हाथरस: व्यंगात्मक और हास्यात्मक लेख का मुख्य उद्देश्य सिर्फ लोगों का मनोरंजन नहीं बल्कि समाज में फैली कुरीतियों और भ्रांतियों के बारे में लोगों को बताना उनको जागरुक करना होता है. जिससे कि पाठक का इसकी ओर ध्यान जाए और वह इन कुरीतियों को समाज में फैलने से रोके. काका हाथरसी इस विधा में निपुण थे. वह समाज में फैली किसी भी कुरीति को ऐसे कटाक्ष के साथ प्रस्तुत करते थे कि पढ़ने वाले का मनोरंजन हो साथ ही गंभीर संदेश भी जाए. पढ़िए भ्रष्टाचार पर काका का व्यंग-
'मन मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार
झूठों के घर पंडित बांचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की'
काका हाथरसी का जन्म 18 सितंबर सन् 1906 को हाथरस में हुआ था. काका हाथरसी का असली नाम प्रभूलाल गर्ग था. काका हाथरसी के पिताजी का नाम शिवलाल गर्ग और माता का नाम बर्फी देवी था. काका हाथरसी का जन्म गरीब परिवार में हुआ, लेकिन काका ने गरीब होते हुए भी जिंदगी से अपना संघर्ष जारी रखा और छोटी-मोटी नौकरी के साथ कविता रचना और संगीत शिक्षा का समन्वयक बनाए रखा. बहुमुखी प्रतिभा के धनी काका हाथरसी कवि के अलावा चित्रकार और फिल्मकार भी थे. उन्होंने तमाम संगीतकारों की रंगीन तैलीय चित्र बनाने के साथ ही अन्य चित्र भी बनाए थे. उन्होंने संगीत पर एक मासिक पत्रिका संगीत का संपादन भी किया था. काका हाथरसी ने 1932 में हाथरस में संगीत की उन्नति के लिए गर्ग एंड कंपनी की स्थापना की थी, जिसका नाम बाद में संगीत कार्यालय हाथरस हुआ. उन्होंने जमुना किनारे नाम से फिल्म भी बनाई थी.
काका की कालजयी रचनाएं समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार, राजनीतिक कुशासन की ओर अब भी सबका ध्यान केन्द्रित करती हैं. बेशक काका आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी बहुत सी रचनाएं जुमला बनकर आम की आदमी जुबां पर आज भी बोलती हैं. काका हाथरसी ने हिंदी की दुर्दशा पर बहुत ही बेहतरीन व्यंग प्रस्तुत किया है-
'बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य
सुना? रुस में हो गई है हिंदी अनिवार्य
है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-
बनने वालों के मुंह पर क्या पड़ा तमाचा
कहं 'काका' जो ऐश कर रहे रजधानी में
नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में'
हिंदी काव्य मंचों पर हास्य को वरीयता दिलाने का श्रेय काका को ही जाता है. देश ही नहीं, विदेशों में भी उन्होंने हिंदी काव्य की पताका को फहराया और हास्य सम्राट के रूप में ख्याति पाई. केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया. पद्मश्री हास्य कवि प्रभूलाल गर्ग उर्फ काका हाथरसी 18 सितंबर 1995 को दुनिया को अलविदा कह गए थे. वसीयत में दर्ज उनकी इच्छा पूरी करने के लिए ही उनके अवसान के दौरान शव ऊंटगाड़ी में रखकर शवयात्रा निकाली गई थी. उनकी मृत्यु के बाद आंसू नहीं लोग ठहाके लगाते हुए नजर आए थे.अपनी मृत्य से कुछ महीने पहले 23 फरवरी 1995 को उन्होंने लिखा था कि-
'अब तो मुझे हर पल हर घड़ी यही इंतजार रहता है
प्रभु जी के आमंत्रण का, न जाने कब प्रभु जी अपने प्रभू
लाल को हंसने-हंसाने के लिए अपने पास बुला लें
जीवन में और मृत्यु में फर्क नहीं है भौत,
आंखें खुले तो जिंदगी बंद होय तो मौत'
1957 में काका ने पहली बार दिल्ली के लाल किले में आयोजित कवि-सम्मेलन में हिस्सेदारी की. आमंत्रित कवियों से आग्रह किया गया था कि वे 'क्रांति' पर कविता करें, क्योंकि साल 1857 की शताब्दी मनाई जा रही थी. काका हास्य-कवि थे तो वो 'क्रांति' पर क्या कविता करें? जब मंच से काका का नाम पुकारा गया तो उन्होंने 'क्रांति का बिगुल' कविता सुनाई. उनकी कविता इतनी पसंद आई कि सम्मेलन के संयोजक गोपालप्रसाद व्यास ने काका को गले लगाकर उनकी खूब प्रशंसा की. कविता के बोल इस प्रकार हैं-
'अपने शौर्य और साहस की
तुमको झलक दिखाऊंगा
नहीं सुहाती शांति मुझे
मैं गीत क्रांति के गाऊंगा
सांस रोककर सुनना मित्रों
मन की व्यथा सुनाता हूं
अट्ठारह सौ सत्तावन की
तुमको कथा सुनाता हूं
आंखों में ज्वाला थी दिल में
धधक रहे थे अंगारे
युद्धभूमि में मैंने मुर्दे
पकड़ पकड़ कर दे मारे
फिर भी इतना बल है
मेरी सूखी हुई कलाई में
आज्ञा दें तो आग लगा दूं फौरन दियासलाई में'