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ऐसा शायर जिसकी सादगी की दी जाती है मिसाल, घर के बजाय लोगों के दिलों में बनाई जगह

'तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती' 'मेरे राहबर मुझ को गुमराह करदे सुना है कि मंज़िल क़रीब आ गई है' और 'चिराग़ो के बदले मकां जल रहे हैं नया है ज़माना, नई रोशनी है' जैसे एक से एक नायाब गीतों और बेहतरीन गजलों के जरिए बाराबंकी का नाम देश दुनिया में रोशन करने वाले खु़मार बाराबंकवी 15 सितंबर को पैदा हुए थे. मुशायरों की जान माने जाने वाले खु़मार ने दो दर्जन से ज्यादा फिल्मों के नगमों से लोगों के दिलों तक पहचान बनाई.

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Published : Sep 15, 2019, 10:21 PM IST

जयंती विशेष

बाराबंकी: साहित्य और संगीत में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई हो जिसने खु़मार बाराबंकवी का नाम न सुना हो. नगर के सट्टी बाजार इलाके में डॉ गुलाम मोहम्मद के घर 15 सितंबर 1919 को पैदा हुए खु़मार का असली नाम मोहम्मद हैदर खान था. बचपन में प्यार से लोग इन्हें दुल्लन कह कर बुलाया करते थे.

जयंती विशेष

काॅलेज के एक मुशायरे ने बनाया हैदर को ख़ुमार बाराबंकवी
शहर के सिटी इंटर कॉलेज से आठवीं पास करने के बाद इन्होंने जीआइसी में अपना दाखिला लिया. यहां कॉलेज ने एक मुशायरे का आयोजन किया था. उस मुशायरे में पहली बार ख़ुमार ने अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

फिल्मी दुनिया से बहुत जल्द ऊब गए थे ख़ुमार
खु़मार मकबूल हुए तो चालीस के दशक में मुंबई चले गए. वहां उनकी मुलाकात मशहूर फिल्म मेकर एआर कारदार से हुई और उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का काम भी मिल गया. कई फिल्मों में गीत लिखे लेकिन अपने खुले मिजाज के चलते जल्द ही वे फिल्मी दुनिया से ऊब गए और वापस लौट आए.

मुशायरों की जान माने जाते थे ख़ुमार बाराबंकवी
फिर जब तक जिंदा रहे मुशायरों में शामिल होते रहे. उनके वक्त में जिगर मुरादाबादी और जोश मलीहाबादी बड़े शायर थे. खु़मार तरन्नुम से अपनी गजलें पढ़ते थे लिहाजा जल्द ही वे उनके समकक्ष हो गए. एक वक्त ऐसा भी आया कि वे मुशायरों की जान माने जाने लगे. यहां तक कि बगैर उनकी मौजूदगी कोई भी मुशायरा अधूरा माना जाता था.

ख़ुमार के नाम से है बाराबंकी की पहचान
उनके परिवार को फक्र है कि ख़ुमार के नाम से बाराबंकी की पहचान है. इनके सीने उस वक्त तन जाते हैं जब इनका किसी महफिल में खुमार के घर वाले कह कर इनका तआरुफ कराया जाता है.

ख़ुमार के फिल्मी नगमें और ग़ज़लों का कलेक्शन
ख़ुमार ने शाहजहां , बारादरी, हलचल,लव ऐंड गॉड , साज और आवाज जैसी करीब दो दर्जन फिल्मों में नगमे लिखे. यहीं नही उनकी ग़ज़लों के हदीस ए दीगरा, रक्स ए मय, आतिश ए तर और शब ए ताब जैसे चार कलेक्शन भी प्रकाशित हुए, जिनको सुनकर या पढ़कर बिना गुनगुनाये नहीं रहा जा सकता.

