बागपत : रावण शब्द सुनते ही मन में खलनायक की छवि उभरती है. दशहरे के दिन बुराई का प्रतीक बताकर दशानन का पुतला भी फूंका जाता है. लेकिन बागपत जिले के बड़ागांव के ग्रामीण लंकेश के प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं. सदियों से यहां रावण की पूजा की जाती है. गांव में न तो रामलीला होती है और न ही रावण का पुतला फूंका जाता है. रावण का इस गांव से गहरा नाता भी रहा है.
दिल्ली-यमुनोत्री हाईवे 709-B पर पाठशाला चौराहे से 11 किमी दूर बड़ागांव उर्फ रावण गांव है. यह गांव पुरातत्व और धार्मिक दृष्टिकोण से भी खासा महत्व रखता है. किंवदंती, अवशेष व सैकड़ों साल पुरानी मूर्तियां और मंदिर , इस गांव को सुर्खियों में बनाए रखते हैं. बताते हैं कि लंकाधिपति रावण यहां आया था. मंशादेवी मंदिर के पुजारी रमाशंकर तिवारी के अनुसार, रावण हिमालय से मंशादेवी की मूर्ति लेकर गुजर रहा था. बड़ागांव के पास रावण को लघुशंका लगी. जिसके बाद रावण मंशादेवी की मूर्ति को जमीन पर रखकर लघुशंका के लिए चला गया.
मूर्ति स्थापना को लेकर विशेष शर्त थी कि पहली बार मूर्ति जहां रखी जाएगी वहीं स्थापित हो जाएगी. इस कारण मां की मूर्ति इस गांव में स्थापित हो गई. रावण ने मूर्ति स्थापित होने के बाद यहां एक कुंड खोदा और उसमें स्नान के बाद तप किया. इस कुंड का नाम रावण कुंड है. कहा जाता है कि रावण के समय मां मंशादेवी का मंदिर अभी भी गांव में स्थापित है. इसी किंवदंती के चलते इस गांव का नाम रावण पड़ गया. राजस्व अभिलेखों में भी इस गांव का नाम रावण उर्फ बड़ा गांव दर्ज है. तभी से इस गांव के ग्रामीण रावण को अपना पूर्वज मानते हैं. यही वजह है कि इस गांव के ग्रामीण आज भी रावण का पुतला दहन न करके उसकी पूजा करते हैं.
स्थानीय लोगों की मानें तो खुदाई में मिले प्रमाणों के अनुसार ऐसी पुष्टि होती है कि रावण ने यहां पर मंशा देवी मंदिर की स्थापना की. इसी आधार पर गांव को रावण नाम का दर्जा प्राप्त है. ग्रामीण रावण को गांव का संस्थापक मानकर उन्हें पूजते हैं. रावण गांव ऐतिहासिक धरोहरों के नजरिए से भी काफी महत्वपूर्ण है. यहां सिद्ध पीठ मंदिर में भगवान विष्णु की दशावतार मूर्ति है. पुरातत्वविद इस मूर्ति को सातवीं शताब्दी की बताते हैं. मंदिर में प्राचीन स्तंभ और अन्य मूर्तियां अजंता-एलोरा जैसी प्रतीत होती हैं. गांव में कई जैन मंदिर स्थापित हैं. दुनियाभर से जैन समाज के लोग यहां स्थित त्रिलोकतीर्थ मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं.
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यहां के लोगों का कहना था, विद्वान रावण कभी भी महिलाओं से अमर्यादित आचरण नहीं किए. मां सीता से भी वह सदैव मर्यादा में रहे. सभी ग्रामीण रावण की अच्छाइयों को ग्रहण करने और उनका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं. गांव में कभी रामलीला का आयोजन नहीं होता और न ही उनका पुतला फूंका जाता है.