झांसीः वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान और शौर्य की कहानी पूरी दुनिया के लिए आज भी एक मिसाल है. रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को हुआ और वे 18 जून 1858 यानि आज ही के दिन वीरगति को प्राप्त हुई थीं. वे मराठा शासित झांसी राज्य की रानी और 1857 की राज्यक्रान्ति की दूसरी शहीद वीरांगना थीं. पहली शहीद वीरांगना रानी अवन्ति बाई लोधी थीं. रानी लक्ष्मीबाई ने केवल 29 साल की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से लोहा लिया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं.
महारानी लक्ष्मीबाई दुनिया के लिए मिसाल
वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान और शौर्य की कहानी पूरी दुनिया के लिए आज भी एक मिसाल है. उनके पराक्रम का ही ये प्रभाव था कि जब रानी की जान पर संकट आया तो झांसी की एक छोटी सी रियासत लोहागढ़ के ग्रामीणों ने अंग्रेजों का रास्ता रोककर उन्हें खुली चुनौती दी थी. इस लड़ाई में करीब पांच सौ ग्रामीणों को अपनी जान गवानी पड़ी थी. जिनमें से अधिकांश पठान थे.
सिपहसालारों की राय पर कालपी रवाना हुईं रानी
दरअसल जब झांसी पर अंग्रेजों ने हमला बोला तब अपने विश्वासपात्र सिपहसालारों की राय पर रानी कालपी कूच कर रही थीं. अंग्रेजों की सेना रानी का लगातार पीछा कर रही थी. झांसी को कब्जे में लेने से पहले अंग्रेजों ने लोहागढ़ के राजा को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र लिखा था. लेकिन राजा हिन्दूपत ने प्रस्ताव मानने से इनकार कर दिया था. 4 अप्रैल 1858 को रानी भांडेर से होते हुए जैसे ही लोहागढ़ की सीमा में पहुंची. यहां के ग्रामीणों ने अंग्रेज सैनिकों का रास्ता रोक लिया. जिसके बाद दोनों के बीच भयानक लड़ाई चली. अग्रेजों ने लोहागढ़ पर कब्जा करने के लिए हमला कर दिया. उधर रानी लक्ष्मी बाई कालपी के लिए सुरक्षित रवाना हो गई हैं.
लोहागढ़ के ग्रामीणों और सैनिकों ने अंग्रेजों को रोका
बताया जाता है कि अंग्रेजी सेना ने लोहगढ़ के किले पर कब्जा करने के मकसद से हमला तो कर दिया. लेकिन यहां के ग्रामीणों और पठान सैनिकों का वे मुकाबला नहीं कर सके. यहां हुई लड़ाई में सैकड़ों की संख्या में अंग्रेज सिपाही मारे गए और 5 सौ से ज्यादा ग्रामीणों को वीरगति मिली. इस युद्द में सभी जातियों के लोगों ने बड़ी ही बहादुरी से काम लिया. लेकिन इनमें सबसे अधिक संख्या पठानों की थी. जिनकी बहादुरी के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं.
शादी के बाद एक दुल्हे ने लिया था अंग्रेजों से लोहा
स्थानीय लोग एक घटनाक्रम से जुड़ी कहानी बताते हैं कि नूर खान और रज्जक खान दो भाई लोहागढ़ की सेना में थे. अंग्रेजों के साथ लोहागढ़ की लड़ाई में इनकी जान गई थी और इन दोनों का ही मजार गांव में बना हुआ है. इनकी याद में गांव के लोग हर साल सालाना जलसा कराते हैं. इसके साथ ही लड़ाई के दौरान की एक रोचक प्रेम कहानी का भी जिक्र किया जाता है. जनश्रुतियों में कहा जाता है कि एक दुल्हा विवाह के बाद पत्नी को जिस दिन घर लेकर पहुंचा. उसी दिन गांव और रानी पर संकट आ गई. जिसके बाद दुल्हन ने उन्हें लड़ाई के मैदान में जाने के लिए कहा, तो वे अपनी शादी का जश्न मनाने की जगह गांव की आन-बान-सान पर कुर्बान हो गए. पति की मौत की ख़बर जैसे ही दुल्हन को मिली तो वो भी इस लड़ाई में कूद पड़ी. नतीजा अग्रेंजों को इस लड़ाई में हार का स्वाद चखना पड़ा. हालांकि इस संघर्ष में दुल्हन भी शहीद हो गईं.
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सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर नीति शास्त्री कहती हैं कि झांसी वीरांगना लक्ष्मीबाई की पावन तपोभूमि, कर्मभूमि और शौर्यभूमि है. रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 में आजादी की लड़ाई में प्रथम चिंगारी जलाई. उन्होंने कौमी एकता का संदेश देते हुए झलकारी बाई, सुंदर, मुंदर, मोती बाई, गुलाम गौस खां, जवाहर सिंह जैसे सेनानियों को साथ लेकर अंग्रजों के छक्के छुड़ाए.
इतिहासकार डॉक्टर चित्रगुप्त बताते हैं कि गांव के लोगों ने अपने परंपरागत हथियारों से अंग्रेजों से संघर्ष किया. उन्हें मार भगाया और इस बीच रानी को कालपी पहुंचने में सहूलियत हो गई. लेकिन कुछ समय बाद अंग्रेजों ने लोहागढ़ पर हमला कर इसे तहस-नहस कर दिया था और बहुत सारे लोगों की जान भी गई थी.