गोरखपुर: देश में स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ी गई 1857 की पहली क्रांति में तमाम रणबांकुरों ने अपने प्राणों की आहुति दी है. उन्हें वीर शहीद और कई तरह के सम्मान से नवाजा भी गया है. लेकिन, गोरखपुर में एक ऐसे शहीद का इतिहास आज भी गुमनामी में पड़ा हुआ है, जिसने न सिर्फ भारत माता को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए अपना सिर कलम कर दिया, बल्कि उनके पूरे परिवार के लोग जंग-ए-आजादी की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हो गए. उनके किले पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया. इस वीर सपूत का नाम था सरदार अली खान.
वर्तमान में सरदार अली खान के किले को कोतवाली थाना बनाया गया है. इसी थाना परिसर में सरदार अली खान और उनके परिजनों की मजार बनी हुई है. लेकिन, उनकी मजार और परिसर की बदहाल होती स्थिति से स्थानीय लोग बेहद दुखी हैं. ईटीवी भारत ने मौके पर जाकर हालातों का जायजा लिया.
सरदार अली का जीवन-परिचय
सरदार अली खान के पिता मुअज्जम अली खान थे, जो गोरखपुर क्षेत्र में अवध कोर्ट के रिसालदार यानी कि सैनिक कमांडर और बड़े जमींदार थे. जब 1857 ई. में आजादी की ज्वाला भड़की, तब गोरखपुर ने भी इस लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. आजादी के आंदोलन को धार देने के लिए सरदार अली खान ने मोहम्मद हसन और स्थानीय राजाओं को जिम्मेदारी दी और अंग्रेजों से लोहा लिया. इस लड़ाई में वे अंग्रेजों के आगे झुके नहीं. इसमें उन्हें अपनी शहादत देनी पड़ी. इस लड़ाई में उनके परिवार के छोटे-बड़े सभी बच्चे और महिलाओं का भी कत्ल किया गया, जिनकी मजार आज भी कोतवाली परिसर में स्थित है.
इन पुस्तकों में दर्ज है सरदार अली का नाम
अच्छी तालीम और तबीयत के साथ सरदार अली एक बार फिर जंग-ए-आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे. वह अपनी रणनीति में शहीद बंधू सिंह को शामिल करते थे, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज है. गोरखपुर क्षेत्र के क्रांतिकारी इतिहास के लेखन में जुटे प्रोफेसर कृष्ण कुमार पांडेय ने सरदार अली खान के जज्बात और आजादी के लिए दीवानगी को अपनी पुस्तक 'आईने गोरखपुर' और 'पूर्वांचल में स्वाधीनता संग्राम' जैसी पुस्तक में लिखा है.
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प्रोफेसर कृष्ण कुमार पांडेय ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा कि गोरखपुर में बाहर से आए क्रांतिकारियों को तो लोग जानते हैं. लेकिन, सरदार अली खां गोरखपुर के ही थे. उन्होंने भारत माता की रक्षा के लिए न सिर्फ अपना बलिदान दिया, बल्कि अपने परिवार के भी तमाम सदस्यों की बलि दे डाली. उन्होंने कहा कि इतिहास को बताने वाली पुस्तक 'WHO IS WHO' में भी सरदार अली की क्रांति का जिक्र मिलता है. इस पुस्तक को पीएन चोपड़ा, विजयी बी. सिन्हा और पीसी राय ने संयुक्त रूप से लिखा है.
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इस पुस्तक को भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 15 अगस्त 1973 को प्रकाशित भी किया था. इस शहीद की मजार को सम्मान मिलना चहिए. इसको लेकर भारत सरकार से 1973 से कई पत्राचार हुए. स्थानीय स्तर पर भी इसकी मांग होती आ रही है. उनके परिजन और समाज के लोग सरदार अली की मजार के स्थल को भी दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित करने, गंदगी और कोतवाली परिसर से मुक्त करने की पुरजोर मांग कर रहे हैं.
काफी मशहूर थी सरदार अली की अमानतदारी
सरदार अली खान की अमानतदारी काफी मशहूर थी. लखनऊ की बेगम हजरत महल ने अपनी दो बेटियों को अंग्रेजों से बचाने के लिए सरदार अली खान के पास गोरखपुर भेजा था. उनकी एक बेटी की मौत तपेदिक से हो गई थी, जिसकी मजार गोरखपुर में है. जबकि दूसरी बेटी ने अंग्रेजों से बचने में राप्ती नदी में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी थी.
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1857 की क्रांति के बाद गोरखपुर के आसपास छोटी-बड़ी 87 रियासतों, तालुकदार और जमींदारों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू की थी, जिसका नेतृत्व सरदार अली खान और मोहम्मद हसन ने किया था. इनके प्रयास से 10 जून 1857 ई. को गोरखपुर और आसपास के क्षेत्र को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया गया था. इसके करीब 6 माह बाद एक बार फिर अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चाल से 16 जनवरी 1858 को गोरखपुर को अपने कब्जे में ले लिया. ऐसी ऐतिहासिक घटना के किरदार और अंग्रेजों को गोरखपुर की धरती पर धूल चटाने वाले सरदार अली खान को इतिहासकार और हिंदू-मुस्लिम समाज के लोग उनकी मजार के स्थल का सुंदरीकरण करने की मांग कर रहे हैं.
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