आगरा : कभी चंबल में कुख्यात बदमाशों और डाकू की कदमताल और गोलियां गूंजती थी, लेकिन अब साफ सुथरी चंबल अति दुर्लभ बटागुर (तिलकधारी) कछुओं का आशियाना बन गई है. टर्टल सर्वाइवल एलायंस और वन एवं वन्य जीव विभाग का दावा है कि दुनिया में बटागुर कछुए सिर्फ चंबल में बचे हैं. जिनकी संख्या 500 से ज्यादा है. बटागुर कछुओं की वंश चंबल में खूब आगे बढ़ रहा है.
चंबल में तिलकधारी कछुओं की टर्र-टर्र अब खूब गूंजने लगी है. इन कछुओं को डिवाइस के जरिए ट्रैक भी किया जा रहा है. चंबल नदी में नदगवां से उदी मोड़ के बीच गढयता में हैचरी बनाई गई है. जहां पर अति दुर्लभ बटागुर कछुआ के प्रजनन और प्रोटेक्शन पर रिसर्च चल रहा है.
बता दें कि बटागुर कछुए केवल साफ पानी में जीवित रहते हैं. इसलिए चंबल में बटागुर कछुए अभी बचे हुए हैं. इन कछुओं के सिर पर रंग बिरंगी धारियां होती हैं. इसलिए इसे तिलकधारी कछुआ भी कहते हैं. टीएसए भास्कर दीक्षित ने बताया कि भारत में कछुओं की 28 प्रजातियां साफ पानी में रहती हैं. इनमें से आठ प्रजातियों के कछुए चंबल नदी में रहते हैं. जिसमें अति दुर्लभ बटागुर कछुआ भी शामिल हैं. यह चंबल नदी के साफ पानी के कारण यहां पर पाया है.
दुनिया में बटागुर सिर्फ चंबल में कुनबा बढ़ा रहा है, लेकिन कई जानवर इन कछुओं के अंडों को खा लेते हैं. इसलिए अंडों की रखवाली विशेषज्ञों की निगरानी में होती है. इसलिए हैचरी बनाई गई है. जिसमें अति दुर्लभ बटागुरके अंडों को सुरक्षित लाकर रखा जाता है. विशेषज्ञों की निगरानी में अण्डों से कछुए के बच्चे निकलते हैं. फिर उन्हें पाला जाता है और फिर चंबल में सुरक्षित छोड़ दिया जाता है.
टीएसए की अरुनिमा सिंह ने बताया कि बटागुर कछुआ शेड्यूल वन में शामिल हैं. इन कछुओं के अण्डों को हैचरी में रखते हैं. इसके साथ ही इन कछुओं पर रिसर्च भी किया जा रहा है. टीएसए की ओर से 10 बटागुर कछुओं में डिवाइस लगाकर रिसर्च किया जा रहा है कि उनकी दिनचर्या कैसी है? वह क्या खाते हैं? और किस तरह से अपना जीवन जी रहे हैं? इन कछुआ के स्वभाव के बारे में रिसर्च से पता चलेगा. जिससे यह रिसर्च अति दुर्लभ बटागुर की संख्या बढ़ाने में अहम रहेगी.