ख़ुमार साहब इतने सादगी पसंद थे कि उनके अंदर कभी कोई ख्वाहिश नहीं रही और यही वजह रही कि उन्होंने अपना मकान तक नहीं बनवाया. यही सादगी हमारे परिवार में आज भी कायम है.
-शादाब खान, ख़ुमार के पौत्र

इतना बड़ा कद होने के बावजूद वो जब भी शहर से निकलते थे हर किसी को आदाब करना नही भूलते थे. यहां तक कि बगैर उनकी मौजूदगी कोई भी मुशायरा अधूरा माना जाता था.
-हशमत उल्ला, ख़ुमार के करीबी

बाराबंकी: साहित्य और संगीत में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई हो जिसने खु़मार बाराबंकवी का नाम न सुना हो. नगर के सट्टी बाजार इलाके में डॉ गुलाम मोहम्मद के घर 15 सितंबर 1919 को पैदा हुए खु़मार का असली नाम मोहम्मद हैदर खान था. बचपन में प्यार से लोग इन्हें दुल्लन कह कर बुलाया करते थे.

जयंती विशेष

काॅलेज के एक मुशायरे ने बनाया हैदर को ख़ुमार बाराबंकवी
शहर के सिटी इंटर कॉलेज से आठवीं पास करने के बाद इन्होंने जीआइसी में अपना दाखिला लिया. यहां कॉलेज ने एक मुशायरे का आयोजन किया था. उस मुशायरे में पहली बार ख़ुमार ने अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

फिल्मी दुनिया से बहुत जल्द ऊब गए थे ख़ुमार
खु़मार मकबूल हुए तो चालीस के दशक में मुंबई चले गए. वहां उनकी मुलाकात मशहूर फिल्म मेकर एआर कारदार से हुई और उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का काम भी मिल गया. कई फिल्मों में गीत लिखे लेकिन अपने खुले मिजाज के चलते जल्द ही वे फिल्मी दुनिया से ऊब गए और वापस लौट आए.

मुशायरों की जान माने जाते थे ख़ुमार बाराबंकवी
फिर जब तक जिंदा रहे मुशायरों में शामिल होते रहे. उनके वक्त में जिगर मुरादाबादी और जोश मलीहाबादी बड़े शायर थे. खु़मार तरन्नुम से अपनी गजलें पढ़ते थे लिहाजा जल्द ही वे उनके समकक्ष हो गए. एक वक्त ऐसा भी आया कि वे मुशायरों की जान माने जाने लगे. यहां तक कि बगैर उनकी मौजूदगी कोई भी मुशायरा अधूरा माना जाता था.

ख़ुमार के नाम से है बाराबंकी की पहचान
उनके परिवार को फक्र है कि ख़ुमार के नाम से बाराबंकी की पहचान है. इनके सीने उस वक्त तन जाते हैं जब इनका किसी महफिल में खुमार के घर वाले कह कर इनका तआरुफ कराया जाता है.

ख़ुमार के फिल्मी नगमें और ग़ज़लों का कलेक्शन
ख़ुमार ने शाहजहां , बारादरी, हलचल,लव ऐंड गॉड , साज और आवाज जैसी करीब दो दर्जन फिल्मों में नगमे लिखे. यहीं नही उनकी ग़ज़लों के हदीस ए दीगरा, रक्स ए मय, आतिश ए तर और शब ए ताब जैसे चार कलेक्शन भी प्रकाशित हुए, जिनको सुनकर या पढ़कर बिना गुनगुनाये नहीं रहा जा सकता.

