गोरखपुर: जनपद गोरखपुर को एक समय में इंसेफेलाइटिस की राजधानी कहा जाता था. इस बीमारी की वजह से हजारों बच्चे काल के गाल में समा गए. पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस पिछले 4 दशकों से महामारी का रूप लिए हुए है. गोरखपुर का स्वास्थ्य महकमा इस समय कोरोना महामारी से निपटने में जुटा हुआ है, लेकिन इंसेफेलाइटिस का दौर भी अब भी शुरू हो सकता है. जिसकी तैयारी भी स्वास्थ्य विभाग को करनी है. लेकिन, इस बीच जो बात बड़ी निकल कर आई है. वह यह है कि इंसेफेलाइटिस अब सिर्फ मच्छरों और दूषित जल से नहीं. पालतू पशुओं और घर में पाए जाने वाले जानवरों से भी हो रहा है. जोकि ज्यादा खतरनाक है.
क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र(RMRC) गोरखपुर के शोध में पालतू पशुओं की पीठ पर इसके जीवाणु पाए गए हैं. जिसके बचाव को लेकर क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र के निदेशक ने जानकारी दी और उपयोगी दवाओं का भी जिक्र किया है. उन्होंने कहा है कि जेई (जापानी इंसेफेलाइटिस) जो मच्छरों के काटने और जलजनित होती थी. उसपर सफलता 90 प्रतिशत मिल चुकी है, लेकिन एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम(AES) को कंट्रोल करने के लिए पालतू और घरों में पाए जाने वाले जानवरों से दूरी बनानी जरूरी है.
क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र, गोरखपुर के शोध में आए परिणाम
क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र(RMRC)की स्थापना वर्ष 2006 में बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज परिसर में पुणे वायरोलॉजिकल सेंटर के सहमति पर ही हुआ था. जिसका मुख्य उद्देश्य इंसेफेलाइटिस के महामारी पर शोध और निर्देशन को आगे बढ़ाना था. इस संस्थान ने अपने शोध को आगे बढ़ाया तो मच्छर जनित और दूषित जल से होने वाले इंसेफेलाइटिस के रोकथाम के कई उपाय और प्रयास सफल भी हुए. टीकाकरण भी शुरू हुआ. सरकार ने स्वच्छता और प्रदेश की योगी सरकार ने दस्तक जैसे अभियान को चलाकर इसके उन्मूलन में बड़ी सफलता हासिल की, लेकिन पालतू पशुओं और घरेलू जानवरों के पीठ पर एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES)के जो जीवाणु पाए गए हैं. वह थोड़े चिंताजनक हैं.
क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र के निदेशक रजनीकांत कहते हैं कि इंसेफेलाइटिस के नियंत्रण को लेकर ही है शोध किया गया है. पशुओं में मिलने वाले जूं में रिकेट्सिया का मिलना चिंताजनक है. पालतू पशुओं की नियमित साफ-सफाई जरूरी है. आरएमआरसी ने चूहे, छछूंदर और बिल्ली पर भी शोध किया था. उनमें स्क्रब टायफस वैक्टीरिया मिला था जो 60 फीसदी इंसेफेलाइटिस का जिम्मेदार है. इसी बैक्टीरिया के परिवार का हिस्सा रिकेट्सिया है जो पालतू जानवरों में देखने को मिल रहा है. इस पर नियंत्रण पशुओं की साफ-सफाई के साथ उनसे दूरी बनाकर अपनाई जा सकती है. घरों की खासकर ग्रामीण परिवेश में जहां ईंधन की लकड़ियां रखी होती हैं. उसको भी साफ सुथरा रखना होगा. चूहे और छछूंदर के टिकने की यही मुख्य जगह होते हैं. उन्होंने बताया कि इससे संक्रमित व्यक्ति के बचाव में डॉक्सीसाइक्लिन और एजिथ्रोमायसिन दवा काफी कारगर साबित है.
बचाव के लिए स्वच्छता, सफाई और पशुओं से दूरी जरूरी
पशुओं में पाए जाने वाले अधिकतर रिकेट्सिया से बुखार, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द शुरू होता है. तत्काल इलाज नहीं मिलने पर दर्द का स्तर बढ़ता जाता है. जिससे एईएस हो जाता है. बुखार के साथ झटके भी आने लगते हैं. यह बैक्टीरिया लिवर, किडनी और मस्तिष्क को प्रभावित करता है. यह तब होता है जब संक्रमित पशुओं के संपर्क में मनुष्य देर तक रहता है. उसमें पाए जाने वाले जूं उसे काटते हैं और वह पता भी नहीं चलता, लेकिन 3-4 दिन बाद दर्द और बुखार शुरू होता है तो फिर यह परेशानी का कारण बनता है.
गोरखपुर के 4 गांव में पशुओं के शरीर पर शोध करने पर इस तरह के जीवाणु मिले हैं. जिन्हें बोफिलस माइक्रोप्लस, हायलोमा कुमारी, रिफिसेफेलस, सैगवीनीयस और डर्मासेंटर, आरोटस नामक जूं पाए गए. इस शोध में डॉ. अशोक पांडेय, डॉ. विजय बोंद्र, डॉ. बृजनंदन, डॉ. हीरावती का सहयोग रहा है. वहीं इंसेफेलाइटिस की तैयारियों को लेकर जिले के सीएमओ ने कहा है कि इसके इलाज की सुविधा बीआरडी मेडिकल कॉलेज से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर उपलब्ध है, लेकिन कोरोना की महामारी में गांव-गांव तक किए जा रहे सोडियम हाइपोक्लोराइड के छिड़काव से उम्मीद की जा रही है कि शायद इस पर नियंत्रण स्थापित हो सके.
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