यता, जीव कल्याण के लिए महत्वपूर्ण रूप से वर्णन किया गया है. इनमें से कुछ वृक्ष ऐसे में भी हैं जो हजारों वर्षों से जिंदा हैं और चमत्कारिक हैं. आज हम आपको एक ऐसे ही वृक्ष के बारे में बताने जा रहे हैं..जो मोक्ष्य वाला अक्षयवट वृक्ष के नाम से मशहुर है.. हिन्दू धर्म में इसका बहुत ही महत्व है.

कानपुर देहात जिले के झींझक नगर में अक्षयवट वृक्ष स्थित है. इस वृक्ष को मोक्ष के वृक्ष की उपाधि दी जाती है. ऐसी मान्यता है कि जब सारी सृष्टि का विनाश हो जाएगा तब भी ये वृक्ष हरा-भरा ही रहेगा. इस वृक्ष का उल्लेख पुराणों में भी किया गया है. पूरे भारत वर्ष में ऐसे चार अक्षयवट हैं, जिनमें- पहला इलाहाबाद, दूसरा वाराणसी, तीसरा नासिक और चौथा वृक्ष कानपुर देहात में है. सैकड़ों वर्ष पहले स्वयं जमीन से उगे इस वृक्ष स्थल पर आज भव्य मंदिर बना हुआ है. यह मंदिर अक्षयवट आश्रम के नाम से मशहूर है. यहां दूर-दराज से श्रद्धालु पूजा-अर्चन करने आते हैं.

हजारों वर्ष पुराना है अक्षयवट वृक्ष
ऐसे हुई अक्षयवट की उत्पत्ति

झींझक नगर में जिस स्थान पर अक्षयवट स्थित है वहां कई साल पहले घना जंगल हुआ करता था. उस समय वाराणसी के ब्रह्मचारी राधेकृष्ण झींझक नगर आए हुए थे. जब वह शौच के लिए रेलवे लाइन किनारे जा रहे थे, तभी अचानक जंगल में खड़े दो अक्षयवट वृक्ष पर उनकी नजर पड़ी. ब्रह्मचारी दौड़ते हुए तत्कालिन चेयरमैन मन्नी लाल के गले लगकर रोते हुए बोले- इस वृक्ष के तो दर्शन दुर्लभ हैं. तब पता चला कि यह अक्षयवट वृक्ष है, इसके नीचे भगवान का वास हुआ करता था. जिस दिन इस वृक्ष के बारे में जानकारी हुई वह दिन होलिकाष्टमी का दिन था. यहां के तत्कालीन चेयरमैन मन्नीबाबू तिवारी ने ब्रम्हचारी की बात सुन उस परिसर में एक शिला रखकर मंदिर की स्थापना कराई.

वृक्ष में भगवान विष्णु विराजमान थे

आश्रम के पुजारी पागलदास बाबा ने बताया कि वटवृक्ष बाबा की यहां बड़ी कृपा है. पहले यह अक्षयवट के रूप में थे, जिसमें स्वयं भगवान विष्णु विराजमान थे. वृक्ष के प्रत्येक पत्ते पर शंख बना हुआ था. ऐसा कहा जाता है कि एक बार एक महिला इस वृक्ष पर झंडा लगाने के लिए चढ़ गई थी, जो काफी विरोध करने के बाद नीचे उतरी. हालांकि कुछ ही समय बाद वृक्ष सूख गया. इसके बाद लगातार 6 माह तक वृक्ष में गंगाजल डालने पर वृक्ष अर्जुन के रूप में प्रकट हुआ. पुजारी ने यह भी बताया कि इस वृक्ष के सूखने के बाद बड़ी हानि की आशंका होती है.

पुजारी ने बताया कि आज भारत में चार में से मात्र एक ही अक्षयवट हरा-भरा रह गया है. वह वृक्ष अनुसुइया आश्रम में स्थित है. पुराणों में बताया गया है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय वट का एक वृक्ष बच जाता है. इसके अलावा अक्षय वट का जिक्र कालिदास के रघुवंश और चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में भी किया गया है.

