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फर्रुखाबाद में संकट से जूझ रहा कुम्हार: चाइनीज झालरों ने ली मिट्टी के दीपक की जगह

फर्रुखाबाद के करीब 250 कुम्हार परिवार दिवाली से पहले उदास और मायूस हैं. दीपों को तैयार करने वाली मिट्टी फर्रुखाबाद में आसानी से नहीं मिल पा रही है और उसे आसपास के जिलों से मंगवाना पड़ रहा है. जबिक अब चाइनीज झालरों ने मिट्टी के दीपक की जगह ले ली.

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मिट्टी के दीयों की मांग
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Published : Oct 23, 2022, 12:51 PM IST

फर्रुखाबाद: दीपावली शब्द ही जिस दीप से बना है, उसका अस्तित्व आज खतरे में है. जी हां जैसे-जैसे जमाने का चलन बदल रहा है, वैसे-वैसे अब मिट्टी के दीये की कहानी भी बदलती जा रही है. यहीं कारण है कि दिवाली में लोगों के घर रोसन करने वाले मिट्टी के कारीगर आज दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं, क्योंकि आज बाजारों में मिल रही रंग-बिरंगी बिजली की झालरों की से कुम्हार परेशान है. उनका कहना है कि झालरों के आगे इनके दीयों को कोई नहीं पूछ रहा है. एक ट्रैक्टर ट्राली मिट्टी एक हजार से दो रुपये के बीच आती थी. ऊपर से अब मिट्टी के दीये की खरीददारी करने वाले ही कम रह गए हैं. आलम यह है कि शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चायनीज दीये की मांग बढ़ती जा रही है.

चाइनीज झालरों ने ली मिट्टी के दीपक की जगह

दरअसल, अब से ढाई दशक पहले दीपावली के त्योहार पर लोग मिट्टी के दीये से घर को रोशन करते थे. लेकिन धीरे-धीरे इनका स्थान अब बिजली की झालरों और रंगबिरंगी मोमबत्तियों ने ले लिया है, जिसके चलते मिट्टी के दीये सगुन बनकर रह गए हैं. लोग पूजा पाठ में ही इनका प्रयोग करते हैं. मिट्टी के दीयों की मांग कम होने का प्रभाव इनको बनाने वालों पर भी पड़ा है. उनकी न सिर्फ आमदनी कम हुई है. बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता रोजी रोटी पर संकट भी मंडराने लगा है. चाइना की झालरों ने उनकी उम्मीद की किरण को अंधेरे में धकेल दिया है.

इस दौरान कारीगरों का कहना है कि पहले लोग हर शुभ कार्य में मिट्टी के बर्तनों का ही प्रयोग करते थे. खासतौर पर दीपावली के त्योहार पर मिट्टी के दीयों से ही घर को रोशन करते थे. दीपावली का त्योहार आने के दो महीना पहले से ही मिट्टी के बर्तन बनाने वाले दीया बनाने में जुट जाते थे ताकि समय से वह बिक्री कर सकें. वक्त बदलने के साथ ही दीयों का क्रेज कम होने लगा. लोगों के आकर्षण का केंद्र बिजली की रंगबिरंगी झालरें और मोमबत्तियां बन गईं. त्योहार पर अब लोग सगुन के तौर पर दीया लेते हैं. दीयों की मांग कम होने से मिट्टी के बर्तन बनाने वालों को खासा नुकसान हुआ है.

कारीगर रामसिंह ने बताया कि बचपन में जब भी दीपावली का त्योहार आता था तो गांव में बर्तन बनाने वाले के यहां से सबसे पहले मिट्टी के दीये मंगाये जाते थे. उनको पानी में डाल दिया जाता था ताकि तेल कम लगे. मिट्टी के दीपक वास्तव में बहुत अच्छे लगते थे. अब तो सिर्फ कहने भर को रह गया है. पहले दीपावली के त्योहार के नजदीक आते ही सरसों के तेल की घानी पिरवा ली जाती थी. महिलाएं रुई की बत्तियां बनाती थीं. बता दें कि फर्रुखाबाद के जिला अधिकारी संजय कुमार ने लोगों से अपील करते हुए कहा कि सभी कुम्हरों से ही मिट्टी के बने दीये खरीद.

