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आजमगढ़: मोबाइल और कोरोना ने उतारे बागीचों के झूले, फीका पड़ा सावन - आजमगढ़ में कोरोना का प्रकोप

कोरोना की मार सिर्फ देश की आम जनता पर ही नहीं पड़ी, कोरोना इन मौसमों पर भी भारी पड़ा है. सावन के झूले और कजरी के गीत तो अब बीते जमाने की बात लगती है.

corona effects on monsoon in azamgarh
सावन का रंग पड़ा फीका.
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Published : Jul 14, 2020, 7:52 PM IST

आजमगढ़: सावन के महीने का सभी को इंतजार रहता है, लेकिन हालात इस बार कुछ अलग हैं. जिस तरह से इस बार पूरे देश में कोरोना का संक्रमण लगातार बढ़ रहा है. इससे अब गांव में न तो अब सावन के महीने में गाए जाने वाली कजरी के गीत सुनाई देते हैं और न ही कहीं पर झूले लगाए गए.

सावन का रंग पड़ा फीका.

आजमगढ़ के हथिया गांव की निवासी समला ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा कि पहले सावन के महीने का इंतजार बच्चे, बूढ़े, जवान सभी को रहता था पर अब न तो बच्चे झूलों के लिए रोते हैं और न ही बागों में झूले पड़े दिखाई देते हैं. कजरी के गीत के लिए कान अब तरसते हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि झूला झूलने वाले बच्चे अब मोबाइल में ही मसरूफ रहते हैं. ऊपर से कोरोना के संक्रमण ने भी रही सही कसर पूरी कर दी.

राम लखन ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा कि पहले बच्चे झूले के लिए रोते थे और झूला झूलने की जिद किया करते थे, लेकिन अब इन झूलों की जगह हाथेली से चिपके मोबाइल ने ले ली है. अब बच्चों की दुनिया मोबाइल में ही सिमट कर रह गई है. वैसे तो सावन के महीने में हर गांव में कजरी के गीत सुनाई देते थे और गांव के हर बगीचों में झूले भी दिखाई दिया करते थे.

आजमगढ़: सावन के महीने का सभी को इंतजार रहता है, लेकिन हालात इस बार कुछ अलग हैं. जिस तरह से इस बार पूरे देश में कोरोना का संक्रमण लगातार बढ़ रहा है. इससे अब गांव में न तो अब सावन के महीने में गाए जाने वाली कजरी के गीत सुनाई देते हैं और न ही कहीं पर झूले लगाए गए.

सावन का रंग पड़ा फीका.

आजमगढ़ के हथिया गांव की निवासी समला ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा कि पहले सावन के महीने का इंतजार बच्चे, बूढ़े, जवान सभी को रहता था पर अब न तो बच्चे झूलों के लिए रोते हैं और न ही बागों में झूले पड़े दिखाई देते हैं. कजरी के गीत के लिए कान अब तरसते हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि झूला झूलने वाले बच्चे अब मोबाइल में ही मसरूफ रहते हैं. ऊपर से कोरोना के संक्रमण ने भी रही सही कसर पूरी कर दी.

राम लखन ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा कि पहले बच्चे झूले के लिए रोते थे और झूला झूलने की जिद किया करते थे, लेकिन अब इन झूलों की जगह हाथेली से चिपके मोबाइल ने ले ली है. अब बच्चों की दुनिया मोबाइल में ही सिमट कर रह गई है. वैसे तो सावन के महीने में हर गांव में कजरी के गीत सुनाई देते थे और गांव के हर बगीचों में झूले भी दिखाई दिया करते थे.

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