माता सीता ने की थी प्रार्थना

बताया जाता है कि इसी वृक्ष के नीचे माता सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी. इसके अलावा जैन धर्म के पद्माचार्य की उपासना भी इसी के नीचे पूरी हुई थी. पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था. यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान और भगवान शिव देवता बने थे. अंत में तीनों देवताओं ने अपनी शक्ति से पृथ्वी के बोझ को हल्का करने के लिए एक 'वृक्ष' उत्पन्न किया. जो एक बरगद का वृक्ष था, आगे चलकर इसी वृक्ष को अक्षयवट के नाम से जाना गया.

अक्षयवट भगवान श्रीराम से जुड़ी कथा

प्रयाग के दक्षिणी तट पर झूंसी नामक स्थान है, जिसका प्राचीन नाम पुरुरवा था. कालांतर में इसका नाम उलटा प्रदेश पड़ गया. उलटा प्रदेश पड़ने का कारण यह है कि यहां श्राप के चलते सब कुछ उल्टा-पुल्टा था. यहां के महल की छत नीचे बनी थी जो आज भी मौजूद है. इसकी खिड़कियां ऊपर तथा रोशन दान नीचे दिखाई देते हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि यहां भगवान शिव माता पार्वती के साथ एकांत वास करते थे. यहां आने वालों के लिए यह श्राप था कि जो भी व्यक्ति इस जंगल में प्रवेश करेगा, वह औरत बन जाएगा.

ऐसा कहा जाता है कि जब श्रीराम को वनवास हुआ, तो उनके कुल पुरुष भगवान सूर्य बड़े ही दुखी हुए. उन्होंने हनुमान को आदेश दिया कि वनवास के दौरान राम की हर मदद करेंगे. अपने गुरु का आदेश मान कर हनुमान प्रयाग में संगम के तट पर उनका इंतजार करने लगे. ऐसा इसलिए क्योंकि हनुमान किसी स्त्री को लांघ नहीं सकते थे. जबकि वहां गंगा, यमुना एवं सरस्वती तीनों नदियां (स्त्री) ही थी. इसलिए उनको न लांघते हुए हनुमान संगम के तट पर राम की प्रतीक्षा करने लगे.

ऐसे वृक्ष तक पहुंचे थे भगवान राम

जब श्रीराम अयोध्या से चले तो उनको उल्टा प्रदेश से होकर ही गुजरना पड़ा. ऐसा कहा जाता है कि शिव के श्राप से उन्हें स्त्री बनना पड़ता, इसलिए उन्होंने रास्ता ही बदल दिया. यह भी कहा जाता है कि यदि राम सीधे गंगा को पार करते, तो यहां पर प्रतीक्षा कर रहे हनुमान सीधे उनको लेकर दंडकारण्य उड़ जाते. इस दौरान बीच रास्ते में अहिल्या उद्धार, शबरी उद्धार और आदि कार्य छूट जाते. यही सोच कर श्रीराम ने रास्ता बदलते हुए श्रीन्गवेर पुर से गंगा पार किया. श्रीराम के लिए यह शर्त थी कि वह वनवास के दौरान किसी गांव में प्रवेश नहीं करेगें. उन्होंने अपने इस शर्त को भी बखूबी पूरा किया. इस बात को प्रयाग में तपस्यारत महर्षि भारद्वाज भली भांति जानते थे. वह भगवान श्रीराम की अगवानी करने के पहले ही श्रीन्गवेरपुर पहुंच गए. भगवान राम ने पूछा कि हे महर्षि! मैं रात को कहां विश्राम करूं? महर्षि ने बताया कि एक वटवृक्ष है, हम चल कर उससे पूछते हैं कि वह अपनी छाया में ठहरने की अनुमति देगा या नहीं. राम उनकी बातों से अचंभित हो गए. तब महर्षि ने उन्हें इसके पीछे का कारण बताया.

वृक्ष के नीचे विश्राम करने की मांगी अनुमति

महर्षि ने कहा कि तुम्हारी माता कैकेयी के भय से कोई भी अपने यहां तुमको ठहरने की अनुमति नहीं देगा. क्योंकि जब कैकेयी को इस बात का पता चलेगा तो वह राजा दशरथ से कहकर दंड दिलवा देंगी. इस प्रकार भगवान राम को लेकर महर्षि भारद्वाज उस वटवृक्ष के पास पहुंचे. भगवान राम ने उनसे पूछा कि क्या वह अपनी छाया में रात बिताने की अनुमति देगें? इस पर वटवृक्ष ने पूछा कि मेरी छाया में दिन-रात पता नहीं कितने लोग आते एवं रात्रि विश्राम करते हैं. लेकिन कोई भी मुझसे यह अनुमति नहीं मांगता. क्या कारण है कि आप मुझसे अनुमति मांग रहे हैं? तब महर्षि ने वृक्ष को पूरी बात बताई. वटवृक्ष ने कहा- 'हे ऋषिवर! यदि किसी के दुख में सहायता करना पाप है. किसी के कष्ट में भाग लेकर उसके दुख को कम करना अपराध है, तो मैं यह पाप और अपराध करने के लिये तैयार हूं. आप निश्चिन्त होकर यहां विश्राम कर सकते हैं और जब तक इच्छा हो रह सकते हैं.'

