अलीगढ़: इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं...दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए... जैसी तमाम अमर पंक्तियां लिखने वाले शहरयार ( shahryar) आधुनिक शायरी के अहम हस्ताक्षर थे. गजल, नज्म के साथ फिल्मों के लिए गीत भी लिखे. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उर्दू विभाग में प्रोफेसर रहे. 16 जून 1936 को ही शहरयार का जन्म बरेली के आंवला में हुआ था. इनके पिता पुलिस विभाग में थे. शुरुआत में कुंवर अखलाक मोहम्मद खान के नाम से शायरी करते थे लेकिन उन्हें ख्याति 'शहरयार' नाम से मिली.
शहरयार को 'गमन' फिल्म की गजल के साथ ही 'उमराव जान' के खूबसूरत अंदाज में लिखे गाने के लिए जाना जाता है. इसके साथ आहिस्ता-आहिस्ता, फासले, अंजुमन सहित तमाम फिल्म के लिए भी गीत लिखे. उनकी गजल की लाइनों का अलग अंदाज होता था. इंसान के अंतर्द्वंद को बड़े खूबसूरत अंदाज में कह देते थे. उन्होंने हिंदी और उर्दू दोनों में ही शायरी लिखी. शाम होने वाली है, ख्वाब का दर बंद है, सातवां दर, हिज्र के मौसम आदि रचनाएं लिखीं. उनकी शायरी का अनुवाद फ्रेंच, जर्मन, रूसी, मराठी, बंगाली और तेलुगु भाषा में हो चुका है. शहरयार 1948 में अलीगढ़ आ गए थे और 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में लेक्चरर हुए. 1996 में प्रोफेसर बने और उर्दू विभाग के चेयरमैन के रूप में रिटायर हुए थे. शहरयार ने अलीगढ़ ही रहकर साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े रहे. उन्हें ज्ञानपीठ अवॉर्ड के साथ साहित्य अकादमी से भी सम्मानित किया गया.
शहरयार की शायरी करोड़ों लोगों के दिलों में बसी है. इश्क, मोहब्बत पर अपने दार्शनिक अंदाज में शायरी करने वाले शहरयार का पर्सनल जीवन खुशनुमा नहीं था. जीवन के आखिरी दिन तन्हा थे. हालांकि यह तन्हाई बीमारी से आई या अपनों के दूर जाने से, इस पर कुछ साफ नहीं है. उनका पत्नी नगमा से शादी के 30 साल बाद तलाक हो गया था. उनके दो बेटे हुमायूं और फरीद हैं. वही एक बेटी सायमा डॉक्टर है. बताया जा रहा है कि पत्नी से वैचारिक मतभेद होने के चलते अलग हो गई थीं. वह भी शिक्षक के साथ साहित्यकार हैं और कई किताबें लिख चुकी हैं.
साफे किदवाई बताते हैं कि शायर का निजी जीवन कुछ नहीं होता है, वह अपनी कविता में ही जिंदा रहता है. शहरयार क्रिएटिव नेचर के थे. क्रिएटिव व्यक्ति अपने जीवन को तन्हाई में गुजारते हैं. उनका निजी जीवन भले ही खुशगवार और अच्छा नहीं था लेकिन वह एक शायर के रूप में अमर हैं. वह कैसी जिंदगी गुजारते थे या कैसा सामाजिक व्यवहार था, यह बात उनके निधन के साथ ही खत्म हो गई. अब उनकी कविता, गजलें और नज्में लेखन के रूप में जिंदा रहेंगी.
साफे किदवई, शहरयार के नजदीक थे और बताते हैं कि वे यारों के यार थे इसलिए उनका नाम शहरयार पड़ा. हर उम्र के लोगों से उनका ताल्लुक था. हर किसी के काम आते थे. हालांकि कई बार देखने में आता है कि साहित्यकार आम लोगों से अलग-थलग होते हैं. लोगों से मिलते नहीं हैं लेकिन शहरयार में यह बातें नहीं थी. वह सभी से मिलते थे. बीमारी के वक्त भी उनके चाहने वाले मिलने आते रहे. वहीं गजल, नगमों पर शोध करने वाले छात्र भी उनसे मिलने के लिए आते थे. उनकी शायरी में अकेलेपन की बेबसी झलकती थी. उनके सीने में दर्द बहुत था, जिसे वह अपनी शायरी में उड़ेल देते थे. उन्होंने ऐसा लिखा भी, छाए हुए थे बादल, लेकिन बरसे नहीं. दर्द बहुत था दिल में, मगर हम रोए नहीं.
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जनसंपर्क विभाग से रिटायर हुए राहत अबरार बताते हैं कि शहरयार हमारे गुरु थे. उनकी शायरी आम शायरी से हटकर थी. उन्होंने शायरी में नए लब्ज, लहजा और तरीके का इजाद किया. उनके दोस्त मुजफ्फर अली ने उनकी शायरी को फिल्मों में शामिल कर बहुत शोहरत दिलाई. राहत अबरार कहते हैं कि शहरयार कि जिंदगी के मामले दूसरे थे और शायरी का अंदाज दूसरा था. साहित्यकार नमिता सिंह बताती हैं कि शहरयार की शायरी उर्दू से ज्यादा हिंदी के पाठक पढ़ते थे. उन्होंने बताया कि उनकी निजी जिंदगी खुशनुमा नहीं थी. वे आधुनिकतावादी शायर थे. अपनी शायरी में व्यवस्था पर भी सवाल उठाते थे. समाज से जुड़े मुद्दों की झलक भी उनकी शायरी में होती थी. शहरयार जनवादी लेखक संघ से भी जुड़े रहें और देश के अन्य हिस्सों के साथ अलीगढ़ के कई कार्यक्रमों में शामिल रहे.
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