ख़ुमार साहब इतने सादगी पसंद थे कि उनके अंदर कभी कोई ख्वाहिश नहीं रही और यही वजह रही कि उन्होंने अपना मकान तक नहीं बनवाया. यही सादगी हमारे परिवार में आज भी कायम है.
-शादाब खान, ख़ुमार के पौत्र

इतना बड़ा कद होने के बावजूद वो जब भी शहर से निकलते थे हर किसी को आदाब करना नही भूलते थे. यहां तक कि बगैर उनकी मौजूदगी कोई भी मुशायरा अधूरा माना जाता था.
-हशमत उल्ला, ख़ुमार के करीबी

Intro:बाराबंकी ,15 सितम्बर । तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती जैसे एक से एक नायाब गीतों और बेहतरीन गजलों के जरिए बाराबंकी का नाम देश दुनिया में रोशन करने वाले खुमार बाराबंकवी आज ही के दिन पैदा हुए थे । मुशायरों की जान माने जाने वाले खुमार ने दो दर्जन से ज्यादा फिल्मों के नगमों से लोगों के दिलों तक पहचान बनाई । खुमार इस मुकाम तक कैसे पहुंचे देखिये हमारी इस खास रिपोर्ट में...


Body:वीओ - साहित्य और संगीत में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई हो जिसने खुमार बाराबंकवी का नाम न सुना हो । नगर के सट्टी बाजार इलाके में डॉ गुलाम मोहम्मद के घर 15 सितंबर 1919 को पैदा हुए खुमार का असली नाम मोहम्मद हैदर खान था । बचपन में प्यार से लोग इन्हें दुल्लन कह कर बुलाते थे ।शहर के सिटी इंटर कॉलेज से आठवीं पास कर इन्होंने जीआइसी में अपना दाखिला लिया । यहां कॉलेज ने एक मुशायरे का आयोजन किया था । उस मुशायरे में पहली बार खुमार ने अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ।
बाईट- हशमत उल्ला , वरिष्ठ पत्रकार और खुमार के करीबी

वीओ - खुमार मकबूल हुए तो चालीस के दशक में मुंबई चले गए। वहां उनकी मुलाकात मशहूर फिल्म मेकर एआर कारदार से हुई और उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का काम मिल गया ।कई फिल्मों में गीत लिखे लेकिन अपने खुले मिजाज के चलते जल्द ही वे फिल्मी दुनिया से ऊब गए और वापस लौट आए फिर जब तक जिंदा रहे मुशायरों में शामिल होते रहे । उनके वक्त में जिगर मुरादाबादी और जोश मलीहाबादी बड़े शायर थे । खुमार तरन्नुम से अपनी गजलें पढ़ते थे लिहाजा जल्द ही वे उनके समकक्ष हो गए । एक वक्त ऐसा भी आया कि वे मुशायरों की जान माने जाने लगे । यहां तक कि बगैर उनकी मौजूदगी कोई भी मुशायरा अधूरा माना जाता था ।
बाईट- हशमत उल्ला , खुमार के करीबी

वीओ - उनके परिवार को फख्र है कि खुमार के नाम से बाराबंकी की पहचान है । इनके सीने उस वक्त तन जाते हैं जब इनका किसी महफ़िल में खुमार के घर वाले कह कर इनका तआरुफ़ कराया जाता है ।
बाईट- शहाब खान , खुमार के पौत्र

वीओ - ख़ुमार साहब इतने सादगी पसंद थे कि उनके अंदर कभी कोई ख्वाहिश नहीं रही और यही वजह रही कि उन्होंने अपना मकान तक नहीं बनवाया । यही सादगी आज भी उनके परिवार में कायम है ।
बाईट- शादाब खान , ख़ुमार के पौत्र

वीओ - इतना बड़ा कद होने के बावजूद भी वो जब भी शहर से निकलते थे हर किसी को आदाब करना नही भूलते थे ।
बाईट - हशमत उल्ला , ख़ुमार के करीबी


Conclusion:ख़ुमार ने शाहजहां , बारादरी, हलचल,लव ऐंड गॉड , साज और आवाज जैसी करीब दो दर्जन फिल्मों में नगमे लिखे । यही नही उनकी गजलों के हदीस ए दीगरा, रक्स ए मय, आतिश ए तर और शब ए ताब जैसे चार कलेक्शन भी प्रकाशित हुए । जिनको सुनकर या पढ़कर बिना गुनगुनाये नही रहा जा सकता ।

रिपोर्ट - अलीम शेख बाराबंकी
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