यह बात सुन कर भगवान राम बोले- 'हे वटवृक्ष! ऐसी सोच तो किसी मनुष्य या देवता में भी बड़ी कठनाई से मिलती है. आप वृक्ष होकर यदि इतनी महान सोच रखते हैं, तो आप आज से वटवृक्ष नहीं बल्कि 'अक्षय वट' हो जाओ. जो भी तुम्हारी छाया में क्षण मात्र भी समय बिताएगा उसे अक्षय पुण्य फल प्राप्त होगा. तभी से यह वृक्ष अक्षयवट के नाम से प्रसिद्ध है.

अक्षयवट के देखभाल कर रहे महंत पंडित विशाल शर्मा ने बताया कि रावण के भाई अक्षय कुमार का बजरंगबली बाबा ने वध किया था, जिसका वर्णन रामायण ग्रंथ व पुराणों में भी है. उन्होंने बताया कि दो संतों ने इस अक्षयवट की पहचान की थी. भारत में अब सिर्फ दो ही जगह अक्षयवट वृक्ष बचे हैं. कानपुर देहात में और इलाहाबाद में और तीसरा श्रीलंका में मौजूद है. इसके साथ-साथ मंदिर में सात श्री राम के साथ पेड़ भी मौजूद है, जिनकी अलग मान्यता है.

कानपुर देहात: यूं तो पूरी प्रकृति किसी न किसी रूप में मानव जाति के लिए लाभदायी है, लेकिन इसमें भी कई ऐसे वृक्ष, पहाड़ और नदियां हैं जो सनातन धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई हैं. वेदों से लेकर पुराणों तक में प्रकृति और मानव जाति की परस्पर सामंजस्यता, जीव कल्याण के लिए महत्वपूर्ण रूप से वर्णन किया गया है. इनमें से कुछ वृक्ष ऐसे में भी हैं जो हजारों वर्षों से जिंदा हैं और चमत्कारिक हैं. आज हम आपको एक ऐसे ही वृक्ष के बारे में बताने जा रहे हैं..जो मोक्ष्य वाला अक्षयवट वृक्ष के नाम से मशहुर है.. हिन्दू धर्म में इसका बहुत ही महत्व है.

कानपुर देहात जिले के झींझक नगर में अक्षयवट वृक्ष स्थित है. इस वृक्ष को मोक्ष के वृक्ष की उपाधि दी जाती है. ऐसी मान्यता है कि जब सारी सृष्टि का विनाश हो जाएगा तब भी ये वृक्ष हरा-भरा ही रहेगा. इस वृक्ष का उल्लेख पुराणों में भी किया गया है. पूरे भारत वर्ष में ऐसे चार अक्षयवट हैं, जिनमें- पहला इलाहाबाद, दूसरा वाराणसी, तीसरा नासिक और चौथा वृक्ष कानपुर देहात में है. सैकड़ों वर्ष पहले स्वयं जमीन से उगे इस वृक्ष स्थल पर आज भव्य मंदिर बना हुआ है. यह मंदिर अक्षयवट आश्रम के नाम से मशहूर है. यहां दूर-दराज से श्रद्धालु पूजा-अर्चन करने आते हैं.