यह भी पढ़ें- सट्टे की रंजिश में फायरिंग, हिस्ट्रीशीटर के घायल होने पर समर्थकों का थाने पर हंगामा

फर्रुखाबाद: दीपावली शब्द ही जिस दीप से बना है, उसका अस्तित्व आज खतरे में है. जी हां जैसे-जैसे जमाने का चलन बदल रहा है, वैसे-वैसे अब मिट्टी के दीये की कहानी भी बदलती जा रही है. यहीं कारण है कि दिवाली में लोगों के घर रोसन करने वाले मिट्टी के कारीगर आज दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं, क्योंकि आज बाजारों में मिल रही रंग-बिरंगी बिजली की झालरों की से कुम्हार परेशान है. उनका कहना है कि झालरों के आगे इनके दीयों को कोई नहीं पूछ रहा है. एक ट्रैक्टर ट्राली मिट्टी एक हजार से दो रुपये के बीच आती थी. ऊपर से अब मिट्टी के दीये की खरीददारी करने वाले ही कम रह गए हैं. आलम यह है कि शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चायनीज दीये की मांग बढ़ती जा रही है.

चाइनीज झालरों ने ली मिट्टी के दीपक की जगह

दरअसल, अब से ढाई दशक पहले दीपावली के त्योहार पर लोग मिट्टी के दीये से घर को रोशन करते थे. लेकिन धीरे-धीरे इनका स्थान अब बिजली की झालरों और रंगबिरंगी मोमबत्तियों ने ले लिया है, जिसके चलते मिट्टी के दीये सगुन बनकर रह गए हैं. लोग पूजा पाठ में ही इनका प्रयोग करते हैं. मिट्टी के दीयों की मांग कम होने का प्रभाव इनको बनाने वालों पर भी पड़ा है. उनकी न सिर्फ आमदनी कम हुई है. बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता रोजी रोटी पर संकट भी मंडराने लगा है. चाइना की झालरों ने उनकी उम्मीद की किरण को अंधेरे में धकेल दिया है.

इस दौरान कारीगरों का कहना है कि पहले लोग हर शुभ कार्य में मिट्टी के बर्तनों का ही प्रयोग करते थे. खासतौर पर दीपावली के त्योहार पर मिट्टी के दीयों से ही घर को रोशन करते थे. दीपावली का त्योहार आने के दो महीना पहले से ही मिट्टी के बर्तन बनाने वाले दीया बनाने में जुट जाते थे ताकि समय से वह बिक्री कर सकें. वक्त बदलने के साथ ही दीयों का क्रेज कम होने लगा. लोगों के आकर्षण का केंद्र बिजली की रंगबिरंगी झालरें और मोमबत्तियां बन गईं. त्योहार पर अब लोग सगुन के तौर पर दीया लेते हैं. दीयों की मांग कम होने से मिट्टी के बर्तन बनाने वालों को खासा नुकसान हुआ है.

कारीगर रामसिंह ने बताया कि बचपन में जब भी दीपावली का त्योहार आता था तो गांव में बर्तन बनाने वाले के यहां से सबसे पहले मिट्टी के दीये मंगाये जाते थे. उनको पानी में डाल दिया जाता था ताकि तेल कम लगे. मिट्टी के दीपक वास्तव में बहुत अच्छे लगते थे. अब तो सिर्फ कहने भर को रह गया है. पहले दीपावली के त्योहार के नजदीक आते ही सरसों के तेल की घानी पिरवा ली जाती थी. महिलाएं रुई की बत्तियां बनाती थीं. बता दें कि फर्रुखाबाद के जिला अधिकारी संजय कुमार ने लोगों से अपील करते हुए कहा कि सभी कुम्हरों से ही मिट्टी के बने दीये खरीद.

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