हजारों वर्ष पुराना है अक्षयवट वृक्ष
ऐसे हुई अक्षयवट की उत्पत्ति

झींझक नगर में जिस स्थान पर अक्षयवट स्थित है वहां कई साल पहले घना जंगल हुआ करता था. उस समय वाराणसी के ब्रह्मचारी राधेकृष्ण झींझक नगर आए हुए थे. जब वह शौच के लिए रेलवे लाइन किनारे जा रहे थे, तभी अचानक जंगल में खड़े दो अक्षयवट वृक्ष पर उनकी नजर पड़ी. ब्रह्मचारी दौड़ते हुए तत्कालिन चेयरमैन मन्नी लाल के गले लगकर रोते हुए बोले- इस वृक्ष के तो दर्शन दुर्लभ हैं. तब पता चला कि यह अक्षयवट वृक्ष है, इसके नीचे भगवान का वास हुआ करता था. जिस दिन इस वृक्ष के बारे में जानकारी हुई वह दिन होलिकाष्टमी का दिन था. यहां के तत्कालीन चेयरमैन मन्नीबाबू तिवारी ने ब्रम्हचारी की बात सुन उस परिसर में एक शिला रखकर मंदिर की स्थापना कराई.

वृक्ष में भगवान विष्णु विराजमान थे

आश्रम के पुजारी पागलदास बाबा ने बताया कि वटवृक्ष बाबा की यहां बड़ी कृपा है. पहले यह अक्षयवट के रूप में थे, जिसमें स्वयं भगवान विष्णु विराजमान थे. वृक्ष के प्रत्येक पत्ते पर शंख बना हुआ था. ऐसा कहा जाता है कि एक बार एक महिला इस वृक्ष पर झंडा लगाने के लिए चढ़ गई थी, जो काफी विरोध करने के बाद नीचे उतरी. हालांकि कुछ ही समय बाद वृक्ष सूख गया. इसके बाद लगातार 6 माह तक वृक्ष में गंगाजल डालने पर वृक्ष अर्जुन के रूप में प्रकट हुआ. पुजारी ने यह भी बताया कि इस वृक्ष के सूखने के बाद बड़ी हानि की आशंका होती है.

पुजारी ने बताया कि आज भारत में चार में से मात्र एक ही अक्षयवट हरा-भरा रह गया है. वह वृक्ष अनुसुइया आश्रम में स्थित है. पुराणों में बताया गया है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय वट का एक वृक्ष बच जाता है. इसके अलावा अक्षय वट का जिक्र कालिदास के रघुवंश और चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में भी किया गया है.

माता सीता ने की थी प्रार्थना

बताया जाता है कि इसी वृक्ष के नीचे माता सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी. इसके अलावा जैन धर्म के पद्माचार्य की उपासना भी इसी के नीचे पूरी हुई थी. पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था. यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान और भगवान शिव देवता बने थे. अंत में तीनों देवताओं ने अपनी शक्ति से पृथ्वी के बोझ को हल्का करने के लिए एक 'वृक्ष' उत्पन्न किया. जो एक बरगद का वृक्ष था, आगे चलकर इसी वृक्ष को अक्षयवट के नाम से जाना गया.

अक्षयवट भगवान श्रीराम से जुड़ी कथा

प्रयाग के दक्षिणी तट पर झूंसी नामक स्थान है, जिसका प्राचीन नाम पुरुरवा था. कालांतर में इसका नाम उलटा प्रदेश पड़ गया. उलटा प्रदेश पड़ने का कारण यह है कि यहां श्राप के चलते सब कुछ उल्टा-पुल्टा था. यहां के महल की छत नीचे बनी थी जो आज भी मौजूद है. इसकी खिड़कियां ऊपर तथा रोशन दान नीचे दिखाई देते हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि यहां भगवान शिव माता पार्वती के साथ एकांत वास करते थे. यहां आने वालों के लिए यह श्राप था कि जो भी व्यक्ति इस जंगल में प्रवेश करेगा, वह औरत बन जाएगा.

ऐसा कहा जाता है कि जब श्रीराम को वनवास हुआ, तो उनके कुल पुरुष भगवान सूर्य बड़े ही दुखी हुए. उन्होंने हनुमान को आदेश दिया कि वनवास के दौरान राम की हर मदद करेंगे. अपने गुरु का आदेश मान कर हनुमान प्रयाग में संगम के तट पर उनका इंतजार करने लगे. ऐसा इसलिए क्योंकि हनुमान किसी स्त्री को लांघ नहीं सकते थे. जबकि वहां गंगा, यमुना एवं सरस्वती तीनों नदियां (स्त्री) ही थी. इसलिए उनको न लांघते हुए हनुमान संगम के तट पर राम की प्रतीक्षा करने लगे.

ऐसे वृक्ष तक पहुंचे थे भगवान राम

जब श्रीराम अयोध्या से चले तो उनको उल्टा प्रदेश से होकर ही गुजरना पड़ा. ऐसा कहा जाता है कि शिव के श्राप से उन्हें स्त्री बनना पड़ता, इसलिए उन्होंने रास्ता ही बदल दिया. यह भी कहा जाता है कि यदि राम सीधे गंगा को पार करते, तो यहां पर प्रतीक्षा कर रहे हनुमान सीधे उनको लेकर दंडकारण्य उड़ जाते. इस दौरान बीच रास्ते में अहिल्या उद्धार, शबरी उद्धार और आदि कार्य छूट जाते. यही सोच कर श्रीराम ने रास्ता बदलते हुए श्रीन्गवेर पुर से गंगा पार किया. श्रीराम के लिए यह शर्त थी कि वह वनवास के दौरान किसी गांव में प्रवेश नहीं करेगें. उन्होंने अपने इस शर्त को भी बखूबी पूरा किया. इस बात को प्रयाग में तपस्यारत महर्षि भारद्वाज भली भांति जानते थे. वह भगवान श्रीराम की अगवानी करने के पहले ही श्रीन्गवेरपुर पहुंच गए. भगवान राम ने पूछा कि हे महर्षि! मैं रात को कहां विश्राम करूं? महर्षि ने बताया कि एक वटवृक्ष है, हम चल कर उससे पूछते हैं कि वह अपनी छाया में ठहरने की अनुमति देगा या नहीं. राम उनकी बातों से अचंभित हो गए. तब महर्षि ने उन्हें इसके पीछे का कारण बताया.

वृक्ष के नीचे विश्राम करने की मांगी अनुमति

महर्षि ने कहा कि तुम्हारी माता कैकेयी के भय से कोई भी अपने यहां तुमको ठहरने की अनुमति नहीं देगा. क्योंकि जब कैकेयी को इस बात का पता चलेगा तो वह राजा दशरथ से कहकर दंड दिलवा देंगी. इस प्रकार भगवान राम को लेकर महर्षि भारद्वाज उस वटवृक्ष के पास पहुंचे. भगवान राम ने उनसे पूछा कि क्या वह अपनी छाया में रात बिताने की अनुमति देगें? इस पर वटवृक्ष ने पूछा कि मेरी छाया में दिन-रात पता नहीं कितने लोग आते एवं रात्रि विश्राम करते हैं. लेकिन कोई भी मुझसे यह अनुमति नहीं मांगता. क्या कारण है कि आप मुझसे अनुमति मांग रहे हैं? तब महर्षि ने वृक्ष को पूरी बात बताई. वटवृक्ष ने कहा- 'हे ऋषिवर! यदि किसी के दुख में सहायता करना पाप है. किसी के कष्ट में भाग लेकर उसके दुख को कम करना अपराध है, तो मैं यह पाप और अपराध करने के लिये तैयार हूं. आप निश्चिन्त होकर यहां विश्राम कर सकते हैं और जब तक इच्छा हो रह सकते हैं.'

यह बात सुन कर भगवान राम बोले- 'हे वटवृक्ष! ऐसी सोच तो किसी मनुष्य या देवता में भी बड़ी कठनाई से मिलती है. आप वृक्ष होकर यदि इतनी महान सोच रखते हैं, तो आप आज से वटवृक्ष नहीं बल्कि 'अक्षय वट' हो जाओ. जो भी तुम्हारी छाया में क्षण मात्र भी समय बिताएगा उसे अक्षय पुण्य फल प्राप्त होगा. तभी से यह वृक्ष अक्षयवट के नाम से प्रसिद्ध है.

अक्षयवट के देखभाल कर रहे महंत पंडित विशाल शर्मा ने बताया कि रावण के भाई अक्षय कुमार का बजरंगबली बाबा ने वध किया था, जिसका वर्णन रामायण ग्रंथ व पुराणों में भी है. उन्होंने बताया कि दो संतों ने इस अक्षयवट की पहचान की थी. भारत में अब सिर्फ दो ही जगह अक्षयवट वृक्ष बचे हैं. कानपुर देहात में और इलाहाबाद में और तीसरा श्रीलंका में मौजूद है. इसके साथ-साथ मंदिर में सात श्री राम के साथ पेड़ भी मौजूद है, जिनकी अलग मान्यता है.

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